गंडामन त्रासदी की कड़ियां- अपूर्वानंद

जनसत्ता 25 जुलाई, 2013: मीना कुमारी पर भारतीय दंड संहिता की धारा 302 और 120 के तहत मामला दर्ज किया गया है। यानी उन पर छपरा के गंडामन गांव के नवसृजित प्राथमिक विद्यालय में पढ़ने वाले तेईस बच्चों की, जो स्कूल का मध्याह्न भोजन खाने के बाद मारे गए, इरादतन हत्या और उनकी हत्या के लिए आपराधिक षड्यंत्र का आरोप है। वे अभी फरार हैं। आज या कल गिरफ्तार कर ही ली जाएंगी। उन पर मुकदमा चलने और साक्ष्यों के स्थापित होने के पहले ही बिहार के मुख्यमंत्री ने अपने दल के कार्यकर्ताओं के समक्ष शिक्षामंत्री के षड्यंत्र के सिद्धांत को दुहराया है।
शिक्षामंत्री ने दो दिन पहले यह भी कहा है कि बिहार के सत्तर हजार स्कूलों में दिए जा रहे भोजन की गुणवत्ता की गारंटी देना असंभव है। उन्होंने यह भी कहा कि कब कौन घुस कर खाने में जहर मिला दे, कैसे जाना जा सकता है! इस अक्षम्य वक्तव्य से उन्होंने पूरे राज्य में स्कूलों में दिए जा रहे मध्याह्न भोजन को लेकर अभिभावकों में संदेह और भय पैदा कर दिया है। इस बयान के बाद भी उन्हें अपने पद पर बने रहने का अधिकार कैसे है, समझना मुश्किल है।
मीना कुमारी को फांसी देने के पहले कुछ तथ्य जान लें, जिनसे शायद गंडामन के बच्चों की मौत की परिस्थितियों को हम बेहतर समझ सकेंगे। पहले कुछ स्थानीय तथ्य। मारे गए तेईस बच्चे नव-सृजित प्राथमिक विद्यालय के छात्र थे, जो हाल ही में गांव में पहले से स्थित मिडिल स्कूल को तोड़ कर बनाया गया था। इसमें गड््ढों वाले फर्श का एक कमरा भर है। यहां न खाना बनाने को अलग कमरा है, न भंडार। साफ पेयजल का इंतजाम नहीं है। बाहर के चापाकल से खारा पानी आता है।
अभियुक्त मीना कुमारी कोई प्रधानाध्यापिका नहीं थीं। वे मात्र इस विद्यालय की प्रभारी शिक्षिका थीं। उन्हें मिला कर यहां केवल दो शिक्षिकाएं थीं, जिनमें से एक दुर्घटना के समय छुट््टी पर थीं। इसका मतलब यह है कि मीना कुमारी को पहली से पांचवीं कक्षा तक के बच्चों को पढ़ाने, उनके मध्याह्न भोजन का इंतजाम करने से लेकर दूसरे प्रशासकीय काम अकेले ही करने थे।
मीना कुमारी नियोजित शिक्षिका हैं जिन्हें छह हजार तीन सौ रुपए का बंधा महीना मिलता है। हमारी जानकारी के मुताबिक वे प्रशिक्षित भी नहीं हैं।
विद्यालय की प्रबंधन समिति का अस्तित्व नहीं है जो शिक्षा अधिकार कानून के अनुसार अनिवार्य है।
अब तक शिक्षा विभाग के किसी अधिकारी या मध्याह्न भोजन की निगरानी करने वाले अधिकारी ने इस विद्यालय का निरीक्षण नहीं किया था।
भारत की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार इस गांव में अनुसूचित जाति के लोग कुल आबादी के सत्ताईस प्रतिशत हैं, जबकि यह आंकड़ा बिहार के लिए पंद्रह प्रतिशत है। गांव की अड़तीस प्रतिशत आबादी और सिर्फ उन्नीस स्त्रियां प्रतिशत साक्षर हैं। बिहार की अड़तालीस प्रतिशत आबादी खेती पर आधारित श्रमिकों की है और इस गांव की अट्ठावन प्रतिशत।
अब हम जरा व्यापक परिदृश्य को देखें। बिहार सरकार मध्याह्न भोजन के लिए केंद्र से मिली राशि में से पचास-साठ प्रतिशत ही खर्च कर पाती है। मध्याह्न भोजन केलिए दिए गए अनाज का मात्र तैंतालीस फीसद वह पिछले वित्तवर्ष में खर्च कर पाई है। पिछले वित्तवर्ष में खाना बनाने और भंडारण के लिए कमरा बनाने के लिए केंद्र से मिली रकम से तकरीबन पांच सौ करोड़ रुपए बिहार सरकार ने तब वापस किए जब ये मौतें हो रही थीं।
बिहार के अधिकतर नव-सृजित विद्यालयों में साफ पेयजल, शौचालय, खाना बनाने और भंडार का इंतजाम नहीं है। राज्य के अधिकतर प्राथमिक शिक्षक अप्रशिक्षित या अर्ध-प्रशिक्षित हैं। इनकी तनख्वाह दयनीय है और उनकी सेवा भी नियमित नहीं है।
सरकार ने शिक्षा अधिकार संबंधी कानून के मुताबिक अनिवार्य विद्यालय प्रबंधन समितियों का गठन नहीं होने दिया है। नियमानुसार पिछले विधानसभा चुनाव से पहले ही उनके लिए चुनाव हो जाने थे, जिन्हें सरकार ने होने नहीं दिया।
अब कुछ अतिरिक्त तथ्य। जनता दल (एकी) और भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने कोई डेढ़ लाख पैरा-शिक्षकों (शिक्षा मित्र)की नियुक्ति सत्ता संभालते ही बिना किसी नियमित प्रक्रिया के की थी। उस समय उनकी योग्यता देखना जरूरी नहीं समझा गया था। इस सरकार के पहले राष्ट्रीय जनता दल की सरकार ने एक लाख पैरा-शिक्षकों की नियुक्ति की थी। इस सरकार ने उन्हें भी नियोजित कर लिया लेकिन उन्हें नियमित शिक्षक के दर्जे से काफी नीचे रखा।
इन शिक्षकों की बहाली पंचायतों ने की थी और इसमें किसी नियमित चयन-प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया था। इनमें से अधिकतर अप्रशिक्षित और अपेक्षित योग्यता से विहीन हैं। विद्यालयों में खाना बनाने वालों को अधिकतम मासिक तनख्वाह एक हजार रुपए मिलती है। सफाई और बड़ी संख्या में बच्चों के लिए भोजन बनाने का कोई प्रशिक्षण उन्हें नहीं है।
प्राथमिक शिक्षा और मध्याह्न भोजन की गुणवत्ता का अध्ययन करने के लिए केंद्र सरकार की ओर से चुनी गई संस्थाओं ने बिहार में मध्याह्न भोजन की व्यवस्था से जुड़ी कमियों को खासकर चिह्नित किया था और उनकी रिपोर्ट में बिहार सरकार को भंडारण, खाना बनाने की अलग जगह, साफ-सफाई आदि को लेकर चेताया गया था।
जहरीले भोजन के शिकार बच्चे जब नजदीक के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पहुंचे तो वहां सिर्फ एक डॉक्टर था। दो और अनियमित डॉक्टर इस केंद्र में नियुक्त हैं। पहले डॉक्टर गलत दवा चलाते रहे और सिविल सर्जन की सलाह के बाद ही सही दवा दे पाए। निकट के छपरा के मुख्य अस्पताल और पटना मेडिकल कॉलेज ले जाने के लिए एम्बुलेंस सेवा निहायत नाकाफी थी। इससे बच्चों के सही इलाज में घातक देरी हुई। गौरतलब है कि हाल-हाल तक स्वास्थ्य विभाग सरकार में सहभागी रही भारतीय जनता पार्टी के पास ही था, जो अभी सरकारी सेवाओं की बाद इंतजामी के लिए सरकार का इस्तीफा मांगने को गला फाड़ रही है।

इन तथ्यों के आधार पर बिहार का कौन-सा यथार्थ हमारे सामने उभरता है? यह एक अत्यंत क्षीण प्रशासनिक क्षमता वाले राज्य का यथार्थ है, जो अपने बच्चों के लिए मिले संसाधन और पैसे का भी इस्तेमाल कर पाने में नाकाबिल है। यह एक ऐसे राज्य का यथार्थ है जिसमें राजकीय योजनाओं के क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने लिए सुपरिभाषित निगरानी की प्रक्रियाओं का अभाव है। यह एक ऐसे राज्य का यथार्थ है जिसमें किसी भीआकस्मिकस्थिति का सामना करने की तैयारी शून्य है। यह एक ऐसे राज्य का यथार्थ है जिसकी अलग-अलग प्रशासनिक शाखाओं में कोई तालमेल और संवाद नहीं है। इसमें फौरन प्रतिक्रिया की क्षमता बिल्कुल नहीं है।
निगरानी की बाहरी रिपोर्ट को समझ न पाने से पता चलता है कि सरकार में मौके की फौरी जरूरत को समझ पाने की लियाकत की सख्त कमी है। केंद्र सरकार के इस वक्तव्य पर- कि मध्याह्न भोजन की वैसी कमियों को लेकर बिहार सरकार को चेतावनी दी गई थी जो इन बच्चों के लिए घातक साबित हुर्इं- जिस तरह बिहार के मंत्री और अधिकारियों ने आश्चर्य व्यक्त किया है और शिक्षामंत्री ने जिस तरह किसी भी व्यवस्थागत कमी को स्वीकार करने से इनकार किया, उससे इस सरकार की दंभपूर्ण असंवेदनशीलता का पता चलता है।
गंडामन की सामाजिक संरचना से पता चलता है कि शासकीय मामलों में हस्तक्षेप की उसकी क्षमता बहुत कम है। अमर्त्य सेन द्वारा स्थापित संस्था ‘प्रतीचि’ ने अपने अध्ययन के द्वारा बिहार के स्कूलों में, विशेषकर मध्याह्न भोजन के प्रसंग में कमियों का लगातार उल्लेख किया है। इन सबका तात्पर्य यह है कि जिन इलाकों में स्थानीय समुदायों की हस्तक्षेपकारी क्षमता कम है, वहां राजकीय और बाहरी समाज का सहारा बहुत जरूरी है जिससे उन्हें ताकत मिल सके।
यह त्रासदी बताती है कि बिहार में इसका भी सख्त अभाव है। किसी प्रकार का सहयोगी सामाजिक आंदोलन तो नहीं ही है, राजनीतिक दलों की प्राथमिकता सूची में शिक्षा बहुत नीचे है।
विद्यालय प्रबंधन समितियों का न होना बिहार में मुद््दा नहीं है, इससे उस तिक्त उदासीनता का पता चलता है जो इन मामलों को लेकर समाज में फैली हुई है। सांस्थानिक प्रक्रियाओं को लेकर भी घोर लापरवाही समाज में है जिसके चलते निहित सामाजिक और राजनीतिक स्वार्थ का गठजोड़ अनौपचारिक यथास्थिति से लाभ उठा रहा है। अब हम कुछ सवाल करने की स्थिति में हैं।
गंडामन के मिडिल स्कूल को तोड़ कर बिना किसी सुविधा वाले इस नव-सृजित विद्यालय के निर्माण का फैसला किसने और किस स्तर पर किया? इस विद्यालय में (और दूसरी जगहों पर भी) मध्याह्न भोजन के सुचारु संचालन के लिए निगरानी की कोई व्यवस्था क्यों नहीं थी? एक अकेले शिक्षक से भोजन सामग्री खरीदने, उसका सुरक्षित भंडारण करने, खाना बनवाने और साठ से अधिक बच्चों को खिलाने के साथ-साथ पहली से पांचवीं तक की कक्षाओं को पढ़ाने की अपेक्षा कैसे की जा रही थी? बिहार में विद्यालय प्रबंधन समितियां क्यों नहीं हैं? प्रतीची समेत अन्य संस्थाओं की चेतावनी के बाद कमियों को दुरुस्त करने के लिए बिहार सरकार ने क्या कदम उठाए? बिहार में शिक्षक अर्ध-शिक्षक क्यों हैं? उनकी यह दुर्दशा क्यों है?
बिहार के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र किसी आकस्मिक स्थिति का सामना करने में नाकाबिल क्यों हैं? वहां क्यों प्राण-रक्षक दवा नहीं थी? क्यों छपरा का प्रमुख जिला अस्पताल भी इन बच्चों का इलाज न कर पाया? स्वास्थ्य सेवा में आमतौर पर यह बदइंतजामी क्यों है?
मंत्री को बिना जांच के बच्चों की मौत के पीछे किसी साजिश का पता कैसे चल गया? इस विद्यालय और अन्य विद्यालयों की अव्यवस्था के लिए उन्होंने खुद कोई जिम्मेवारी अब तकक्यों नहीं कबूल की है?
मारे गए बच्चों के परिजनों के पास इस दुख की घड़ी में खड़े रहने की बात तो दूर, मुख्यमंत्री को उनके प्रति संवेदना के दो बोल भी क्यों महंगे लगे? वैसे, कोसी की भयंकर बाढ़ हो या फारबिसगंज का गोलीकांड, त्रासदी में मुख्यमंत्री कभी संवेदनशीलता से पेश नहीं आ सके हैं, हमेशा उनकी प्रतिक्रिया ठंडी नौकरशाही वाली प्रतिक्रिया ही रही है।
इस विपदा में गांव वालों की क्या मदद राजनीतिक दलों ने की? संकट के उस क्षण में जब बच्चे मर रहे थे, बंद का क्या औचित्य था? क्या उन्होंने कभी स्कूली शिक्षा या स्वास्थ्य को लेकर कोई आंदोलन बिहार में किया है? फिर इन गांव वालों की ओर से आक्रोश दिखाने का उनका क्या अधिकार है?
मीडिया को अचानक बिहार के स्कूलों और अस्पतालों की बदहाली दिखाई देने लगी है। पिछले आठ सालों में तो स्थानीय और राष्ट्रीय मीडिया में नीतीश सरकार का सर्वतोमुखी गुणगान करने में एक-दूसरे से प्रतियोगिता चलते ही हमने देखी है। बिहार सरकार के आमंत्रण पर भ्रमणकारी बौद्धिक उसे सुशासन का ही नहीं सामाजिक परिवर्तन का भी प्रमाणपत्र देते रहे हैं। अब वे क्या कहना चाहेंगे?
अगर हमने इन सवालों को पूछना जारी नहीं रखा और इस त्रासदी की सारी कड़ियों को नहीं पहचाना तो इस तरह की और त्रासदियों की खबर के लिए लिए हमें तैयार रहना चाहिए।

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