जनसत्ता 30 मई, 2013: हमारे समकालीन सोच-विचार की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि ‘गरीब’ के बारे में सिर्फ ‘अमीर’ (इस प्रसंग में ‘एलीट’) विचार करते हैं। गरीब अपनी गरीबी के बारे में विचार करता नहीं पाया जाता। अपने बारे में इस कदर ‘विचार विहीन’ होने के बारे में भी गरीब कभी नहीं बोलता।
यह बात भी अमीर ही बताते हैं कि गरीब अपनी गरीबी के बारे में इस कारण विचार नहीं कर पाता क्योंकि वह गरीब है। उसके पास इतनी फुरसत नहीं कि अपनी गरीबी के बारे में सोचे-विचारे। यह काम भी उन्हें करना पड़ता है।
इस तरह गरीबी के चिंतन में, हर विमर्श में गरीब एक ‘विषय’ बना रहता है जिसका, जो उस जैसे नहीं हैं, अध्ययन करते रहते हैं। उसकी कहते रहते हैं। यानी कि जो उसके बारे में सोचते दुबले हुए जाते हैं वे ही गरीब से पूछे बिना उसके ‘मुख्तार’ और ‘पेशकार’ बन जाते हैं।
योजना आयोग हो या ऐसा अन्य कोई आयोग या संस्थान या नीति निचोडू ‘थिंक टैंक’ टाइप का बंदा, वह जब गरीबी के बारे में सोचता-विचारता है तो गरीबी से बहुत दूर बैठ कर गरीबी के बारे में सोचता नजर आता है। इससे विचित्र किंतु सत्य किस्म के विमर्श पैदा होते हैं जो नीति निर्धारण में काम आते बताए जाते हैं। इस तरह हर नीति निर्धारण, अपने चिंतनीय ‘विषय’ से एक निश्चित दूरी बनाए रखता है।
नरेगा हो, मनरेगा, सीधे नकदी तबादला और भोजन सुरक्षा योजना आदि का स्मरण करते हुए चिंतक एलीट बार-बार एक ही सिरे पर पहुंच कर पूछते कि ठीक है यह सब है, लेकिन इनसे क्या होने वाला है? इस सबसे भ्रष्टाचार और मुद्रास्फीति बढेÞगी ही, सरकार पैसा कहां से लाएगी? यह वितर्क उस कोने से आता है जिसके पास अपनी हैसियत और सोचने की ताकत को बनाए रखने की ‘एनजीओ-गारंटी’ है। विचार के लिए जो अतिरिक्त ताकत चाहिए वह यहां जुटाई जा सकती है। विचार का ताकत से यह रिश्ता इन दिनों अक्सर दृश्यमान होने लगा है। सोचने-विचारने वालों की वार्ता शैली और देहभाषा एक सी है। कृशकाय कुपोषित की देहभाषा से कितनी अलग दिखती है यह निश्श्ांक देहभाषा!
मुक्ति की गारंटी देने वाले लेकिन इन दिनों विरल हो चले क्रांतिकारी हों या उदार ग्लोबल नीति निर्धारक हों या स्थानीय चिंतक हों, उनका नीति-चिंतन अक्सर अपने विषय से अंतरंग ढंग से नहीं जुड़ पाता। इसीलिए नीति पर नीति बनाने की अनीति उपहासास्पद बनती रहती है।
उस बहस में यही हो रहा था। ‘खाद्य सुरक्षा विधेयक’ के औचित्य-अनौचित्य पर एक बहस छिड़ी थी जिसमें कुछ विधेयक के पक्ष में थे तो कुछ उसके विपक्ष में।
टीवी की अंग्रेजी बहसों (उसी की तर्ज पर बनी हिंदी की बहसों) की यह ‘विलोम-प्रियता’ द्विपक्षीय नोक-झोंक में अक्सर बदलती रहती है तो उसका एक बड़ा कारण यही है कि उसमें जिसे ‘विषय’ बनाया गया होता है, उसका पक्ष एक तरह से ‘आयातित’, ‘उधार’ लिया गया पक्ष होता है जो अपने मूल तत्त्व से विलग हुआ और अंग्रेजी में अनूदित होकर बदला-बदला सा नजर आता है जिस पर इसलिए चख-चख होती है कि पक्ष या विपक्ष दोनों के पास अपने अपनेढंग का ‘उत्कोचित’ सत्य होता है, ‘उठाया हुआ’ सच होता है।
जब बहस ‘भोजन सुरक्षा’ के फायदे और उसके नुकसान के बहीखाते में बंद होने लगी तो पता नहीं किस बात पर एंकर को एक सवाल सूझ गया जिसे उसने अंग्रेजी में एक उदारवादी से पूछ लिया कि क्या आप कभी भोजन-वंचित यानी ‘निरन्न’ यानी भूखे रहे हैं? वह विद्वज्जनोचित दंभ, जो इन दिनों अक्सर हमारे एलीट में दिखाई देता है, अचानक भभक उठा और कहने लगा कि यह तो बहस को पर्सनलाइज करना हुआ? एंकर एक क्षण ठिठक गई और बात फिर आंकड़ों में उलझ गई।
लेकिन उस एक सवाल में, हालांकि वह अंग्रेजी में दागा गया था, विषय की व्यथा छिपी थी जो जरा-सी देर के लिए कौंध गई। अंग्रेजी बहस में एक भी ऐसा आदमी नहीं था जिसे भोजन-सुरक्षा की सचमुच जरूरत हो।
ऐसा आदमी रस्मी नूमने तक के लिए वहां नहीं था जबकि दिल्ली में चांदनी चौक, राजघाट और पहाड़गंज तक ऐसे अनेक लोग मिल सकते हैं जो पूरा भोजन नहीं पाते। भूख से मरने वालों की खबरें आ-आकर जब-तब चौंकाती रहती हैं। जब-जब भोजन-सुरक्षा की बात चलती है तब-तब कोई-न-कोई कहीं-न-कहीं भूख से मर जाता है। भूख की चर्चा से भूख नहीं भागा करती।
कहने की जरूरत नहीं कि अत्यंत गरीबी और भुखमरी के निजी अनुभव के बिना होती बहसें, निर्धारित नीतियां और कार्रवाइयां भले इरादों के बावजूद उस भूख से बहुत दूर पड़ी रह जाती हैं जो एक ही साथ एक आर्थिक पहलू रखती है लेकिन जो सामाजिक-सांस्कृतिक पहलू भी रखती है। सांस्कृतिक पहलू की बात महत्त्वपूर्ण है। भूख का सांस्कृतिक पहलू उसी भाषा में बेहतर अनुभव किया और समझा जा सकता है जो भूख के भीतर बनती है।
भूख के भीतर बनती भाषा पहले पेट भरने की शर्त लगाती है बाद में बोलने लायक होती है। इसीलिए भूखा बोलता नहीं। भोजन का इंतजार करता है। जरा दलितों की आत्मकथाएं पढेंÞ, उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण प्रसंग भीख और भोजन के बीच बनते हैं।
हमारी तमाम भाषाओं की सबसे बड़ी सीमा यह है कि वे भरे पेट की भाषाएं हैं। भूखे की भाषा नहीं हैं। भूख और भूखे का अनुभव वहां उधार लिया जाता है। वह अनूदित होकर आता है। यहीं भोजन नीति की राजनीति घुसती है और भूख के उपचार के विचार को बांट जाती है।
जिन अंचलों में गरीबी है, जो पूरा दाना पानी नहीं पाते उनकी भाषाएं किसी हद तक भूख के पास की भाषाएं हैं जो अक्सर मातृभाषाएं हैं। उनमें भूख किसी कहानी किसी गीत की तरह आती है।
हमारे साहित्य में भूख के अनुभव के कई विकट दृश्य हैं जो कि ख्ुाद बताते हैं कि भूख का माध्यम मातृभाषाएं हैं, वे बताती हैं कि भूख पहले भी रही है। भूख का जिक्र मातृभाषाओं में लिखे-कहे गए साहित्य में आता है। कवि और कथाकारों ने भूख को जब-तब अपना विषय बनाया है। जब-जब ऐसा हुआ है तब-तब भूख का वर्णन किसी नीति निचोडू थिंकटैंक से कहीं अधिक मार्मिक और व्याकुल कर देने वाला होता है। आप अपने भरे पेट को भूल कर एक पल के लिए अपनी ही भूख के बारेमेंसोच कर डरने लगते हैं।
भूख का अंग्रेजी शास्त्र भूख के देसी स्थानीय अनुभव से कितना अलग है वह इसी से सिद्ध होता है कि बहस में एक बार भूख के अनुभव डालने मात्र से भूख के शास्त्री कहने लगते हैं कि यह क्या? यह तो शास्त्र को पर्सनलाइज करना हुआ! भूखे पेट और भरे पेट के बीच की बातचीत अव्वल तो होती नहीं, अगर कभी भूख का जिक्र आता है तो परेशानी पैदा करता है।
भूख की मारी भाषाओं में भूख के कुछ अनुभवित मुहावरे हैं जो कि बुभुक्षा के बारे में पहले हुए सोच-विचार को बताते हैं। वे तमाम मुहावरे और अभिव्यक्तियां जितनी सांस्कृतिक हैं उतनी ही आर्थिक भी हैं राजनीतिक भी हैं।
हम अपने एलीट के विचारों की भूख से ‘तद््भावना’ और ‘तदाकारिता’ की मांग कर रहे हैं। जिसे भूख की पीड़ा न सताई उसे भूख का विचार किस तरह सता सकता है? ब्रजभाषा में कहावत चली आती है: ‘जाके पैर न फटी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई?’
इस मुहावरे का मर्म वही जान सकता है जिसकी बिवाई फटी हो। बिवाई तब फटती है जब नंगे पैर कठोर मार्ग पर चलें, गरमी-सरदी चलें, पैर खुले रहें यानी उपानह रहित रहें। बिवाई गरीबी की देन है।
इन दिनों के उदारीकरण ने इतना तो किया है कि सबके पैर में प्लास्टिक की चप्पलें दे दी हैं लेकिन बिवाई अब भी फटती है क्योंकि गरीब ‘लोरीयल’ का लोशन या ‘मॉइश्चराइजर’ नहीं लगा सकता। बिवाइयां आर्थिक-सामाजिक और मेडिकल वंचनाओं का परिणाम हैं। बिवाई से ज्यादा है बिवाई की पीड़ा, जो चलने-फिरने नहीं देती।
जो एलीट अंग्रेजी में बहस कर रहे थे क्या कभी नंगे पैर रहे और इतने रहे कि बिवाई फटती? नहीं फटी तो भूख पर ‘चिंतन’ भूखे के मर्म को कैसे छुए?
भूख का दूसरा पहलू ‘सांस्कृतिक’ है: भूखे भजन न होई गुपाला ये लेहु अपनी कंठी माला! जाहिर है भूख नया विषय नहीं है, हिंदुस्तान में यह हमेशा से रहा है।
इन दिनों भूख के शास्त्र को हारवर्डी अर्थशास्त्री गढ़ते हैं जो एक बार में ‘एक नीति’ से सब भूखों तक भोजन पहुंचाने का उद्यम करते हैं। लेकिन हर खाद्य नीति भूखे तक पहुंचते-पहुंचते गड़बड़ा जाती है। भूख का शास्त्र भूखे का नहीं बन पाता। कुपोषण का उपचार नहीं कर पाता। भूख का हर शास्त्र कुपोषण से जुड़ा है और कुपोषण सप्लाई से उतना नहीं जितना कि बनी और बना दी गई आदतों से जुड़ा है। आप भोजन दें तो जरूरी नहीं कि भूखा भोजन ही खाए। उसके बदले शराब भी पी सकता है। नकदी तबादले यानी कैश ट्रांसफर से वह टीवी खरीद सकता है, मोबाइल खरीद सकता है और यों ही जैसे-तैसे भोजन से काम चला सकता है!
जो लोग भूख को, गरीबी को कैलोरी से जोड़ कर चलते हैं वे यह तक बताते हैं कि इतनी दाल इतना भात इतनी सब्जी से इतनी कैलोरी मिल सकती है। लेकिन हिंदुस्तान में जो भरे पेट हैं वे तक इसका हिसाब नहीं रख पाते कि वे कितनी कैलोरी खाते हैं? स्वाद के सांस्कृतिक में रोटी-दाल गिन कर नहीं खाई जाती।
भरपेट खाने को ही खाना कहते हैं। वहांकैलोरी शास्त्र नहीं चलता, न चल सकता है। कैलोरी गिनने लगा तो खाने का आनंद तो गया समझिए। भोजन का सुख या आनंद कैलोरी शास्त्र में आता ही नहीं!
एक बार फिर से कह दें कि भूख जितना आर्थिक प्रश्न है उतना ही सांस्कृतिक भी। निराला की एक कविता है ‘भिखारी’ जिसमें भिखारी का जो वर्णन है वह अब तक के साहित्य में प्रामाणिक है: ‘वह आता/ दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता/ पेट पीठ मिलकर हैं एक/ चल रहा लकुटिया टेक/ मुट्ठी भर दाने को/ भूख मिटाने को/ मुंह फटी पुरानी झोली को फैलाता।’ पूरी कविता में वह भिखारी हमारे भरे पेट को अपराध की तरह बताता है। इसीलिए हम उसकी यथार्थवादी खूबसूरती की चर्चा करते हैं, भूखे के अनुभव को महसूस करने की जगह प्रगतिशील सौंदर्य दिखाने लगते हैं। उसी तरह प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’ भी भूख और भोजन का अनुभव कराने वाली है। जचगी के दौरान घर में मर चुकी बहू के कफन के लिए घीसू, माधव धनीमानियों से मांग कर जब कफन खरीदने बाजार में आते हैं तो कफन लेने की जगह सब्जी-पूरी, जलेबी और शराब में पैसा खर्च कर देते हैं और गाना गाने लगते हैं: ठगिनी क्यों नैना झमकावै? पता नहीं वे इसके जरिए भूख के बारे में कह रहे हैं या कि मर चुकी बहू के बारे में या पैसे के बारे में? लेकिन भूख उन्हें जिस कदर का बेगानापन देती है, सारी कहानी उसका निचोड़ है।
कहने का मतलब सरजी यह कि भूख के शास्त्र को पहले मातृभाषा में होना होगा, फिर उसे उसके सांस्कृतिक पहलुओं से जुड़ना होगा। तब जाकर आप उस भूख के पास पहुंच पाएंगे जो आप तक नहीं आई है।
भूख का शास्त्र भूखे के अुनभव से जुडेÞ बिना सही नीति नहीं बन सकता।