गरीबी के बारे में योजना आयोग के नवीनतम आकलन पर बड़ी चीख-पुकार मची। यह हाय-तौबा जितनी तेज थी, समझ और विवेक उसी अनुपात में कम। सबसे निंदनीय थे वे राजनेता, जिन्होंने आम आदमी को चोट पहुंचाने वाली बातें कहीं। जरूरी यह है कि हम ये समझने का प्रयास करें कि सुरेश तेंदुलकर की गरीबी रेखा वास्तव में क्या बताती है?
सुरेश तेंदुलकर देश के बेहतरीन अर्थशास्त्रियों में से एक थे। उन्हीं की अगुवाई में बनी समिति ने 2004-05 के लिए गरीबी रेखा का नया पैमाना बनाया। यह पैमाना क्रयशक्ति की समतुल्यता या ‘परचेजिंग पॉवर पैरिटी’ की पद्धति पर आधारित था। इस पद्धति के सहारे हमें यह पता लगता है कि किन्हीं दो जगहों पर बराबर मात्र में कोई वस्तु या सेवा खरीदनी हो, तो कितनी रकम जरूरी होगी। 2004-05 के लिए तेंदुलकर समिति ने भारत की गरीबी रेखा 16 रुपये प्रति व्यक्ति प्रतिदिन तय की थी, जो परचेजिंग पॉवर पैरिटी के पैमाने पर एक अमेरिकी डॉलर की क्रय क्षमता जितनी थी। योजना आयोग ने हाल के आकलन में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 29 रुपये की जो सीमा बताई है, वह इसी पैमाने पर 1.25 अमेरिकी डॉलर के बराबर है, जो फिलहाल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्य गरीबी रेखा है। बस इतनी-सी रकम से किसी भी स्थिति में लोग जी लेंगे, इस सुझाव से ठीक ही जनता में रोष भड़का। पर किसी ने यह जानने की जरूरत नहीं समङी कि आखिर योजना आयोग के अनुमान का मतलब क्या है? आम आदमी के मन में यह भय बैठ गया है कि अगर हम इस रेखा को भूल से भी लांघ गए, तो हमें विभिन्न अधिकारों व सरकारी कार्यक्रमों से बेदखल कर दिया जाएगा। इस डर को समझा जा सकता है, पर आज की तारीख में यह निराधार है।
यह रकम जीवन यापन के लिहाज से पर्याप्त है या नहीं, इस बारे में योजना आयोग ने कोई फैसला नहीं सुनाया। प्रयास केवल यह तुलना करने का है कि समान रेखा के आधार पर साल 1992-93, 2004-05 और 2011-12 में कितने लोग उपभोग के एक तय स्तर (गरीबी रेखा) से नीचे थे। कोशिश इतनी ही है, न इससे ज्यादा, न कम। आंकड़े बताते हैं कि बीते दशक में भारत के लोगों के उपभोग का स्तर तेजी से बढ़ा है। समान गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की संख्या 1993-94 और 2004-05 के बीच तो बढ़ी थी, लेकिन 2004-05 और 2011-12 के बीच इसमें भारी कमी आई है। साल 2004-05 में गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की संख्या 41 करोड़ थी, जो साल 2011-12 में घटकर 27 करोड़ हो गई। इस उपलब्धि में केंद्र सरकार का योगदान कितना रहा, इसे सीधे-सीधे बता पाना कठिन है, क्योंकि अर्थव्यवस्था की दशा तय करने में सिर्फ सरकार के कदमों का ही हाथ नहीं होता। प्रदेश सरकारों ने भी अहम भूमिका निभाई है।
इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि ग्रामीण भारत के सर्वाधिक निर्धन लोगों की मजदूरी में बढ़ोतरी हुई है। अब इसमें मनरेगा जैसी योजना का योगदान कितना है, यह विद्वानों के बीच जिज्ञासा का विषय है। लेकिन कोई भी इस बात से इनकार नहींकरता कि मनरेगा ने ग्रामीण भारत के सबसे गरीब तबके की आमदनी को बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि इस अवधि में भारत विश्व की सर्वाधिक तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में शुमार हुआ है।
बहरहाल, इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण है यह स्पष्ट करना कि गरीबी रेखा से कौन से अर्थ नहीं निकाले जाने चाहिए। आम मान्यता है कि सरकारी कार्यक्रमों के लाभ के दायरे में मात्र उन्हीं लोगों को रखा जाएगा, जो गरीबी रेखा के नीचे हैं। यह एक भ्रांतिपूर्ण मान्यता है। कहा जा रहा है कि राजनीतिक कारणों से या गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों के मद में होने वाले आवंटन को घटाने के लिए गरीबों की संख्या को झूठे या बनावटी तरीके से घटाकर पेश किया गया, जबकि उद्देश्य ऐसा है ही नहीं। इसके उलट यूपीए-2 की सरकार का ऐतिहासिक योगदान यह है कि उसने गरीबी रेखा और सरकारी कार्यक्रमों से मिलने वाले लाभ के बीच का रिश्ता खत्म कर दिया है। बीते 20 साल में ऐसा पहली बार हुआ है। सच्चाई तो यह है कि 12वीं पंचवर्षीय में इस मान्यता की तरफ पहला कदम बढ़ा है कि गरीबी एक बहुआयामी अवधारणा है और इसे महज उपभोग व खर्च तक सीमित करके नहीं देखा जा सकता। मिसाल के लिए, अभी तक इंदिरा आवास योजना या संपूर्ण स्वच्छता अभियान का लाभार्थी होने के लिए किसी व्यक्ति का बीपीएल कार्डधारी होना जरूरी था। बीपीएल कार्ड के वितरण में भारी गलतियां जगजाहिर हैं। अक्सर असली गरीब यह कार्ड पाने से वंचित रह जाते हैं, जबकि बाहुबल के धनी गरीब न होने के बावजूद बीपीएल कार्ड का जुगाड़ कर लेते हैं। 12वीं पंचवर्षीय योजना में ये सारी बातें बदलने वाली हैं, क्योंकि अब केवल दो किस्म के कार्यक्रम होंगे या तो सभी के लिए जैसे कि मनरेगा, मिड-डे मील, प्राथमिक शिक्षा, स्वच्छता और स्वास्थ्य आदि या फिर उनके लिए, जो उस कार्यक्रम द्वारा प्रदान सुविधा से वास्तव में वंचित हैं।
उपभोग-आधारित गरीबी रेखा तय करने के लिए क्या 1.25 डॉलर जितनी रकम पर्याप्त है? गरीबी की सामान्य स्थिति को सूचित करने वाली एक धारणा प्रति व्यक्ति प्रतिदिन दो अमेरिकी डॉलर की भी है। कुछ अर्थशास्त्री कहते हैं कि भारत को यही गरीबी रेखा अपनानी चाहिए। पर मेरा मानना है कि सरकार का यह निर्णय ज्यादा अच्छा है कि गरीबी रेखा का पूरा चक्कर अधिकारों व सरकारी कार्यक्रमों के लाभ से अलग कर दिया जाए, ताकि कोई भी व्यक्ति सरकारी सुविधाओं से केवल इसलिए न वंचित रह जाए, कि उसके पास बीपीएल कार्ड नहीं है। अगर दो डॉलर को मान्य गरीबी रेखा स्वीकार कर लें, तो क्या ऐसी स्थिति में लोगों को इस रेखा के आधार पर पीडीएस सरीखी सरकारी योजनाओं के लाभ से वंचित करना ठीक कहलाएगा? और गरीबी रेखा चाहे कितनी भी ऊंची क्यों न हो, क्या उसे समान रूप से सभी योजनाओं के लाभार्थियों की पहचान के लिए उपयोग में लाना ठीक है, जैसा कि दशकों से किया जाता रहा है?
सरकार के तकरीबन सारे कार्यक्रम या तो सबके लिए हैं या फिर अभाव-विशेष के आंकड़ों को आधार मानकर उनमें लाभार्थियों की पहचान की जाती है।इनकार्यक्रमों में गरीबी रेखा को अनिवार्य संदर्भ बिंदु के रूप में नहीं रखा गया है। उपभोग आधारित गरीबी रेखा के आंकड़ों का इस्तेमाल केवल खास समयावधि के भीतर देश में गरीबों की संख्या में हुई घट-बढ़ या फिर विभिन्न राज्यों की तुलनात्मक स्थिति को जानने के लिए किया जाता है। इस बात को स्वीकार किया गया है कि गरीबी बहुआयामी होती है और गरीबी के विविध रूपों से निपटने के लिए बने कार्यक्रमों में गरीबी के रूप विशेष से संबंधित आंकड़ों का इस्तेमाल किया जाता है। मसलन, अगर कुपोषण को दूर करने का कोई कार्यक्रम है, तो उसके लिए आंकड़े राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण से लिए जाते हैं।
दरअसल, 12वीं पंचवर्षीय योजना में साफ-साफ माना गया है कि उपभोग आधारित गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की संख्या यदि शून्य पर भी पहुंच जाए, तो भी जब तक हर भारतीय को स्वच्छ पानी, साफ-सफाई, घर, पोषण, स्वास्थ्य और शिक्षा की सुविधा हासिल नहीं हो जाती, तब तक गरीबी करने की चुनौती बनी रहेगी। जरूरत इस चुनौती पर अपना ध्यान केंद्रित करने की है़, न कि किसी एक आंकड़े पर बाल की खाल निकालने की।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)