घाटे के डर से सार्वजनिक खर्च से बच रही सरकार

नई दिल्ली [नितिन प्रधान]। राजकोषीय घाटे की चिंता सरकार को अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए जरूरी सार्वजनिक खर्च की रफ्तार बढ़ाने से रोक रही है। इसके बजाय सरकार अर्थव्यवस्था का माहौल बदलने के लिए नीतिगत फैसलों में बदलाव पर ज्यादा भरोसा कर रही है। निवेश के लिए फिलहाल सरकार पूरी तरह निजी क्षेत्र पर निर्भर कर रही है।

चालू वित्त वर्ष 2013-14 की शुरुआत के बाद अब तक सरकार द्वारा लिए गए फैसलों से स्पष्ट हो जाता है कि वह सार्वजनिक खर्च बढ़ाने के हक में नहीं है। मई के बाद अब तक कैबिनेट में अर्थव्यवस्था से संबंधित जितने भी फैसले हुए हैं, उनमें अधिकांश नीतिगत सुधार और नियमों को आसान बनाने से जुड़े हैं। निवेश की सिर्फ उन्हीं परियोजनाओं से संबंधित फैसले लिए गए हैं जिनके लिए राशि बजट में आवंटित हो चुकी है। इनमें से अधिकांश फैसले केंद्र पोषित स्कीमों से जुड़े हैं।

वित्त मंत्रालय के अधिकारियों का मानना है कि चालू वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद [जीडीपी] के 4.8 फीसद के लक्ष्य पर बनाए रखने के लिए जरूरी है कि सरकारी खर्च को नियंत्रण में रखा जाए। बीते वित्त वर्ष में तो वित्त मंत्री ने मंत्रालयों के खर्च में 10 से 20 फीसद तक की कटौती कर राजकोषीय घाटे का प्रबंधन कर लिया था। लेकिन इस बार सरकार वह कदम भी उठाने की स्थिति में नहीं है। अलबत्ता सूत्र बताते हैं कि वित्त मंत्री ने यह तय कर लिया है कि बजट से अतिरिक्त खर्च को मंजूरी नहीं दी जाएगी।

वैसे, भी निर्यात के मुकाबले तेज आयात और रुपये की गिरती कीमत ने खजाने पर दबाव बना रखा है। कच्चे तेल के आयात का बिल बढ़ रहा है। सोना भी सरकार के लिए परेशानी पैदा कर रहा है। ऐसे में चालू खाते के घाटे को भी नियंत्रण में रखने की चुनौती है। इसलिए वित्त मंत्री किसी भी सूरत में सरकारी खर्च को सीमा से बाहर नहीं जाने देना चाहते। शायद यही वजह है कि बुनियादी ढांचे में भी सरकारी खर्च के नए निवेश प्रस्तावों पर सरकार आगे नहीं बढ़ रही है।

चालू वित्त वर्ष की शुरुआत से ही सरकार का राजकोषीय घाटा खतरनाक तेजी से बढ़ रहा है। वर्ष 2013-14 में वित्त मंत्री ने 5,42,499 करोड़ रुपये के राजकोषीय घाटे का अनुमान लगाया है। लेकिन पहले दो महीने में ही यह लक्ष्य के 33 फीसद पर पहुंच गया है। मई, 2013 की समाप्ति तक सरकार का राजकोषीय घाटा 1,80,691 करोड़ रुपये हो गया है।

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