कितना कम जानते हैं हमारे सांसद

समाज के विभिन्न तबकों के लिए भोजन के अधिकार को
लेकर काम कर रहे हम जैसे पंद्रह युवाओं का एक समूह पिछले हफ्ते कुछ सांसदों
से मिला। इसकी वजह थी, संशोधित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक पर उनसे
चर्चा करना और इसे बेहतर बनाने का प्रयास करना। हमने तकरीबन सौ से अधिक
सांसदों का दरवाजा खटखटाया, लेकिन उनमें से महज 20 सांसदों से ही मुलाकात
हो सकी। कई सांसद अपने निर्वाचन क्षेत्रों में या दिल्ली से बाहर कहीं और
थे, जबकि कई इतने ′व्यस्त′ या ′थके′ हुए थे कि उन्होंने हमसे मिलने से
इनकार कर दिया।
 
बहरहाल, सांसदों से मिलने
का हमारा अनुभव काफी निराशाजनक था। अधिकतर सांसद इस विधेयक से ही अनभिज्ञ
थे। लेकिन हमारी मुलाकात को विधेयक को जानने और इसकी कमियों को पहचानने के
एक अवसर के रूप में देखने के बजाय वे शब्दों की लफ्फाजी करते रहे, और ′हम
आपकी मांग संसद में उठाएंगे′ या ′यह वाकई शर्म की बात है कि स्वतंत्रता के
इतने वर्षों बाद भी देश में भुखमरी है′ जैसी बातें कहते रहे। कुछ सांसदों
ने इस मुद्दे को व्यापक बनाते हुए इसे तेलंगाना और कॉलेजों के ऊंचे होते
कट-ऑफ मार्क्स से भी जोड़ दिया, लेकिन विधेयक को किस तरह उबारा जा सकता है,
उस पर चुप्पी साध गए। कुछ सांसदों के तर्क थे कि संसद में इस विधेयक पर
चर्चा करने की कोई गुंजाइश नहीं है, लिहाजा हमारा उनसे बात करना ही बेमानी
है।
 
लब्बोलुआब यही है कि कुछ सांसदों ने ही
विधेयक की तथ्यात्मक गलतियों की बात की। इनमें एक त्रिपुरा से माकपा सांसद
थे, जिनका मानना था कि खाद्य सुरक्षा विधेयक मूलतः नकद हस्तांतरण से
संबंधित है और सिर्फ उन्हीं लोगों के लिए खाद्यान्न सुरक्षा सुनिश्चित
करेगा, जिन्हें सरकार नकद रुपया देने में असमर्थ रही है। भाजपा के सांसद
का, जो संसद की स्थायी कमिटी के सदस्य भी हैं, कहना था कि यह विधेयक
जनवितरण प्रणाली (पीडीएस) के दायरे को लेकर भ्रम पैदा करता है। हालांकि ये
दोनों सांसद इसे सुधारने के लिए आवाज उठाने को तैयार दिखे।
 
कुछ
सांसद इस विधेयक के प्रति आशान्वित थे। शिवसेना के एक सांसद ने कहा,
′मुझसे लिखित ले लें कि यह विधेयक पास नहीं होने वाला। पास होना तो दूर, यह
संसद में दोबारा पेश तक नहीं होगा। जब सरकार की ही इच्छा नहीं है, तो इस
पर संसद की मुहर कैसे लग सकती है।′ बात आगे बढ़ाते हुए उन्होंने यह भी कहा
कि कांग्रेस में सोनिया गांधी ही एकमात्र ऐसी नेता रही हैं, जिन्हें गरीबों
की चिंता है, लेकिन अब अपनी ही पार्टी में वह एक निराश अल्पसंख्यक बन गई
हैं। एक अन्य सांसद ने साफगोई से कहा, ′लोग सोचते हैं कि हम चूंकि संसद में
हैं, इसलिए हम बदलाव ला सकते हैं। लेकिन सच्चाई यही है कि हम पार्टी
संरचना में उलझे कैदी हैं- एक ऐसी पार्टी, जिसके कोर ग्रुप में सिर्फ छह
सदस्य होते हैं और हमें उनकी बातें माननी होती है।′
 
अधिकतर
सांसद इस विधेयक को लेकर हमारी मुख्य आपत्तियों को सुनने के बाद कुछ और/> सुनने को तैयार नहीं हुए। हमें कभी-कभार ही अपनी मुख्य मांगों के अलावा
सार्वभौमिक जनवितरण प्रणाली, जनवितरण प्रणाली की उच्च पात्रता और भोजन के
एवज में नकद हस्तांतरण में किए जाने वाले सुरक्षात्मक उपायों जैसे मुद्दों
पर बात करने का मौका मिला। चूंकि अधिकतर सांसदों को इस विधेयक की जानकारी
नहीं थी, इसलिए हमें अपनी मांग के खिलाफ कोई तर्क या चुनौतियों को लेकर
शायद ही कुछ सुनने को मिला। तमिलनाडु से ताल्लुक रखने वाले द्रमुक के एक
सांसद सार्वभौमिक जनवितरण प्रणाली से परिचित थे और पीडीएस का दायरा बढ़ाने
की हमारी मांग का उन्होंने समर्थन भी किया।
कुछ
सांसदों से मुलाकात के बाद हम आसानी से अनुमान लगा सकते थे कि उनका जवाब
क्या होगा। कांग्रेस के एक सांसद ने रटा-रटाया जवाब दिया कि उनकी पार्टी
विधेयक पास करवाना चाहती है, लेकिन विपक्ष इसमें अडं़गा लगा रहा है। ठीक
इसी तरह विपक्षी सांसदों की तरफ से हमें यही सुनने को मिला कि कांग्रेस
कितनी अयोग्य है।
 
इस विधेयक को लेकर जब एक
भाजपा सांसद और दो माकपा सांसदों से उनकी पार्टियों का रुख जानने का प्रयास
किया गया, तो उनका जवाब था कि वे इस विधेयक का विरोध करेंगी। हास्यास्पद
है कि भाजपा सांसद अपनी पार्टी के फैसले से ही अनभिज्ञ थे (हाल के एक
इंटरव्यू में राजनाथ सिंह ने कहा था कि उनकी पार्टी विधेयक का समर्थन
करेगी)। माकपा के दोनों सांसदों में से एक ने, जो केरल के थे, कहा, इस
विधेयक की आड़ में केंद्र राज्यवार किए जाने वाले खाद्यान्न वितरण की
मात्रा में कटौती करेगी। इससे तमिलनाडु, कर्नाटक और केरल जैसे राज्य
प्रभावित होंगे। हालांकि इस मामले में उनके पास गलत सूचना है। विगत फरवरी
में राज्य सरकारों के साथ विचार-विमर्श में यह तय किया गया था कि ′हानि
भुगतने वाले′ राज्यों के खाद्यान्न आवंटन में कोई कटौती नहीं की जाएगी।
 
ऐसे
में उम्मीद यही है कि संसदीय कार्यवाही के दौरान इस विधेयक के तमाम पहलू
से हमारे सांसद परिचित होंगे, यदि कार्यवाही सुचारू रूप से चली तब। अगर
हमारे सांसद इस विधेयक को पारित कराने के महत्व को नहीं समझ सके, तो देश अब
तक भूख से क्यों जूझ रहा है, इसके जिम्मेदार मुख्य रूप से वही होंगे।
व्यापक राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक ही देश के लाखों कमजोर लोगों के
रहन-सहन को बेहतर बना सकता है। दीगर है कि पहले भी महत्वपूर्ण मुद्दों पर
बहस करने के लिए संसद के कार्यकाल बढ़ाए गए हैं। क्या खाद्य सुरक्षा विधेयक
पर बहस करना वह महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं बन सकता, जिसके लिए वर्तमान सत्र
का कार्यकाल बढ़ाया जाए?
 
राष्ट्रीय खाद्य
सुरक्षा विधेयक ही देश के लाखों कमजोर लोगों के रहन-सहन को बेहतर बना सकता
है। दीगर है कि पहले भी महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहस के लिए संसद के
कार्यकाल बढ़ाए गए हैं। क्या खाद्य सुरक्षा विधेयक पर बहस करना वह मुद्दा
नहीं बन सकता, जिसके लिए वर्तमान सत्र का कार्यकाल बढ़ाया जाए?
व्यवस्था
अंकिता अग्रवाल
सामाजिक कार्यकर्ता

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