मैं महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में कृषि कार्य करता हूं. वहां 1975 से
आज तक मैं खेती कर रहा हूं. 1960 के बाद जो खेती में व्यवस्थाएं प्रारंभ
हुईं, वहीं से मैंने शुरु आत की थी. अब तक मुझे कृषि विज्ञान दो स्वरूपों
में दिखा है. जब मैंने खेती प्रारंभ की तो उस समय परावलंबन का विज्ञान था.
उस वक्त मैंने रासायनिक खाद, जहरीली दवाईयां और बाहर से बीज लाकर खेती
प्रारंभ की थी. परिश्रम करने की मन में अत्यंत इच्छा थी. परिश्रम के बल पर
मैंने खेती से बहुत उत्पाद निकाले. 1983 में मुझे कई अवार्ड मिले. मुझे ऐसा
लगा कि मैंने दुनिया का एक बहुत बड़ा साइंस अच्छी तरह समझ लिया है और अब
मैं इससे बहुत तेजी से प्रगति करूंगा. 1983 में अवार्ड मिलने के बाद 1986
तक यह स्थिति कायम रही. लेकिन इसके बाद मेरे खेतों में जो उत्पादन होता था,
उसमें गिरावट होने लगी. कपास उत्पादन जो 12 क्विंटल था, 1993 आते-आते वह
तीन क्विंटल पर आ गया. जो ज्वार 20 क्विंटल उपजता था वह पांच क्विंटल पर आ
गया. सब्जियां 300 क्विंटल उपजती थीं, वह घटकर 50 क्विंटल रह गयीं. जब
उत्पाद इतने नीचे आ गये तो मेरा परिश्रम व्यर्थ जाने लगा. मैंने सुना था कि
परिश्रम का फल हमेशा मीठा होता है, लेकिन यहां तो परिश्रम के बावजूद मेरे
ऊपर कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा था. मुझे लगने लगा कि कहीं न कहीं मेरे तरीके
में खोट है. इसके बाद मैंने नए तरह के विज्ञान के तहत नैसर्गिक खेती की.
तब मेरी समझ में आया कि मेरे खेतों में उत्पादन क्यों घट रहा था. असल में
रासायनिक खाद इस्तेमाल करने की वजह से मेरे खेत के जीवाणुओं का विनाश हो
रहा था.
खेतों में रहने वाले जीव मेरे लिए क्या-क्या करते हैं, इसका मुझे पता ही
नहीं था. मैंनें खेतों मे लगे पेड़ों को काट दिया था क्योंकि मुझे लगता था
कि उनके नीचे फसल ठीक नहीं होती. लेकिन अब मेरी समझ में आ रहा है कि पेड़
से जो फल मिलता था उससे कीट नियंत्रित होते थे. पेड़ का फल खाने आने वाले
पक्षी यह काम करते थे. जब पेड़ नष्ट हो गए तो ये पक्षी खेतों का अनाज खाने
लगे. मैंने फसल पर इतना जहर मारा था कि वो पक्षी मेरे खेतों का अनाज खाकर
मेरे सामने मरने लगे. मेरी संवेदनाएं लुप्त हो चुकी थीं. क्योंकि आमदनी
बढ़ाने के लिए मुझे उत्पाद बढ़ाना था. इसके लिए मैंने भूजल का भी जमकर दोहन
किया. आज हालत यह है कि पानी का स्तर खतरे के निशान तक पहुंच चुका है.
पानी जहरीला हो गया है. अब हमारे सामने समस्याएं पैदा हो रही हैं. जमीन का
अंदरूनी तापमान बढ़ने लगा है. इसकी वजह से वनस्पतियों का नाश हो रहा है.
जमीन के अंदर और जमीन के ऊपर के बढ़ते तापमान का असर हमारी खेती पर भी पड़
रहा है.
रासायनिक खेती करके मैंने समाज में जहर का अनाज फैलाया और जहर की
सब्जियां फैलायी. इसके परिणामस्वरूप समाज के हर व्यक्ति के स्वास्थ्य के
उपर नकारात्मक असर हुआ. यानि श्रम शक्ति का ह्रास हुआ. ऐसे में हमकैसे
विकास की ओर जाएंगे. श्रम शक्ति को ह्रास से बचाने के लिए अच्छा अनाज
चाहिए. ऐसा अनाज जो हमारे स्वास्थ्य को मजबूत करे. आज किसान और किसानी
दोनों बहुत तकलीफ में है, क्योंकि सरकारी नीतियां उसके अनुकूल नहीं हैं. आज
के माहौल में सरकारी नीतियों को समझना भी किसानों के लिए अनिवार्य हो गया
है. इन नीतियों की वजह से देश की श्रमशक्ति पर काफी नकारात्मक असर पड़ रहा
है. ऐसे में भला हमारी कृषि कैसे विकास की ओर जायेगी. देश की खेती को
बर्बाद करने मे शराब ने भी अहम भूमिका निभाई है. इसके खिलाफ आवाज बुलंद
करने की भी आवश्यकता है. अनाज की वितरण व्यवस्था ने भी देश की श्रमशक्ति का
नाश किया है. यह व्यवस्था प्रलोभन और खानापूर्ति की बजाए श्रम पर आधारित
होनी चाहिए. श्रम आधारित वितरण व्यवस्था जब तब समाज में सरकार निर्माण नहीं
करेगी तब तक समाज को इनसे नुकसान ही होगा. लाभ पाने का हक श्रम करने वाले
को ही मिलना चाहिए. आज स्थिति यह है कि नाले पर बैठकर शराब निकालने वाले और
निठल्ले को दो रुपये
किलो अनाज मिलता है और हर रोज परिश्रम करने वाले को भी दो रुपये किलो
अनाज मिलता है. यह कैसी वितरण व्यवस्था है. यह तो हमारी श्रमशक्ति को
समाप्त कर रही है.
बढ़ता हुआ तापमान हमारे देश की उत्पादकता को प्रभावित कर रहा है. लाखों
प्रकार की प्रजातियां और वनस्पतियां इस बढ़ते हुए तापमान की वजह से नष्ट हो
रही हैं. इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए 1990 से ही मैंने पेड़ को
बच्चे जैसा पालना शुरू किया. 1994 में मैंने शपथ ली कि अब मैं अपनी खेती
में जहर विज्ञान का प्रयोग नहीं करूंगा और फिर मैंने प्रगति के विज्ञान की
ओर पदार्पण किया. जब से मैंने नैसर्गिक खेती आरंभ की है तब से मेरी मिट्टी
और पानी की हालत सुधरने लगी है. 1994 के बाद की खेती से मुझे तीन प्रकार का
स्वावलंबन प्राप्त हुआ.
पहला जमीन का स्वावलंबन. इस स्वावलंबन के कारण मुझे किसी भी प्रकार का
कोई कीट नियंत्रण नहीं करना पड़ता. कोई भी खाद खेती में बाहर से लाकर नहीं
डालनी पड़ती. ये सारा सिस्टम प्रकृति की मदद से मैंने खड़ा किया. 1994 से
मैंने गाय के महत्व को जान लिया और एक वैज्ञानिक के नाते मैंने गाय को
गोमाता कहना शुरू कर दिया. मैंने पाया कि गाय का गोबर सर्वोत्तम खाद है. जब
मैंने कृषि में वृक्षों का नियोजन किया तो मेरे खेत का तापमान नियंत्रण
में आने लगा और कई प्रकार के जीव-जीवाणुओं ने उत्पादकता बढ़ाने का काम
किया. जब पेड़ बढ़े तो मेरे खेत में पक्षियों का आगमन बढ़ा. उन्हें देखकर
मुझे आनंद की अनुभूति होती है. उन पक्षियों ने खेतों में कीट नियंत्रण का
काम किया तो उनके प्रति मेरा प्रेम और बढ़ गया. फिर तो मैंने पक्षियों के
लिए आम, जामुन और गूलर के पेड़ लगाए.
मेरा मानना है कि जो पेड़ मेरे पक्षियों को पसंद हैं उन पेड़ों की
संख्या मेरे खेत में ज्यादा होनी चाहिए. वे पेड़ ग्रीष्म में भी पूरे
हरे-भरे रहते हैं. हरे हैं तो मेरे यहां के तापमान को वे झेल रहेहैं.वे
कार्बन डाइआक्साइड खींच रहे हैं. वृक्षों के कारण कीट-नियंत्रण तो हुआ ही,
साथ ही उन पर बैठने वाले पक्षियों के मल से खेतों की उत्पादकता भी बढ़ी.
नैसर्गिक खेती करते हुए मुझे एक बात और समझ में आई कि हमें खेती से निकलने
वाले सभी अवशेषों को व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए. इस सोच के साथ मैंने
फसलों से निकलने वाली घास के पुन: उपयोग का तरीका प्रारंभ किया. इसके जरिए
खेतों को बायोमास मिलने लगा. जिसकी वजह से खेती को काफी फायदा पहुंचा. मेरा
मानना है कि ये प्रयोग देश के अन्य हिस्सों के किसानों को भी अपने-अपने
यहां करना चाहिए ताकि खेती को एक नया आयाम मिल सके.
खेती की पूंजी पर अत्यधिक निर्भरता को कम किया जाए. कृषि के तंत्र ज्ञान
को समझ लेना बहुत जरूरी है. हमें यह जानना होगा कि इसमें कैसे खाद पैदा की
जा सकती है? कैसे इसमें कीट-नियंत्रण का काम प्रभावी रूप से होता है? मेरे
खेतों में जब बायोमास बढ़ा, तापमान नियंत्रित हुआ तो फिर धीमे-धीमे केंचुए
पैदा होने लगे. इनसे खेती को बड़ा लाभ हुआ. कहना न होगा कि केंचुए भी भारत
के विकास के लिए काम कर रहे हैं. इसलिए हर जीव की रक्षा होनी जरूरी है.
क्योंकि हमारे भारत के विकास में इनका अमूल्य योगदान है. एक स्क्वायर फीट
में यदि छ: केंचुए हैं तो इसका मतलब हुआ एक एकड़ मे ढाई लाख केंचुए. एक
केंचुआ कम से कम अपने जीवन चक्र में 10 से 40 छिद्र करता है. जाहिर है
इससे खेतों को भरपूर पानी मिलना शुरू हुआ. पानी जब गया तो आक्सीजन भी गया
और जमीन के अन्दर के जीवों की सजीव व्यवस्था कायम हुई. केंचुए की वजह से
चींटियों का आना शुरू हुआ. फिर दीमक हुए और कई अन्य प्रकार के जीवों का
विस्तार हुआ. इस तरह नैसिर्गक खेती के कारण मेरी जमीन फिर से सजीव हो गई.
आज हम मृत जमीन में खेती कर रहे हैं. जिस जमीन में जीव नहीं हैं वह जमीन
मृत है. वह मृत जमीन आपका पेट नहीं भर सकती. आपको वो बरबाद ही करेगी. तो इस
जमीन को सजीव करने के लिए हमें प्रकृति से मदद लेनी होगी.
पानी के स्वावलंबन के तहत खेत में गिरने वाले पानी को रोकने की
प्रक्रिया का निर्माण मैंने किया. फसलों की बुआई जीरो लेवल पर करने की
प्रणाली विकसित की. बहुत ज्यादा बारिश होने पर यह पानी बह जाता था. इस
अतिरिक्त पानी को रोकने की दिशा में भी मैंने काम किया. एक हेक्टेयर के
पीछे बीस फुट लम्बा, 10 फुट चौड़ा और 10 फुट गहरे गड्ढे का निर्माण किया
गया. उस गड्ढे में अतिरिक्त पानी रु कने लगा. इससे भूमि को सिंचाई की जरूरत
कम हुई. कुल मिलाकर कहें तो नैसर्गिक खेती ने मुझे कर्ज में डूबने से बचा
लिया. अगर देश के किसान अपना भला चाहते हैं तो उन्हें रासायनिक खेती छोड़
अपनी पारंपरिक नैसर्गिक खेती की ओर लौटना होगा.
(हिंदी इंडियावाटरपोर्टल से साभार)