उत्तराखंड में आयी आपदा प्रत्यक्ष रूप से प्राकृतिक है, लेकिन जल विद्युत परियोजनाओं ने बादल फटने की इस सामान्य घटना को विभीषिका में तब्दील कर दिया है. केदारनाथ के नीचे फाटा व्यूंग और सिंगोली भटवाड़ी विद्युत परियोजनाएं बनायी जा रही हैं. प्रत्येक में करीब 20 किलोमीटर लंबी सुरंग पहाड़ में खोदी जा रही है. सुरंग खोदने के लिए भारी मात्रा में विस्फोटों का प्रयोग हो रहा है. इन विस्फोटों से पेड़ों की जड़ें हिल गयी हैं.
पूर्व में बरसाती पानी पेड़ों की जड़ों के सहारे पहाड़ों में समा जाता था. अब उसी पानी ने मिट्टी समेत पेड़ को उखाड़ कर नदी में डाल दिया. मिट्टी आने से पानी का घनत्व बढ़ गया. इन परियोजनाओं के अलावा अलकनंदा पर बन रही श्रीनगर परियोजना ने नदी के किनारे बड़ी मात्रा में मलबा डाल रखा था, जो नदी के साथ बहने लगा. इससे नदी ऐसे बही जैसे पारा बह रहा हो. जो कुछ सामने आया, उसे नदी ने तोड़ दिया.
हिमालय को जजर्र करने और बिजली परियाजनाओं के निर्माण में मौजूदा केंद्र सरकार की अहम भूमिका है. वह हर कीमत पर सस्ती बिजली का उत्पादन करना चाहती है. परियाजनाओं द्वारा हो रही हानि की गणना वह बिजली की उत्पादन लागत में नहीं करना चाहती है.
सामान्यत: डेप्रीसिएशन, ब्याज, वेतन एवं कोयले के खर्च को जोड़ कर उत्पादन लागत की गणना की जाती है और उत्पादन के दौरान पर्यावरण पर पड़नेवाले दुष्प्रभावों की अनदेखी कर दी जाती है. जैसे थर्मल पावर प्लांट से नदी में छोड़े जा रहे गर्म पानी से मछलियां मरती हैं, धुएं से जन स्वास्थ बिगड़ता है, कार्बन उत्सजर्न से वातावरण गर्म होता है और एयर कंडीशनर चलाने से खर्च बढ़ता है.
इसी प्रकार टिहरी डैम के कारण वायु विषैली हो गयी है, पानी पीने लायक नहीं रह गया है, आसपास रहने वालों के मकानों में दरारें आ रही हैं और मच्छरों का विस्तार हो रहा है इत्यादि. बिजली बेच कर मुनाफा कंपनी कमाती है, लेकिन विभीषिका में हुए जान-माल का नुकसान आम आदमी को वहन करना पड़ता है और फिर राहत कार्य सरकार के जिम्मे आता है.
मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआइटी) के प्रोफेसर माइकल ग्रीनस्टोन कहते हैं कि ऊर्जा का सही मूल्य तय करने के लिए सभी पर्यावरणीय प्रभावों की गणना कर उसे ऊर्जा लागत में जोड़ना चाहिए, क्योंकि दूसरों के ऊपर पड़े पर्यावरणीय दुष्प्रभाव से आर्थिक विकास मंद पड़ता है. जैसे वर्तमान विभीषिका में जिन लोगों की मृत्यु हो गयी है, उनके द्वारा जो उत्पादन किया जाता, उससे अर्थव्यवस्था वंचित हो जायेगी. अथवा कार्बन उत्सजर्न के कारण बढ़ रहे तापमान से बचने के लिए जो एयर कंडीशनर चलाया जाता है, वह बर्बादी है. यदि कार्बन उत्सजर्न रोक लिया जाये, तो एयर कंडीशनर में व्यय हो रही बिजली से दूसरे माल का उत्पादन किया जा सकता है.
एमआइटी के ही प्रोफेसर स्टीफन मेयर ने अमेरिका के राज्यों की पर्यावरण नीतियों का अध्ययन किया. उन्होंने पाया कि जिन राज्यों ने पर्यावरण के प्रति सख्त कानून बनाये, उनकी आर्थिक विकास दर तीव्र रही. कारण कि पर्यावरणीय दुष्प्रभाव कम हुए, मच्छरों से कम लोग मरे और आर्थिक विकास को गति मिली. अत: ऊर्जा के महंगे होने से आर्थिकविकास को जो सीधा नुकसान होगा, अर्थव्यवस्था को उससे कहीं ज्यादा लाभ पर्यावरण की क्षति कम होने से होगा.
ऊर्जा के उत्पादन से पर्यावरण के नुकसान की क्षतिपूर्ति के लिए सरकारी कोष से किये जा रहे राहत कार्यो के कारण भी आर्थिक विकास बाधित होता है. इसकी गणना भी बिजली के मूल्य में की जानी चाहिए. सभी पर्यावरणीय प्रभावों की गणना करके बिजली का दाम तय करना चाहिए. उत्तराखंड की वर्तमान विभीषिका का पूरा नहीं तो आधा खर्च ही इन परियोजनाओं के उत्पादन खर्च में जोड़ा जाना चाहिए. ऊर्जा के मूल्यों में वृद्घि यदि मुनाफाखोरी के कारण होती है, तो आर्थिक विकास सुस्त पड़ता है. अरविंद केजरीवाल कह रहे हैं कि बिजली कंपनियां मुनाफाखोरी कर रही हैं. नियामक को फर्जी आंकड़े देकर वे मूल्यवृद्घि करा ले रही हैं. ऐसी मूल्यवृद्घि आर्थिक विकास के लिए अभिशाप होती है. इस मूल्यवृद्घि के बाद भी पर्यावरणीय दुष्प्रभाव पूर्ववत् बने रहते हैं और आर्थिक विकास को मंद करते हैं.
सस्ती बिजली उपलब्ध कराने के प्रयास में हम वास्तव में बिजली का दाम बढ़ा रहे हैं. बिजली उत्पादन में हो रही पर्यावरण एवं प्रभावितों की क्षतिपूर्ति नहीं करने से नये प्रोजेक्ट का विरोध हो रहा है और उत्पादन में वृद्घि नहीं हो पा रही है. फलस्वरूप पावर कट लागू है. पावर कट के समय उपभोक्ताओं को जनरेटर अथवा इन्वर्टर का उपयोग करना पड़ता है, जिसका खर्च लगभग 12 रुपये प्रति यूनिट आता है. इस खर्च को जोड़ दिया जाये तो बिजली का औसत खर्च लगभग 8 रुपये पड़ता है.
पर्यावरणीय प्रभावों के आर्थिक मूल्य का आकलन करके यदि बिजली का दाम निर्धारित किया जाये, तो बिजली महंगी हो जायेगी, उसकी मांग कम हो जायेगी, ऐसी हानिप्रद बिजली परियोजनाएं नहीं बनेंगी और अंतत: देश की जनता ऐसी सरकार निर्मित विभीषिकाओं से बच सकेगी. हमारे लिए ऊर्जा के मूल्य में वृद्घि करने का एक और कारण है. अपनी ऊर्जा जरूरतों की पूर्ति के लिए हम कोयले, तेल अथवा यूरेनियम के आयात पर निर्भर हो गये हैं. ऊर्जा की खपत बढ़ती गयी तो हम निर्यातक देशों के शिकंजे से नहीं निकल पायेंगे. पश्चिम एशिया के देशों ने तेल की आपूर्ति बंद कर दी, तो दस दिन में ही हम घुटने टेक देंगे. अत: ऊर्जा के मूल्य में वृद्घि कर इसकी खपत घटानी चाहिए.
वर्तमान विभीषिका का कारण बनीं जल विद्युत परियोजनाएं देश की अर्थव्यवस्था और जनता के लिए कतई लाभप्रद नहीं हैं. लोगों में चेतना फैली है कि ये परियोजनाएं जनविनाशी हैं, लेकिन मंत्रियों एवं सरकारी अधिकारियों को इसमें दोहरा लाभ है. पहला, जानकार बताते हैं कि जल विद्युत परियोजना की मंजूरी पाने के लिए कंपनियां प्रति मेगावाट एक करोड़ रुपये तक खर्च करती हैं. उत्तराखंड की 40,000 मेगावाट की संभावना को देखते हुए यह विशाल राशि है. फिर, विभीषिका आती है और राहत कार्य के लिए हजारों करोड़ रुपये मिलते हैं. इसमें भी कमीशन पर काम करने की शिकायतें मिलती हैं. इसीलिए मंत्रीगण विभीषिका लाने में जल विद्युत परियोजनाओं की भूमिका को छिपा रहे हैं. मानो, लोगों के मरने और अर्थव्यवस्था पर विपरीत असर से इन्हें सरोकार नहीं है.
इसलिए सबसे पहले हमें बिजली के उपयोग की प्राथमिकताएं निर्धारित करनी चाहिए. हमारीराष्ट्रीयजल नीति में पीने के पानी, सिंचाई, जल विद्युत, उद्योग एवं यातायात की क्रमवार प्राथमिकताएं बतायी गयी हैं. इसी प्रकार बिजली के उपयोग के लिए पंखा, कूलर, एयर कंडीशनर की क्रमवार प्राथमिकता निर्धारित होनी चाहिए. देशवासियों को पंखा, कूलर के लिए बिजली उपलब्ध होने के बाद ही एयर कंडीशनर के लिए बिजली उपलब्ध करानी चाहिए