झारखंड में माओवादी कमजोर हुए हैं मगर उनके इस सबसे बड़े गढ़ में
माओवाद के नाम पर चलने वाले आपराधिक संगठनों की कोई कमी नहीं है. अनुपमा और
निराला की रिपोर्ट. फोटो: शैलेंद्र पांडेय
27 मार्च, 2013. झारखंड में चतरा जिले का लकड़मंदा गांव. बिहार सीमा के पास बसे इस इलाके का सन्नाटा आधी रात को अचानक गोलियों की तड़तड़ाहट से टूट गया. पास के जंगल में हो रही भयानक गोलीबारी के बीच गांववालों ने पूरी रात भगवान का नाम लेकर बिताई. सुबह पता चला कि यह दो नक्सली संगठनों की आपसी भिड़ंत थी – एक भाकपा माओवादी और दूसरा तृतीय प्रस्तुति कमिटी यानी टीपीसी.
दोपहर होते-होते इस लड़ाई के नतीजे सार्वजनिक हुए. सूचना मिली कि टीपीसी वालों ने भाकपा माओवादी के कुछ शीर्ष कमांडरों समेत दर्जन भर लड़ाकों को मार गिराया है. 25 को वे बंधक बनाकर भी ले गए हैं. दो गुटों के बीच आपसी वर्चस्व से जुड़ी जंग की इस कहानी से लगभग सभी वाकिफ हो चुके थे. लेकिन राज्य के नए पुलिस महानिदेशक राजीव कुमार ने गदगद भाव से इसे अपने अंदाज में फिर से सुनाया. उनका कहना था, ‘लकड़मंदा जंगल में नक्सली गुट तृतीय प्रस्तुति कमिटी के 50-100 नक्सलियों ने घेर कर माओवादियों के शीर्ष कमांडरों समेत दर्जन भर लोगों को मार गिराया है. हथियारों पर भी कब्जा कर लिया है. वे दो दर्जन माओवादियों को बंधक बनाकर भी ले गए हैं. इस घटना से माओवादियों की कमर टूट गई है. नक्सलविरोधी अभियान में लगी पुलिस का मनोबल बढ़ा है. अब माओवादियों को दोबारा इस इलाके में पनपने नहीं दिया जाएगा.’ पुलिस महानिदेशक ने यह भी जानकारी दी कि दोनों संगठनों के बीच जब वर्चस्व की लड़ाई में गोलीबारी चल रही थी तो उस बीच अलसुबह कोबरा बटालियन पुलिस की दो कंपनियां वहां पहुंचीं और उनके मोर्चा संभालते ही आपस में भिड़ रहे नक्सली भाग निकले.
27 मार्च की रात से लेकर 28 मार्च की सुबह तक चली इस घटना में माओवादियों का बड़ा नुकसान हुआ, यह बात सच है. इस मुठभेड़ में भाकपा माओवादी की बिहार-झारखंड विशेष क्षेत्रीय समिति के तेजतर्रार सदस्य लवलेश सिंह, बिहार-झारखंड समिति के प्लाटून कमांडर जयकुमार यादव, जोनल कमांडर धर्मेंद्र यादव, कोलयशंख जोन के कमांडर प्रफुल्ल यादव जैसे माओवादी नेता और लड़ाके मारे गए, यह भी सच है. लेकिन इसके बाद जो दूसरी बातें पुलिस महानिदेशक ने बताईं उनसे कई सवाल उठते हैं. पहला तो यही कि आखिर इस अभियान से पुलिस का मनोबल कैसे बढ़ा. क्या टीपीसी द्वारा माओवादियों की हत्या को वह अपनी सफलता मानती है? क्या यह सच है कि माओवादियों को नुकसान पहुंचा रहे ऐसे संगठनों को उसका परोक्ष समर्थन है? सुबह कोबरा बटालियन के पहुंचने पर आपस में लड़ रहे माओवादी और टीपीसी के उग्रवादियों के भाग निकलने की बात भी सच नहीं लगती. क्योंकि इस घटना के बाद आई कुछ समाचार रपटों के मुताबिक स्थानीय चश्मदीदों का कहना था कि कोबरा फोर्स के लोग तड़के चार बजे गांव पहुंचे और उन्होंने टीपीसी पर बिल्कुल भी गोलियां नहीं चलाईं बल्कि उन्हें पकड़े गए माओवादियों को अपने साथ ले जाने दिया.
राज्य में 70 छोटे-बड़े हथियारबंद संगठन सक्रिय हैं
उधर,इस घटना के बारे में माओवादी सूत्र कुछ और बातें बता रहे हैं. उनका कहना है कि वर्षों से आपसी वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहे माओवादियों और टीपीसी के बीच उस रात वार्ता की बात तय थी. माओवादियों से रणनीतिक चूक यह हुई कि वे वार्ता के लिए टीपीसी के इलाके में चले गए. सूत्र बताते हैं कि टीपीसी ने पहले से ही इलाके की घेराबंदी कर रखी थी और इसके समानांतर पुलिसवालों की भी घेराबंदी थी. इस दायरे में आते ही माओवादियों के बड़े लड़ाके आसानी से घेरकर मार दिए गए, उनके हथियार लूट लिए गए और टीपीसी वाले दो दर्जन माओवादियों को बंधक बनाकर ले जाने में भी सफल हुए. माओवादियों की मांग है कि चतरा की घटना की न्यायिक जांच हो. दूसरी ओर टीपीसी के सचिव सागर तहलका को लिखे एक पत्र में कहते हैं, ‘माओवादी दोहरा व्यवहार कर रहे हैं. वे अब इस मुठभेड़ की न्यायिक जांच की मांग कर रहे हैं. जब उन्हें इस व्यवस्था पर भरोसा ही नहीं है तो इसी व्यवस्था से न्यायिक जांच की मांग कर क्या साबित करना चाह रहे हैं?’ बकौल सागर, ‘भाकपा माओवादी के सदस्य मार्क्सवाद-माओवाद के रास्ते से भटक गए हैं. वे बिना मतलब आम नागरिकों की जान लेते हैं, इसलिए इस कार्रवाई के जरिए उन्हें समझाने की कोशिश की गई है.’
इस घटना के बाद झारखंड के माओवाद और उग्रवाद प्रभावित इलाकों में अशांति की आहट तेज हो गई है. माओवादियों ने एक से सात अप्रैल तक प्रतिरोध सप्ताह तो छह और सात को बिहार-झारखंड बंद का एलान किया. इस एलान के साथ ही आशंका जताई जाने लगी थी कि माओवादी इस नुकसान का बदला लेने की कोशिश करेंगे. हुआ भी ऐसा ही. चार अप्रैल को झारखंड के गुमला जिले में अंधाधुंध फायरिंग करते हुए माओवादियों ने पुलिस के पांच जवानों की हत्या कर दी और उनकी राइफलें लूटकर भाग निकले. छह एवं सात अप्रैल को बंद के दौरान भी उन्होंने कई जगह तांडव मचाया. बिहार के गया जिला मुख्यालय से करीब 100 किलोमीटर दूर डुमरिया में माओवादियों द्वारा बिछाई गई बारूदी सुरंग से सीआरपीएफ की कोबरा बटालियन के चार जवान घायल हुए. मुजफ्फरपुर में दो बसों और एक ट्रक को जला दिया गया. औरंगाबाद जिले में मोबाइल टावर को आग के हवाले किया गया तो जमुई जिले में एक पावर सब स्टेशन फूंक दिया गया. झारखंड के लोहरदगा जिले की सिरम पंचायत में माओवादियों ने एक पंचायत सचिवालय को भी बम से उड़ा दिया.
इस घटनाक्रम से कई बातें साफ हुई हैं. पहली तो यही कि अब तक चूहे-बिल्ली की तरह छिप-छिपाकर खेल खेलते रहे दो उग्र वाम संगठन आमने-सामने की लड़ाई लड़ने लगे हैं. कुछ हद तक यह भी साफ हुआ कि 2004 में पीपुल्स वार ग्रुप, माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर ऑफ इंडिया सहित 28 संगठनों के विलय से बने भाकपा (माओवादी) से पहले ही एक अलग संगठन के रूप में उभर चुके टीपीसी का पुलिस से परोक्ष रिश्ता है जो लोहे से लोहा काटने की तर्ज पर उसका इस्तेमाल करती है. अंग्रेजी अखबार ‘द हिंदू’ ने इस घटना के गवाह रहे स्थानीय लोगों के हवाले से बतायाभीकि टीपीसी के लोगों ने मारे गए माओवादियों की लाशें कोबरा फोर्स के जवानों को सौंपीं.
इसी घटना से यह भी साफ हुआ कि झारखंड में अब माओवादी ही अकेली परेशानी नहीं हैं. दरअसल नक्सलवाद, पीपुल्स लिबरेशन, जनप्रतिरोध के नाम पर आज राज्य के हर इलाके में दर्जनों संगठन खड़े हो गए हैं. भाकपा (माओवादी) और टीपीसी के अलावा झारखंड में सक्रिय प्रमुख संगठनों में सबसे ज्यादा चर्चित नाम पीएलएफआई यानी पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट ऑफ इंडिया का है (बॉक्स देखें). इसके अलावा टीपीसी की तर्ज पर जेपीसी यानी झारखंड प्रस्तुति कमिटी और तृतीय प्रस्तुति कमिटी-1 भी हैं. अन्य प्रमुख संगठनों में झारखंड जनमुक्ति परिषद, पहाड़ी चीता, जन क्रांति संगठन, झांगुर गुट, इश्तेयाक गुट, ग्रीन आर्मी, झारखंड जन मुक्ति संघर्ष मोर्चा आदि हैं. झारखंड आर्मी टाइगर जैसे कुछ दल शुरू होकर खत्म भी हो चुके हैं.
राष्ट्रपति शासन लगने के बाद झारखंड में उग्रवाद, माओवाद और अपराध का आकलन करने के लिए राज्यपाल के सलाहकार विजय कुमार ने 30 जनवरी को एक बैठक की, जिसमें राज्य में कानून व्यवस्था की स्थिति की समीक्षा की गई. इस बैठक के लिए पुलिस विभाग ने एक दस्तावेज तैयार किया था जिसके अनुसार राज्य में 70 हथियारबंद संगठन सक्रिय हैं, जिनमें से 46 अपराधी संगठन हैं. इनमें से ज्यादातर संगठन कुछ मायनों में एक जैसे हैं. जैसे सभी में एक-दो या कुछ सदस्य माओवादी दस्ते से टूट कर गए हैं, सभी के पास कुछ हथियार हैं, सभी कुछ हद तक छापामार लड़ाई की कला भी जानते हैं और सबसे बड़ी समानता यह है कि ऐसे ज्यादातर संगठन अपराधियों की ही तरह निजी स्वार्थ के लिए हिंसात्मक कार्रवाइयों को अंजाम देने में ज्यादा विश्वास रखते हैं.
झारखंड में माओवादियों की बात चलती है तो फटाफट कुछ आंकड़े बता दिए जाते हैं. मसलन 12 साल में 1,076 हत्याएं, इनमें पुलिस बल के 417 जवानों की हत्या को अलग से बताया जाता है. यह भी बताया जाता है कि राज्य के 24 में से 22 जिले माओवाद की जद में हैं. यहां अब तक 4,100 से अधिक घटनाएं हुई हैं. इनमें हत्या के अलावा दूसरी वारदातें भी हैं. मसलन झारखंड के गुमला जिले में 12 साल में नक्सलियों ने 110 वाहन फूंक दिए. पिछले छह माह में गुमला, खूंटी, सिमडेगा और लोहरदगा जिलों में 250 हत्याओं का ठीकरा भी माओवादियों-नक्सलियों के सिर पर फोड़ा जाता है. अगर इसी साल की बात करें तो साउथ एशिया टेररिज्म पोर्टल नाम की एक वेबसाइट के आंकड़े बताते हैं कि 2013 में झारखंड नक्सलवाद से जुड़ी हिंसा के मामले में देश के बाकी राज्यों से कहीं आगे निकल गया है. यहां अब तक सुरक्षा बलों, आम नागरिकों और नक्सलवादियों को मिलाकर कुल 58 जानें जा चुकी हैं. दूसरे स्थान पर छत्तीसगढ़ है जिसके लिए यह आंकड़ा 19 है.
लेकिन हकीकत यह है कि पिछले कुछ वर्षों में कई किस्म की मार झेल रहे माओवादी अपने पुराने बसेरे झारखंड में लगातार कमजोर होते गए हैं. पुलिसिया अभियान से जूझने से ज्यादा उनकी ऊर्जा राज्य में कुकुरमुत्तों की तरह उग आए अन्य संगठनों से लड़ने में खर्च हो रही है. राज्य के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी और राज्य पुलिसके पूर्व प्रवक्ता एसएन प्रधान कहते हैं, ‘2008-09 तक स्थिति यह थी कि राज्य में जो भी हिंसक वारदातें होती थीं उनमें से 65-70 प्रतिशत घटनाओं में भाकपा माओवादी के दस्तों का हाथ होता था. लेकिन 2012 आते-आते कुल हिंसक वारदातों में उनकी भूमिका 44 प्रतिशत पर सिमट गई. उधर, इसी दौरान पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट जैसे संगठनों की भूमिका 14 प्रतिशत से बढ़कर 30 प्रतिशत दर्ज की गई.’ प्रधान यह भी बताते हैं कि इन संगठनों के बीच आपसी वर्चस्व की लड़ाई इस हद तक पहुंच चुकी है कि ये एक-दूसरे को निशाना बना रहे हैं और साथ में पुलिस और जनता का भी नुकसान कर रहे हैं. 2012 में 23 पुलिसकर्मी तो राज्य में पनपे गैर माओवादी संगठनों द्वारा ही मारे गए. इस दौरान जिन 33 माओवादियों के मारे जाने की सूचना सार्वजनिक हुई उनमें से 22 की मौत तो आपसी लड़ाई में ही हुई. 2011 में 40 माओवादी आपसी वर्चस्व की लड़ाई में ही मारे गए थे. पुलिस के एक अधिकारी बताते हैं कि 2012 में हुई 500 में से आधे से ज्यादा हिंसा की घटनाओं में गैरमाओवादी संगठनों की भूमिका थी.
ये आंकड़े बताते हैं कि झारखंड जैसे राज्य में माओवादी तो दिन-ब-दिन कमजोर पड़ रहे हैं लेकिन दूसरी किस्म के आपराधिक संगठन माओवाद-नक्सलवाद आदि के नाम पर अपने दायरे का तेजी से विस्तार कर रहे हैं. ऐसे संगठन जिनका मकसद अधिक से अधिक अपना हित साधना, मोटी रकम कमाना और संगठन के जरिए भयादोहन करना है. कुछ बड़ी घटनाओं को छोड़ दें तो रोज ही किसी की जान लेने, अफीम की खेती करवाने, लेवी के नाम पर परेशान करने या वाहनों को फूंक देने का काम यही गैरमाओवादी और गैर- नक्सलवादी संगठन करते हैं.
अब सवाल यह उठता है कि 2004 के आखिरी माह में एमसीसीआई और पीपुल्स वार के विलय से झारखंड के ही सारंडा में बनी भाकपा (माओवादी) पार्टी यहां इतने वर्षों में मजबूत होने के बजाय कमजोर क्यों होती गई.
हालांकि ऐसा भी नहीं है कि माओवादी झारखंड में बिल्कुल ही कमजोर हो गए हों. वे हालिया दिनों में भी कुछ बड़ी घटनाओं को अंजाम देने में सफल रहे हैं. लेकिन यह भी सच है कि आंतरिक कलह, एक-एक कर अलग होते सदस्यों और उनके सहयोग-समर्थन से खड़े होते दूसरे संगठनों की वजह से वे इन दिनों खासे परेशान चल रहे हैं. बताया जाता है कि पिछले कुछ माह में भाकपा माओवादी से करीब 150 सदस्य पार्टी छोड़कर या तो टीपीसी या पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट ऑफ इंडिया जैसे संगठनों में जा मिले हैं या लेवी लेकर फरार हो गए हैं.
राज्य में इस साल अब तक नक्सली हिंसा में हुई मौतों की संख्या 58 है जो नक्सल प्रभावित राज्यों में सबसे ज्यादा है
हाल में पुलिस द्वारा सारंडा जैसे इलाके में चलाए सघन अभियान तथा सारंडा एक्शन प्लान की वजह से भी माओवादियों की ताकत में कमी आई है. बीते समय के दौरान किशनजी, आजाद जैसे शीर्ष नेताओं के मारे जाने और उसके बाद थिंक टैंक समझे जाने वाले नारायण सान्याल, एमसीसीआई के संस्थापक सदस्यों में रहे सुशील राय, वैज्ञानिक मार्गदर्शक रवि एस शर्मा, पोलित ब्यूरोसदस्य प्रमोदमिश्रा, सेंट्रल कमिटी सदस्य विजय आर्य, बंगाल-बिहार-उड़ीसा की स्पेशल एरिया कमिटी के सदस्य नथुनी मिस्त्री और अमिताभ बागची जैसे प्रमुख नेताओं की गिरफ्तारी से भी वे कमजोर हुए हैं. एक पूर्व माओवादी नेता बताते हैं कि इन नेताओं के मारे जाने अथवा पकड़े जाने का असर पार्टी पर साफ दिख रहा है. उससे लगातार रणनीतिक चूकें हो रही हैं. हालिया दिनों में कई ऐसे मौके भी आए जब माओवादियों की ओर से माफी भी मांगी गई. अब ऐसे में अगला सवाल यह उठता है कि भाकपा माओवादी के लोग तेजी से पार्टी छोड़ने और उसकी जड़ें खोदने में क्यों लगे हुए हैं.
इसके पीछे कई वजहें बताई जाती हैं. एक बड़ी वजह यह भी है कि भाकपा माओवादी की तुलना में दूसरे नवगठित आपराधिक-उग्रवादी संगठनों में अधिक सुविधाओं और लेवी आदि से अधिक कमाई की गुंजाइश होती है. दूसरी बात यह कि 2004 में विलय के बाद जब एक पार्टी भाकपा माओवादी बनी तो शुरू-शुरू में तो सब कुछ ठीक चला. लेकिन कुछ समय बाद दशकों तक कोऑर्डिनेशन कमिटी के निर्देशों पर चलने वाले और स्थानीय कारणों के हिसाब से लड़ने वाले सदस्यों को बड़े-बड़े नियम-कायदे उबाने लगे. उकताए सदस्य नई राह पकड़ने लगे. कुछ महत्वाकांक्षी माओवादियों को यह भी लगा कि अगर वे अपनी पार्टी के लिए लेवी वसूल सकते हैं, गुरिल्ला युद्ध कर सकते हैं तो अपने लिए क्यों नहीं. नतीजतन छोटे-बड़े कई नेता एक-एक कर अलग होते गए. बहुत-से लोग इसकी जड़ें जातिवाद में भी देखते हैं. माओवादी घटनाओं पर पैनी नजर रखने वाले चर्चित बांग्ला कवि विश्वजीत सेन कहते हैं, ‘माओवाद के नाम पर जातिवाद का जो घिनौना खेल अब तक बिहार-झारखंड में चलता आया है, चतरा की घटना के बाद उस पर से भी पर्दा उठ गया है. मारे गए अधिकांश माओवादी एक जाति-विशेष (यादव) के हैं. लगता है माओवाद की लंबी यात्रा अब जातीय संघर्ष के पड़ाव पर आकर खत्म हो रही है.’
हालांकि एक वर्ग को उम्मीद अब भी है. 1976-1984 तक एमसीसी के जोनल सचिव रहकर भूमिगत रहे और बाद में विधायक बने रामाधार सिंह कहते हैं, ‘यह तय है कि जो संगठन अभी अलग-अलग नाम से सक्रिय हैं और अपना-अपना दायरा बनाकर हथियारों के बल पर उगाही आदि के धंधे में लगे हुए हैं, उन्हें जल्द ही खत्म भी हो जाना होगा. वे क्रांतिकारी विचारों और आंदोलनों के बगैर चल रहे हैं. इस रास्ते ज्यादा दिनों तक चला ही नहीं जा सकता.’ मुश्किलों से पार पाने के लिए भाकपा माओवादी भी कसरत जारी रखे हुए है. सूत्र बताते हैं कि बीती 27 जनवरी को पार्टी की बिहार और झारखंड रीजनल कमिटी ने गुमला में बैठक करके अपने सदस्यों के वेतन और सुविधाएं बढ़ाने का फैसला किया. नए फैसले के अनुसार भाकपा माओवादी ने अपने सदस्यों के वेतन में 20-30 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी की है. जोनल और रीजनल कमेटी के सदस्यों का वेतन आठ हजार रुपये तक बढ़ाए जाने की सूचना है, जबकि पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (भाकपा माओवादी की मिलिटरी इकाई) के सदस्यों का वेतन तीन हजार रुपये तक बढ़ाया गया. सूचना यह भी है कि उस बैठक में भाकपा माओवादी नेसदस्यों को रोके रखने और अधिक से अधिक नए सदस्यों को जोड़ने के लिए कुछ नए फैसले भी लिए. इनमें से दो प्रमुख फैसलों के तहत सदस्यों को स्वेच्छा से शादी करने का अधिकार दिया गया और समय-समय पर छुटटी लेकर परिवार के साथ घूमने की इजाजत भी दी गई. हालांकि इन तमाम फैसलों पर केंद्रीय कमिटी की मुहर का लगना अभी बाकी बताया जाता ह,ै लेकिन सूत्र बताते हैं कि माओवादियों ने ये सारे फैसले खुद की पार्टी को कमजोर होने से बचाने के लिए लिए हैं.
इन नए फैसलों पर मुहर लग जाने से भाकपा माओवादी को कितना फायदा होगा यह तो आने वाला समय बताएगा. क्योंकि यह भी संभव है कि यदि भाकपा माओवादी अपने सदस्यों की सुविधा और वेतन बढ़ाएगी तो अधिक लेवी वसूलने वाले दूसरे विरोधी संगठन भी इनकी तुलना में ज्यादा सुविधा, छूट और वेतन देकर युवाओं और नए सदस्यों को अपनी ओर आकर्षित करेंगे. नए उग्रवादी संगठनों को देख लगता भी है कि उनमें कमाई और वर्चस्व कायम करने के अधिक मौके मिलते हैं क्योंकि उन्हें पार्टी के सिद्धांत या किसी नियम कानून से ज्यादा बंधा नहीं रहना पड़ता. उनकी अधिकांश गतिविधियां आपराधिक किस्म की होती हैं जिससे राजनीति, लेवी और ठेके की दुनिया में वर्चस्व बनाए रखना आसान होता है.
माओवादियों की तुलना में दूसरी किस्म के संगठनों के बढ़ने की कुछ और वजहें भी बताई जाती हैं. सबसे पहले तो पुलिस पर ही आरोप लगता है कि उसने माओवादियों से पार पाने के लिए कुछ आपराधिक किस्म के संगठनों को नक्सलवाद का चोला धारण करने दिया. यानी यह कांटे से कांटा निकालने की कवायद है. जब-तब माओवादियों के दुरूह इलाके में कई बार टीपीसी या दूसरे किस्म के संगठनों द्वारा पुलिस का मार्गदर्शन किए जाने की बात सामने आती रहती है. यह भी देखा गया है कि कई संगठनों को पुलिस लेवी वसूलने की छूट तक दिए रहती है. दूसरे, यह भी बताया जाता है कि झारखंड में कारोबार करने आई कुछ कंपनियों ने भी ऐसे संगठनों को खड़ा किया है जो उन्हें माओवादियों तथा दूसरे किस्म के संगठनों से संरक्षण देते हैं. जिस इलाके में कंपनी को खनन करना होता है, वहां ये संगठन अपना जाल फैलाकर न तो दूसरे समूह को फटकने देते हैं न पुलिस-प्रशासन आदि को. हालांकि एमसीसीआई के पूर्व राज्य सचिव व चर्चित माओवादी नेता रामाधार सिंह कहते हैं कि माओवादी भी लगातार हथियारों पर ज्यादा भरोसा करने और जन आंदोलनों से दूर होने की वजह से कमजोर होते गए हैं जिसका फायदा उठाते हुए पुलिस ने तमाम संगठनों को खड़ा करवा दिया है.
माओवाद, नक्सलवाद, पीपुल्स लिबरेशन आदि के नाम पर पनपे इन नए संगठनों के काम करने का तरीका, इनके समृद्ध और ताकतवर होने का फॉर्मूला और दायरे का विस्तार करने का गणित भी बड़ा साफ है. ये पुलिस पर कभी-कभार ही हमला करते हैं. उसकी तुलना में इनके ज्यादा हमले ठेकेदारों या स्थानीय विवाद में फंसे किसी व्यक्ति पर होते हैं. इससे साफ होता है कि इनका इस्तेमाल भी स्थानीय स्तर पर ठेकेदार, कारोबारी, नेता और प्रभावशाली लोग निजी सेना की तरहजमकर करते हैं.झारखंड में लोहरदगा, खूंटी, गुमला, सिमडेगा, चतरा और लातेहार तो ऐसे जिले हो गए हैं जहां इंच-इंच तक की जिंदगी ये संगठन तय करने लगे हैं. किस दिन बंद होगा, किस दिन खुला रहेगा, यह इनके एक फरमान से तय होता है. ये कभी भी बस से किसी यात्री को उतारकर मार देते हैं, कभी भी किसी बस से तमाम यात्रियों को उतारकर बस में आग लगा देते हैं. इलाके में कौन बस चलाएगा, किसके ट्रक चलेंगे, व्यवसाय कौन करेगा, ईंट भट्टा किसका होगा, ठेकेदारी किसे मिलेगी, यह सब निर्णय अपराधी-उग्रवादी ही करने लगे हैं.
हद तो तब हो जाती है जब इनमें से कई संगठन एक साथ कुछ इलाकों पर अपनी दावेदारी कर देते हैं. एक-दो घटनाओं से यह साफ होता है. एक घटना पिछले साल की ही है. झारखंड के लातेहार जिले में एक ग्रामीण सड़क बनाने की योजना थी. ठेकेदार ने ठेका लिया. काम शुरू होने ही वाला था कि उसके पास अलग-अलग छह पत्र पहुंचे. सभी ने दस प्रतिशत लेवी की मांग की. सड़क निर्माण का काम लगभग एक करोड़ रुपये का था. ठेकेदार ने हिसाब लगा कर देखा. वह किसी एक को लेवी देकर सड़क नहीं बना सकता था. सभी को देता तो 60 लाख रुपये चले जाते. उसके पहले विभागीय कमीशन वगैरह का गुणा-गणित तो पहले ही लग चुका था. काम के लिए कुल मिलाकर 20 लाख रुपये से भी कम बच रहे थे. उसने काम छोड़ दिया. एक दूसरी घटना इस साल की शुरुआत की है. रांची से सटे खूंटी जिले में एक काम शुरू हुआ. यह काम एक राष्ट्रीय कंपनी का है जो पूरे भारत में चल रहा है. झारखंड के खूंटी में भी उस काम का एक हिस्सा होना है. कंपनी के पास दनादन कुछ संगठनों के पत्र पहुंचे. सबने अपनी हिस्सेदारी मांगी. कंपनी ने एक नेतापुत्र की मदद से प्रमुख संगठन से बातचीत की. जो देना था, दे दिया. कंपनी के पास कुछ दिनों बाद फिर उसी संगठन का पत्र गया कि आपने गलत जानकारी दी है कि आप मात्र आठ करोड़ रुपये का काम कर रहे हैं, कुल काम तो करीब 800 करोड़ रुपये का है. कंपनी ने समझाया कि यह राशि तो पूरे देश में काम करने की है. खबर लिखे जाने तक संगठन को कंपनी की बात समझ में आ गई है. आगे क्या होगा, कंपनीवाले को भी नहीं पता.
पिछले 12 साल के दौरान झारखंड में नक्सली हिंसा से 1,076 लोगों की मौत हुई
भाकपा माओवादी की तुलना में इन संगठनों की लेवी का कोई नियत हिसाब नहीं है. माओवादियों की लेवी के बारे में सूत्र जानकारी देते हैं कि कच्चे निर्माण पर सात प्रतिशत और पक्के निर्माण पर पांच प्रतिशत लेवी ली जाती है. इसके बदले में वे लेवी की रसीद भी देते हैं. लेकिन गैरमाओवादी संगठनों में ऐसा कुछ तय नहीं. वे काम, नाम के अनुसार दाम तय करते हैं. ऐसे संगठन के एक नेता बताते हैं, ‘हम लोगों द्वारा अधिक लेवी लिए जाने की वजह अपने कार्यकर्ताओं पर अधिक खर्च करना और संगठन विस्तार के लिए अधिक से अधिक हथियारों की खरीद करना भी है.’ वेबताते हैं कि चूंकि माओवादियों के पास पहले से ही बहुत हथियार हैं और उनके पास हथियार सुनियोजित तरीके से भी पहुंचते रहते हैं इसलिए उनका काम कम और नियत लेवी में चल जाता है. वे कहते हैं, ‘लेकिन हमारे साथ ऐसा नहीं. हम लोकल स्तर पर हथियारों की खरीद करते हैं.’
नए संगठन स्थानीय स्तर पर हथियारों की खरीद जमकर करते हैं, इसका खुलासा बिहार के बिहारशरीफ में 13 मार्च को पकड़े गए राजकिशोर पटेल ने भी किया. पटेल 550 जिंदा कारतूस, 315 राइफल बंदूक आदि लेकर झारखंड जा रहा था. पटेल ने बताया कि वह इन हथियारों को मुंगेर से और बेगुसराय से लेकर चला था और इन्हें पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट को दिया जाना था. उसने यह भी बताया कि वह रॉकेट लांचर पहुंचाने का भी काम करता है.
पीयूसीएल के पूर्व राज्य सचिव शशिभूषण पाठक कहते हैं, ‘कौन क्या कर रहा है, यह सबको समझने की जरूरत है. दुखद पहलू यह है कि पिछले कुछ सालों में आपराधिक गिरोहों को भी मीडिया और प्रशासन ने माओवादी-नक्सलवादी करार दिया है.’ हूल झारखंड क्रांति दल बनाने वाले राजनीतिक कार्यकर्ता शंभूनाथ महतो कहते हैं, ‘झारखंड में अराजक स्थिति हो गई है. यहां रोज ही नए संगठन का उदय हो रहा है. इससे माओवादियों के सामने चुनौती बढ़ती जा रही है और पुलिस-प्रशासन के सामने भी.’
यह बात सच भी है कि जिस तरह से झारखंड में हालिया वर्षों में नए संगठनों का उदय हुआ है उससे माओवादियों की धार तो कमजोर हुई ही है लेकिन पुलिस-प्रशासन के सामने भी चुनौती उतनी ही बढ़ी है. सारंडा के जंगलों में सारंडा एक्शन प्लान चलाकर सरकार ने दावा किया कि वहां उसने माओवादियों से पार पा लिया है. हो सकता है कि अब पलामू में भी ऑपरेशन सरयू चलाकर वह माओवादियों से पार पा ले. लेकिन सवाल यह है कि वह उन दर्जनों संगठनों से कैसे पार पाएगी जो रोज ही न सिर्फ अपराध और दहशत की नई इबारत लिख रहे हैं बल्कि तेजी से अपना वजूद भी बढ़ा रहे हैं. खुफिया विभाग के एक अधिकारी बताते हैं, ‘पिछले साल लेवी के 96 बड़े मामले दर्ज किए गए जिन्हें पुलिस सार्वजनिक नहीं करना चाहती.’ वे बताते हैं कि झारखंड में लेवी का सालाना कारोबार तकरीबन 150 करोड़ रुपये का हो चुका है.
यानी अंत में घूम-फिरकर सवाल वहीं आता है कि क्यों पुलिस चतरा में टीपीसी और माओवादियों के मुठभेड़ में माओवादियों के मारे जाने से इतनी खुश हो गई. क्या टीपीसी या दूसरे संगठन लड़कर माओवादियों को भगा देंगे? अगर माओवादियों को टीपीसी जैसे संगठनों ने खत्म भी कर दिया तो क्या दूसरे संगठनों के साथ आई नई चुनौतियां और समस्याएं भी वक्त के साथ अपने आप खत्म हो जाएंगी? राष्ट्रपति शासन में राज्यपाल के सलाहकार बने विजय कुमार शायद स्थिति को समझते हैं. इसलिए उन्होंने पुलिस को फटकार लगाते हुए उसे पीपुल्स लिबरेशन फ्रंट ऑफ इंडिया के प्रमुख दिनेश गोप को गिरफ्तार करने में ज्यादा ऊर्जा लगाने की नसीहत दी है. विजय कुमार इन संगठनों के तेजी से हुए विस्तार के गुणा-गणित को भी समझने लगे हैं. कुछ दिनों पहलेही उन्होंने राज्य केसभी पुलिस अधीक्षकों को मेल भेजकर पूछा है कि वे एंटी-नक्सल ऑपरेशन में ज्यादा रुचि क्यों नहीं लेते. क्यों टीपीसी, पीएलएफआई जैसे संगठन मनमानी करते जा रहे हैं और पुलिस उनके खिलाफ ठोस कार्रवाई नहीं कर पा रही?
माओवादी समर्थक कहते हैं कि झारखंड में माओवादियों के समानांतर अपना विस्तार करने में लगी टीपीसी पुलिस समर्थित सेना है. कुछ-कुछ छत्तीसगढ़ के सलवा जुडूम की तरह. लेकिन जानकारों का मानना है कि पुलिस भले ही आज टीपीसी और उस जैसे दूसरे संगठनों की कारगुजारियों पर यह सोचकर खुश है कि माओवादियों के नुकसान में कहीं न कहीं उसका फायदा ही है मगर यह काल्पनिक फायदा आने वाले कल में भयावह नुकसान में भी तब्दील हो सकता है.