जनसत्ता 3 अक्तूबर, 2013 : बरसों-बरस से जिसकी मांग की जा रही थी, वह संसद से भले न मिल सका, न्यायालय से तो मिला! भारतीय मतदाता को यह अधिकार मिला कि वह चुनाव में विभिन्न पार्टियों द्वारा खड़े किए गए उम्मीदवारों को अपने विवेक की कसौटी पर कसे और अगर उसे लगे कि सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं तो वह सबको रद्द करने का बटन दबा सके। मतलब अब वोट देने वाली मशीन पर पार्टियों का एकछत्र राज नहीं रहा, उसका एक बटन मतदाताओं के हाथ में भी आ गया! इधर लगातार ऐसा ही हो रहा है कि लोकतंत्र के नाम से चलने वाली सरकारें जब लोगों की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को आंकने में समर्थ और ईमानदार नहीं रह जाती हैं तब न्यायपालिका आगे आती है। यह एक साथ ही भारतीय लोकतंत्र की दुरवस्था और उसकी आंतरिक शक्ति का प्रतीक है।
भारतीय लोकतंत्र के जन्म के साथ ही लोकनायक जयप्रकाश ने यह खतरा पहचाना था कि यह शासन-पद्धति हमारे लोभ-बेईमानी-चातुरी और निकम्मेपन का शिकार होकर भ्रष्ट हो सकती है। इसलिए वे एकदम शुरू से आवाज उठाते रहे, सुझाव देते रहे कि पतनशील होने से रोकने के लिए हमें कई व्यवस्थागत उपाय करने होंगे। उनसे बहुत पहले, 1908 में, महात्मा गांधी ‘हिंद स्वराज’ नाम की अपनी पुस्तिका में ब्रितानी शैली के संसदीय लोकतंत्र की अंतर्निहित कमजोरियों की मारक विवेचना कर चुके थे।
अपनी इन्हीं असहमतियों के कारण जयप्रकाश भी इस संसदीय लोकतंत्र के हामी नहीं थे; वे उस संविधान सभा में भी शामिल नहीं हुए जिसने भारतीय संविधान की रचना की। वे महात्मा गांधी की इस बात से सहमत थे कि भारतीय संविधान की आत्मा, इसकी अपनी संस्कृति और परंपरा में से खोजी जानी चाहिए ताकि यह हमारी जरूरतों को पूरा करने लायक ठोस भी हो और लचीली भी।
लेकिन विडंबना देखिए कि जिस आदमी ने सैद्धांतिक आधार पर संविधान सभा का बहिष्कार किया, जिसने कभी किसी चुनाव में उम्मीदवारी नहीं की, जो कभी किसी संसद या विधानसभा में नहीं गया, जो जीवन भर कभी पंचायत से लेकर संसद तक के टिकट का प्रत्याशी नहीं रहा, उसी आदमी की किस्मत में यह बदा था कि वह इस संसदीय लोकतंत्र के पतन को रोकने की लड़ाई में सबसे आगे रहे और जब, 1974-77 के दौर में इसे मर्मांतक चोट पहुंचाने की पक्की योजना पर काम हो रहा था, तब उसने ही अपनी गर्दन आगे कर, इसे बचाया भी था। भारतीय लोकतंत्र के विकास का कोई भी इतिहास उस जयप्रकाश के जिक्र के बिना अधूरा भी होगा और बेईमानी भरा भी, जिसने लोकतंत्र के तथाकथित मंदिरों में कभी कदम नहीं रखा बल्कि ग्रामस्वराज्य के आधार पर, लोकतंत्र का नया स्वरूप खड़ा करने की साधना में जीवन भर लगा रहा।
जयप्रकाश ने दो बातों की पुरजोर मांग उठाई थी- हमारे मतदाता को उम्मीदवारों को खारिज करने का अधिकार मिलना चाहिए और प्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार मिलना चाहिए- राइट टु रिजेक्ट और राइट टु रिकॉल! उनकी इन दोनों मांगों का शुरू में उपहास किया गया, एक हारी हुई समाजवादी पार्टी के नेता का प्रलाप माना गया। समय बीतने के साथ-साथ यह मानाजाने लगा कि ये परिकल्पनाएं तो अच्छी हैं लेकिन व्यावहारिक नहीं हैं। जयप्रकाश देश भर में इन सुझावों के बारे में जनमत बनाते रहे और यही कहते रहे कि अगर ये सुझाव लोकतंत्र के हित में हैं तो इन्हें व्यावहारिक बनाने का रास्ता खोजने के लिए ही तो हमने चुनाव आयोग, न्यायपालिका, कानून और संविधान के पंडित, विधि मंत्रालय आदि-आदि बना रखे हैं।
इन सबको सिर जोड़ कर बैठना चाहिए और देश को बताना चाहिए कि यह व्यावहारिक कैसे बनेगा। उन्होंने चुनाव आयोग के साथ, सरकार के साथ कितनी बातें कीं, इस विषय पर अध्ययन-दल गठित किए, उनकी रिपोर्टें प्रकाशित कीं। 1974 के संपूर्ण क्रांति के अपने आंदोलन में उन्होंने इन दोनों मांगों को केंद्र में रखा था और इसे नई धार दी थी। 1977 में, जब कांग्रेस की हार हुई और आजादी के बाद पहली बार केंद्र में एक गैर-कांग्रेसी सरकार बनी तो उसके सामने भी यह मांग रखी गई। उन्होंने छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी नामक अपने युवा संगठन को इस मांग के समर्थन में राष्ट्रव्यापी हस्ताक्षर अभियान चलाने का निर्देश दिया और अभियान का पहला हस्ताक्षर खुद ही किया।
इन पंक्तियों के लेखक ने जब प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई से इस मांग के समर्थन में हस्ताक्षर करने को कहा तो वे तुनक कर बोले थे: अपने डेथ-वारंट पर मैं कैसे दस्तखत कर सकता हूं! उन्होंने दस्तखत नहीं किया।
लेकिन उसी दौर में किसी चुनाव-याचिका की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने जयप्रकाश की इस मांग का समर्थन किया और कहा कि दलों को कोई-न-कोई ऐसी प्रक्रिया खोजनी ही चाहिए जिससे उम्मीदवार का चयन करने में मतदाताओं की राय ली जा सके। अगर राजनीतिक दल ऐसा नहीं करेंगे तो मतदाता और उनके बीच ऐसी खाई पैदा होती जाएगी कि जिसे पाटना असंभव होगा। राजनीतिक दलों ने इसे गंभीरता से नहीं लिया और इससे बच निकलने की कोशिश करते-करते आज वे इस मुकाम पर पहुंचे हैं कि उन्हें थोड़े-बहुत वोट भले मिल जाएं, मतदाता का भरोसा तो कतई नहीं मिलता है। इसलिए चुनाव आज राजनीतिक नहीं, आपराधिक हथकंडों से जीती जाने वाली तिकड़म से अधिक कुछ नहीं रह गए हैं।
अण्णा हजारे ने अपने आंदोलन के क्रम में इस मांग को फिर से गति दी और इसके समर्थन में दवाब खड़ा किया। कल तक जो इस परिकल्पना का उपहास करते थे, आज इसे राजनीतिक जरूरत के रूप में स्वीकार करते हैं। सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्देश इसी बात की गवाही देता है। चुनाव आयोग के लिए यह स्वर्णिम अवसर है। राजनीतिक दलों के स्वार्थी गठबंधन इस फैसले को लागू होने से रोकने की कोशिश करें, इससे पहले वे अदालत के इस निर्देश को तुरंत अमल में लाए। यों नापसंदगी जाहिर करने का एक उपाय नियम 49-ओ के रूप में पहले से रहा है, पर इस नियम के तहत मतदाता को अपनी पहचान दर्ज करानी पड़ती थी, जिससे उस मत की गोपनीयता भंग होती थी। पर यह प्रक्रिया जटिल थी और लंबी भी। इसलिए अपवादस्वरूप ही इसका इस्तेमाल होता था।
पिछले हफ्ते दिए फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने नियम 49-ओ को रद््द करते हुए निर्वाचन आयोग को निर्देश दिया कि वह इवीएम यानीमतदान-मशीनमें एक ऐसा बटन भी शामिल करे, जिसे दबाने पर ‘उपर्युक्त में से कोई नहीं’ का मत दर्ज होता हो। हर बार आयोग को यह व्यवस्था तो करनी ही पड़ती है कि वह नए उम्मीदवारों के नाम मशीन में दर्ज करता है, उनकी घटती-बढ़ती संख्या के मुताबिक मशीन तैयार करता है और वह भी तब करता है जब नामांकन पूरा हो जाता है। मतलब यह कि मशीन में आज-के-आज ही आवश्यक व्यवस्था बनाना संभव है। चुनाव आयोग को मतदाताओं के हित में यह तत्परता दिखानी ही चाहिए और आज ही अदालत को यह बता देना चाहिए कि वह नवंबर में होने जा रहे विधानसभा चुनावों से ही ऐसा बटन जोड़ने में समर्थ है।
दूसरा बड़ा सवाल है कि खारिज करने के इस अधिकार का चुनाव पर असर क्या होगा? सारी शक्ति तो वहां छिपी है। अब ऐसे लोग भी मतदान केंद्र तक जाने की जहमत उठाएंगे, जो कोई भी प्रत्याशी पसंद न होने की सूरत में घर बैठे रहते थे। इसलिए मतदान का प्रतिशत कुछ बढ़ सकता है।
बहुमत ‘ना’ के खाने में हो तो यह मजाक ही हो जाएगा अगर निर्वाचन आयोग इसका हिसाब लगाने लगेगा कि अधिक मत किसे मिले! खारिज करने के अधिकार की आत्मा यह है कि मतदाताओं का बहुमत अगर कहीं सबको खारिज कर देता है तो वहां का चुनाव रद््द माना जाएगा और आयोग को नए चुनाव की व्यवस्था करनी होगी। राजनीतिक दलों को यह असंदिग्ध संदेश जाना ही चाहिए कि उम्मीदवार चुनने का उनका अधिकार अमर्यादित नहीं है। वे आज तक जिन आधारों पर उम्मीदवारों का चयन करते आए हैं, उसमें उन्होंने मतदाता की कोई भूमिका बनने ही नहीं दी है। पार्टियों ने दो-चार-दस अयोग्य, अमान्य, अस्वीकृत लोगों को टिकट दे दिया क्योंकि वे अपने बाहुबल से, धनबल से, जातिबल से, फर्जीवाड़े से, जाति-धर्म का उन्माद जगाने से चुनाव जीत सकते हैं। बस, अब मतदाता की लाचारी है वह इन्हीं बोगस लोगों में से किसी के नाम का बटन दबाए।
खारिज करने का अधिकार उन्हें पहली बार यह शक्ति देता है कि वे पार्टियों को उनकी औकात बता सकते हैं और सीधे ही कह सकें कि हमें आपके इन जोकरों में से कोई कबूल नहीं है। आप इनसे बेहतर लोगों को ला सकते हो तो लाओ वरना चुनाव से किनारे हटो! पार्टियों के हाथ में बंधक लोकतंत्र को मुक्ति मिल जाएगी। फिर पार्टियों को पता चलेगा कि येन-केन-प्रकारेण उम्मीदवार खड़ा कर देना अंतिम हथियार नहीं है, अंतिम हथियार तो मतदाता के हाथ में है कि वह समर्थन देने से पहले ही हमें खारिज न कर दे! इसलिए उम्मीदवार चुनने के स्तर पर ही पार्टियों को सावधानी बरतनी होगी।
एक स्वस्थ लोकतंत्र का त्रिभुज मतदाता की निम्न चार शक्तियों के मेल से बनता है- (एक) अठारह साल की उम्र होते ही बगैर किसी भेदभाव के मतदाता बनने का अधिकार, (दो) अपना उम्मीदवार खुद चुनने का अधिकार (लोक-उम्मीदवार) या पार्टियों द्वारा चुने गए उम्मीदवारों में से किसी को समर्थन देने का अधिकार, (3)उम्मीदवारों को खारिज करने का अधिकार, और (4) प्रतिनिधि वापसी का अधिकार। पैंसठ सालों से कछुए की चाल को मात करने वालीदौड़ लगा कर हमारा लोकतंत्र जहां पहुंचा है, वहां से आगे या तो बिखराव है या फिर पुनर्सृजन! क्या होगा आगे यह इस पर निर्भर है कि हमारा मतदाता अपनी भूमिका को कितनी गहराई से समझता है। अगर न्यायपालिका ने अपनी कमर सीधी रखी तो लोकतंत्र करवट बदल कर रहेगा।