बिहार की राजधानी पटना में कुछ युवा चुपचाप दूसरों के जीवन में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं. निराला की रिपोर्ट.
अगर आप पटना के किसी शख्स से वहां के युवाओं के बारे में जानना चाहेंगे तो उसके मन में इन युवाओं की कई स्मृतियां मिलेंगी. मसलन सड़कछाप युवकों की टोलियां जो लहरिया कट (बाइक को इधर-उधर नचाकर चलाना) में हुड़दंग मचाते हुए राह चलते लोगों को तंग करते, महिलाओं पर फब्तियां कसते और उन्हें छेड़ते हुए सर्र से निकल जाया करती हैं. इसी पटना में कुछ अन्य युवा शाम होते ही गंगा पार बने रेत के टीलों पर गोवा के समुद्र तटों का अहसास लेते नजर आते हैं. कुछ ऐसे युवा भी हैं जो अपनी राजनीतिक पहुंच और रसूख की बदौलत किसी की भी ऐसी-तैसी करने में न तो ज्यादा वक्त लेते हैं और न ही संकोच करते हैं.
लेकिन इस रंग-बिरंगे शहर में कुछ युवा ऐसे भी हैं जिनकी दिनचर्या, शगल और जुनून इन पहले वाले युवाओं के मिजाज से बिल्कुल भी मेल नहीं खाते. ये युवा खुद संघर्षरत रहते हुए भी दूसरे संघर्षशील समुदायों के बीच सृजन का बीज बोने में अपनी तमाम ऊर्जा लगा रहे हैं. दर्जन भर की संख्या में ये युवा अपने आस-पास के मोहल्ले की गली में बने चबूतरे, किसी स्लम में और रेलवे प्लेटफार्म के एक कोने में जाकर ऐसे बच्चों को पढ़ाते हैं जिनके अभिभावक गरीबी के चलते उन्हें अलग से ट्यूशन-कोचिंग नहीं करवा सकते.
पिछले पांच साल से रविवार को छोड़ कर सप्ताह के बाकी सभी दिन ये कक्षाएं नियमित तौर पर लगती हैं. दो घंटे की इस पाठशाला में कोर्स की पढ़ाई के साथ-साथ व्यक्तित्व विकास की तालीम भी बच्चों को दी जाती है. इन बच्चों को पढ़ाने वाले गुरुओं की टोली में अधिकांश युवा ऐसे हैं जो खुद इंजीनियरिंग, मेडिकल से लेकर एसएससी, बैंक और एयरफोर्स समेत दुसरेे कई क्षेत्रों में करियर गढ़ने के लिए मेहनत कर रहे हैं. अलग-अलग जगहों पर चलाए जा रहे ये स्ट्रीट स्कूल यूं तो गायत्री परिवार के प्रज्ञा युवा प्रकोष्ठ के बैनर तले संचालित हो रहे हैं, लेकिन खास बात यह है कि पढ़ाने वाले युवाओं में अधिकांश ऐसे हैं जो गायत्री परिवार से जुड़ने की वजह से बच्चों को नहीं पढ़ा रहे, बल्कि इस काम को करने के लिए ही वे गायत्री परिवार से जुड़ गए हैं. गायत्री परिवार ने इस स्ट्रीट स्कूल अभियान को ‘संस्कारशाला’ का नाम दिया है.
संस्कारशाला के बारे में इसके संयोजक निशांत बताते हैं कि पांच साल पहले कुछ युवाओं ने पटना गायत्री मंदिर के पास ही स्लम में रहने वाले बच्चों को पढ़ाना शुरू किया था. उनकी मेहनत के परिणामस्वरूप राजधानी पटना में इस समय 17 जगहों पर ये संस्कारशालाएं चल रही है. वे कहते हैं, ‘शुरुआत में बड़ी कठिनाई भी हुई. जब हम बच्चों को पढ़ने के लिए बुलाते तो उनके अभिभावकों को लगता कि यह कोई सरकारी मदद से चलने वाले एनजीओ का अभियान है, जिसमें पैसे का खेल है. काफी समझाने के बाद धीरे-धीरे लोगों की समझ में आने लगा तो फिर बच्चे बढ़ते गए. बाद में दूसरे इलाके में रहने वालेयुवाओं को भी इस प्रयोग की जानकारी मिली और उन्होंने भी अपने-अपने इलाकों में यह मुहिम शुरू कर दी.’ वे आगे बताते हैं कि स्ट्रीट स्कूल के खाते में एक बहुत बड़ी उपलब्धि तब जुड़ी जब यहां पढ़ने वाले एक छात्र शशांक का चयन पटना मेडिकल कॉलेज में हुआ. आज होनहार शशांक पहले वर्ष का छात्र बन चुका है.
कमजोर आर्थिक स्थिति वाले बच्चों और उनके अभिभावकों के लिए पटना के अलग-अलग इलाकों में चल रहे ये स्कूल वाकई बेहद मददगार साबित हो रहे हैं. बच्चों को पढ़ाने के काम में लगे युवाओं के बारे में निशांत बताते हैं कि वे सभी स्वेच्छा से अपना योगदान दे रहे हैं और नौकरी लग जाने के बाद भी समय-समय पर आर्थिक मदद के जरिए इस अभियान को बढ़ाने में सहायता करते हैं. वे आगे कहते हैं कि पिछले पांच साल में जितने भी बच्चे इन संस्कारशालाओं से संबद्ध रहे हैं उनकी आगे की मदद के लिए पटना के कई कोचिंग संस्थान सामने आ रहे हैं जिनमें दर्जन भर से अधिक बच्चे इंजीनियरिंग-मेडिकल आदि की कोचिंग ले रहे हैं. आरके सुमन, बीके सिंह और नीरज कुमार जैसे पटना के प्रतिष्ठित कोचिंग संचालक इस तरह की मदद करने वालों में प्रमुख हैं.
स्ट्रीट स्कूल अभियान के तहत चल रही पाठशालाओं को देखने हम जितनी भी जगहों पर गए, हर जगह का नजारा देखते ही बनता था. जिस रोज हम कंकड़बाग गायत्री मंदिर के पास वाले स्कूल में पहुंचे, तेज बारिश के बावजूद वहां तकरीबन चार सौ से पांच सौ बच्चे मौजूद थे. इन बच्चों को पढ़ाने वाले युवाओं शिवशंकर, राहुल, रविशंकर, मनीष आदि के वहां पहुंचते ही बड़े से सभागार में सभी जमा हो गए और अलग-अलग समूहों में कक्षाएं शुरू हो गईं. अगले दिन जब हम पटना जंक्शन के प्लेटफार्म नंबर एक पर पहुंचते हैं, तब भी तेज बारिश हो रही होती है लेकिन बारिश में ही प्लेटफार्म की शेड के नीचे रेल पुलिस थाने के दरवाजे पर स्कूल लगा होता है. आस-पास के लोगों ने बताया कि रेलवे पुलिसकर्मी भी दिल खोलकर इस अभियान में मदद करते हैं.
कमजोर आर्थिक स्थिति वाले बच्चों और उनके अभिभावकों के लिए पटना के अलग-अलग इलाकों में चल रहे ये स्कूल वाकई मददगार साबित हो रहे हैं
इन स्कूलों का जायजा लेने के बाद उन उत्साही युवा गुरुओं से बात करने की बारी थी जिनकी बदौलत ये सब पिछले पांच साल से सफलतापूर्वक चल रहा है. एसएससी कंप्लीट कर चुके रविशंकर से बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ तो संघर्ष के दौर में कुछ अलग करने की प्रेरणादायी कहानी के साथ-साथ वे पढ़ाई के तौर-तरीके पर भी विस्तार से बताने लगे. वे कहते हैं, ‘सभी बच्चे अलग-अलग क्लास के होते हैं और सबकी जानकारी का स्तर भी अलग-अलग होता है. ऐसे में सबको एक ही तरीके से पढ़ाना किसी भी तरह से लाभदायक नहीं हो सकता है, इसलिए हम लोग अलग-अलग ग्रुप बनाकर बच्चों के साथ बैठते हैं और फिर उन्हें अच्छे से समझाते हैं.’ उनके सहयोगियों में शामिल पुनीत, बालमुकुंद, अजीत मिश्रा और कुंदन कुमार समेत अन्य सभी युवाओं का भी ऐसा ही मानना है.
बेहतर बदलाव की उम्मीद लिए येयुवापिछले पांच साल से जिन बच्चों को पढ़ा रहे हैं उन्हीं बच्चों से बात करने पर बदलाव की आहट साफ महसूस की जा सकती है. कंकड़बाग इलाके की संस्कारशाला में पिछले दो साल से पढ़ने वाली रीता बताती है कि संस्कारशाला में आने का फायदा यह हुआ है कि अब वह किसी ट्यूशन जाने वाले बच्चे से न तो किसी भी तरह कमतर है और न ही उसमें आत्मविश्वास की कोई कमी है. रीता बड़े उत्साह से कहती है, ‘देखिएगा, मैं आईएएस बनकर दिखाऊंगी. मेरे दो बड़े भाई तो गरीबी की वजह से नहीं पढ़ सके लेकिन सबकी कसर मैं पूरी करूंगी.’
रीता के पिता दिहाड़ी मजहूर हैं और वह सरकारी स्कूल में दसवीं की छात्रा है. रीता के अलावा मजदूरी करने वाले शिवकुमार के बेटे विवेक, दूध बेचने वाले मनोज की बेटी दीपा और कुंजना समेत कई और बच्चों से बात करने पर सभी भविष्य को लेकर काफी उत्साहित नजर आते हैं. नौवीं कक्षा की छात्रा कुंजना कहती है, ‘हम यहां सिर्फ पढ़ते ही नहीं हैं बल्कि जीने का सलीका भी सीख रहे हैं. हम रोज सुबह उठकर अपने मां-पिता को प्रणाम करते हैं. कभी गुस्से में बात नहीं करते. पहले यह घरवालों को अटपटा लगता था, लेकिन अब तो पूरा घर ही विनम्र हो गया है.’
कुंजना की बातों की सच्चाई पटना स्थित नाला रोड के पास मुसहरी इलाके के घरों में जाकर पता चलती है जहां अभिभावक अपने बच्चों में आए इस बदलाव को लेकर बेहद खुश नजर आते हैं. यहां अपने दो बच्चों के साथ रहने वाली उषा कहती हैं, ‘सबके बच्चों की तरह मेरा बच्चा भी ट्यूशन की तरह शाम को पढ़ने जाता है और घर आकर अच्छे से बात करता है. उम्र में छोटा है लेकिन हम लोगों को बड़ी-बड़ी बातें समझाता है.’ उषा आगे कहती हैं, ‘गरीबी और जागरूकता नहीं होने के चलते मैं खुद तो पढ़ नहीं सकी लेकिन जब हमारे बच्चे हमें पढ़ाई का महत्व समझाते हैं तो बहुत अच्छा लगता है.’
इन लोगों से बात करने के बाद वापसी में हमारा ध्यान एक बार को पटना की सड़कों पर लहरिया कट स्टाइल मारने वाले उन युवाओं की तरफ भी गया लेकिन ठीक उसी वक्त दिलोदिमाग में इन जुझारू युवाओं द्वारा मुलाकात के दौरान हमसे कहे वे शब्द भी साथ-साथ गूंज रहे थे कि, ‘शाम को इधर-उधर समय गंवाने से बेहतर है कि कुछ किया जाए. आज नहीं तो कल, कुछ न कुछ बदलाव तो होगा ही.’