भूमि अधिग्रहण और स्त्रियां- मुस्कान

जनसत्ता 29 अप्रैल, 2013: भूमि अधिग्रहण (पुनर्वास और पुनर्स्थापन) विधेयक अब कानून बनने की दिशा में निर्णायक मोड़ पर आ चुका है। एक सौ सत्तासी संशोधनों के सुझावों के बाद अब अगर संसद में विधेयक पर मुहर लग जाती है तो एक तरफ जहां सरकार अपनी पीठ थपथपाएगी वहीं ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में जिनकी जमीनें अधिग्रहीत की जानी हैं, वे भी मुआवजा बढ़ने से शायद राहत महसूस करें। लेकिन देश की राजनीति और समाज में पितृसत्तामक सोच और लैंगिक पूर्वग्रह इस कदर हावी हैं कि विस्थापितों की आधी आबादी यानी महिलाओं का मुद््दा पूरी चर्चा से बिल्कुल गायब है। ऐसा लगता है, पूरी तरह से उन्हें पुरुष की आश्रिता या परिवार का एक गौण हिस्सा मान लिया गया है।


देश की राजनीति और नीति निर्माण प्रक्रिया में पुरुषवादी सोच का वर्चस्व जिस तरह कायम है यह उसकी एक बानगी भर है। आश्चर्य का विषय यह है कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, भाजपा की दिग्गज नेता सुषमा स्वराज, तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी और अन्य महिला राजनीतिज्ञों के होते हुए भी किसी के द्वारा प्रस्तावित विधेयक को महिलाओं के नजरिये से परखने की कोशिश नहीं की गई।

विस्थापन स्त्रियों को किस प्रकार प्रभावित करता है; उसके आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक आयाम क्या हैं; पुनर्वास के संबंध में उनकी क्या खास जरूरतें हैं; क्या नए कानून में उनके लिए भी कुछ खास प्रावधान किए जाने की जरूरत है; ये सवाल किसी की जुबान पर नहीं हैं। यह कैसा लोकतंत्र है जो स्त्रियों के प्रश्न पर मौन है? जो उन्हें पुरुष की छाया से अलग निजी सत्ता के रूप में मान्यता ही नहीं देता!

प्रस्तावित विधेयक की इस बात के लिए तारीफ जरूर की जा सकती है कि इसमें ‘प्रभावित कुटुंब’ की परिभाषा का विस्तार किया गया है और पहली बार मुआवजे के लिए विस्थापित महिलाओं को भी विचारणीय हकदार माना गया है। संपत्ति के लिए अधिसूचित स्त्रियां और पैतृक संपत्ति के लिए नामित स्त्रियां (मूलत: बेटियां) हकदार होंगी। यह प्रावधान संपत्ति अधिकार कानून में मिले बेटियों के हक से मेल खाता है। पर वहां व्यवहार में देखे जाने वाले अंतर्विरोध यहां भी अमल में अवरोध बन कर मौजूद रहेंगे।

इस प्रसंग में 1967 के टीएन सिंह फॉर्मूले को याद किया जा सकता है। इस फॉर्मूले में प्रत्येक विस्थापित परिवार के एक व्यक्ति को नौकरी देने की व्यवस्था की गई थी। लेकिन महिलाओं को विस्थापन के बाद रोजगार दिलाने में यह विफल सिद्ध हुआ था। आमतौर पर नौकरी परिवार के वयस्क बेटों को ही दी गई। जहां वयस्क बेटे नहीं थे, परिवार में व्याप्त रूढ़िगत सोच के परिणामस्वरूप पुनर्वास पैकेज के तहत मिलने वाली नौकरी दहेज के रूप में घर-जवाइयों को दे दी गई। यहां हम देखते हैं कि सरकार द्वारा दिया जाने वाला नौकरी का अवसर हालांकि स्त्री और पुरुष दोनों के लिए समान रूप से उपलब्ध था, पर निगरानी तंत्र के अभाव और रूढ़िगत संस्कारों के कारण स्त्री के लिए यह अवसर बेमतलब साबित हुआ।

इसलिए यह देखना जरूरी हो जाता है कि किन प्रावधानों के समावेश से नए भूमि अधिग्रहण कानून को लैंगिक आधारों पर भी न्यायपूर्ण बनाया जा सकता है। सरदारसरोवर बांध परियोजना के संदर्भ में किए गए शोधों से पता चलता है कि विस्थापन स्त्रियों के लिए पुरुषों की तुलना में ज्यादा तकलीफदेह साबित हुआ है। अपने मूल स्थान से उजड़ने के बाद महिलाएं आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और पारिवारिक, सभी स्तरों पर असहायता की स्थिति में आ गर्इं। अब तक के अनुभवों को देखते हुए सरकार को यह सीख लेनी चाहिए कि कैसे महिलाओं को विस्थापन के नकारात्मक प्रभावों से बाहर निकाला जाए।

भूमि अधिग्रहण विधेयक का लैंगिक दृष्टि से अध्ययन करने पर कुछ गंभीर समस्याएं दिखाई देती हैं, जिन पर ध्यान देना आवश्यक है।

एक है, भूमि के औपचारिक मालिकाना हक की समस्या। विस्थापन के बाद महिलाओं को मुआवजा मिलने में सबसे बड़ी बाधा भूमि के स्वामित्व को लेकर होती है। हमारे पितृसत्तात्मक समाज में, जहां भूमि संबंधी अधिकार प्रारंभ से ही पुरुष के पास रहे हैं, कितनी महिलाओं के पास जमीन की औपचारिक मालकियत होगी? इस स्थिति में एकल, तलाकशुदा और विधवा की स्थिति विशेष रूप से दयनीय हो जाती है। इनकी जमीन इनके पति, पिता या बेटे के नाम पर होने के कारण या तो इन्हें मुआवजा नहीं मिल पाता या फिर वे पूरी तरह से अधिकारियों की दया पर निर्भर हो जाती हैं। ऐसे में जरूरी है कि विधेयक में कुछ ऐसे प्रावधान किए जाएं जिससेमहिलाओं को मालिकाना हक की औपचारिकता संबंधी बाधाओं का सामना न करना पड़े।

दूसरी समस्या। विस्थापन से पहले स्थानीय प्राकृतिक संसाधन स्त्रियों की आजीविका के प्रमुख आधार होते हैं। जंगल, नदी, समुद्र आदि से प्राप्त उत्पाद जैसे लकड़ियां, गोंद, सीपियां, जड़ी-बूटियां, फल आदि बेच कर औरतें गुजारा करती हैं। विस्थापन उनके इस आर्थिक आधार को ध्वस्त कर देता है। यह आवश्यक है कि इस आर्थिक क्षति की भरपाई के प्रावधान किए जाएं।

तीसरी समस्या पुनर्वास संबंधी नीति निर्माण में महिलाओं की भागीदारी न होना है। गौरतलब है कि विधेयक में ‘सामाजिक समाघात निर्धारणह्ण के संदर्भ में एक समिति गठित करने का प्रावधान है। इस समिति में दो गैर-सरकारी समाजविज्ञानी, पुनर्स्थापन संबंधी दो विशेषज्ञ और परियोजना संबंधी तकनीकी विशेषज्ञ को रखा जाएगा। इसके अतिरिक्त इस विधेयक की धारा-आठ भी भूमि अधिग्रहण संबंधी प्रस्तावों और उनके संभावित सामाजिक परिणाम का जायजा लेने के लिए समिति के गठन की बात कहती है। इस समिति में वित्त, राजस्व, ग्रामीण विकास, सामाजिक न्याय, जनजाति कल्याण, पंचायती राज मंत्रालयों के सचिव सहित कुल नौ सदस्य होंगे।

लेकिन यहां गौरतलब है कि इन दोनों समितियों में महिला सदस्यों के लिए किसी प्रकार के आरक्षण की जरूरत महसूस नहीं की गई है। यहां तक कि दूसरी समिति में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के सचिव को शामिल करना भी जरूरी नहीं समझा गया है। ये सभी संकेत इसी बात के हैं कि आज भी महिलाओं को नीति निर्माण प्रक्रिया में शामिल होने योग्य नहीं समझा जाता। जबकि किसी भी कानून को लैंगिक भेदभाव से मुक्त रखने और लैंगिक आधार पर न्यायपूर्ण बनाने के लिए आवश्यक है कि कानून के नियोजन, प्रबंधन और क्रियान्वयन, तीनों ही स्तरों पर महिलाओं की सुनिश्चित भागीदारी हो।
चौथी समस्या मुआवजे के नकद धनराशि के रूप में दिए जाने से जुड़ी है। प्रस्तावित विधेयक को सकारात्मक रूप में देखेजानेका सबसे पुख्ता आधार यही है कि इसमें परियोजना से प्रभावित परिवारों को जमीन के बदले, पहले के मुकाबले काफी बढ़ा हुआ मुआवजा दिया जाएगा। ग्रामीण क्षेत्रों में बाजार भाव की चार गुनी और शहरी क्षेत्रों में बाजार भाव की दो गुनी धनराशि मुआवजे के रूप में देने की बात कही गई है। साथ ही परिवहन संबंधी खर्च के तौर पर पचास हजार रुपए की अतिरिक्त धनराशि। निश्चय ही यह एक सराहनीय प्रावधान है। पर इसका दूसरा पहलू भी है। अतीत के अनुभव बताते हैं कि नकद मुआवजा महिलाओं के लिए परेशानी और असुरक्षा का सबब भी बना है।

वास्तव में ग्रामीण और आदिवासी समुदायों के लोग इतनी बड़ी धनराशि संभालने के आदी नहीं होते। मुआवजे की राशि को वे जल्द ही अपनी तात्कालिक जरूरतों और अनुत्पादक कार्यों पर खर्च कर देते हैं। पैसा उनके हाथ से ऐसे निकल जाता है जैसे छलनी में से पानी। नतीजतन वे कुछ समय बाद फिर से गरीबी की अवस्था में आ जाते हैं। और चूंकि यह मुआवजा अधिकतर पुरुषों के ही हाथ में रहता है, महिलाएं चाह कर भी कुछ नहीं कर सकतीं। लिहाजा नए कानून में कुछ ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए जिससे मुआवजे की राशि परिवार में पति-पत्नी दोनों के नियंत्रण में आ सके। इससे जहां पुरुषों द्वारा धन के अनाप-शनाप खर्च पर रोक लगेगी, वहीं उनका भविष्य भी सुरक्षित हो सकेगा। इस संदर्भ में एनटीपीसी की पुनर्वास नीति के उस प्रावधान का जिक्र करना अत्यंत प्रासंगिक है जो मुआवजे की राशि को पति-पत्नी दोनों के संयुक्त बैंक खाते में जमा करने की व्यवस्था करता है।

पांचवीं समस्या विस्थापन के बाद स्त्रियों के रोजगार से संबंधित है। विस्थापन से पहले बड़ी संख्या में ग्रामीण और आदिवासी महिलाएं प्राकृतिक संसाधनों से प्राप्त उत्पाद- जैसे फल, लकड़ी, जड़ी-बूटियां, गोंद, सीपियां आदि- बेच कर और रस्सी, टोकरियां आदि बना कर अपनी आजीविका कमाती हैं। लेकिन विस्थापन के बाद नई जगह में उन्हें रोजगार के गंभीर संकट का सामना करना पड़ता है। पुनर्वास पैकेज में दी जाने वाली नौकरी पर पुरुषों का ही आधिपत्य होता है। स्त्रियों को काम देने में परियोजना प्राधिकरण कोई दिलचस्पी नहीं लेता और अगर परियोजना में उन्हें कोई काम मिल भी जाता है तो हकीकत यह है कि उन्हें पुरुषों के बराबर काम करने के बावजूद अपेक्षया कम मजदूरी मिलती है।
आलम यह होता है कि अपने परिवार की जरूरतें पूरी करने के लिए इन औरतों को सस्ते श्रम के रूप में घरेलू नौकरानी या दिहाड़ी मजदूर बनने के लिए मजबूर होना पड़ता है। इसलिए प्रस्तावित कानून में ऐसा प्रावधान किया जाए जो विस्थापित महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर सृजित कर सके। हालांकि कुछ परियोजनाओं में इनकी रोजगार संबंधी आवश्यकताओं के मद््देनजर इन्हें सिलाई, कढ़ाई, सूत कातने, फाइल बनाने जैसी गतिविधियों द्वारा रोजगार प्रदान करने की कोशिश की गई। पर ये कोशिशें बहुत नाकाफी रही हैं।

छठी समस्या नई जगह में बुनियादी सुविधाओं से जुड़ी होती है। अक्सर विस्थापन के बाद बुनियादी सुविधाओं का अभाव झेलना पड़ता है। सरदार सरोवर बांध परियोजना के संदर्भ में हुए शोध बताते हैं कि पुनर्वास स्थल में किस प्रकार पोषक आहार और चिकित्सीय सुविधाओं के अभावमें हजारों विस्थापित माताओं ने अपने शिशुओं को कोख में ही खो दिया और अनेक बच्चे पांच वर्ष के होते-होते मौत के मुंह में चले गए। अतीत के इन दुर्भाग्यपूर्ण अनुभवों को ध्यान में रखते हुए यह जरूरी है कि नए भूमि अधिग्रहण कानून द्वारा पुनर्वास स्थल में स्वच्छ पेयजल, पोषक आहार, चिकित्सा सुविधाओं, बिजली, स्कूल, आंगनबाड़ी आदि की अनिवार्य व्यवस्था की जाए।

हमारे नीति निर्माताओं की मुश्किल यह रही है कि वे मुख्यत: पुरुष-केंद्रित समाधान तैयार कर इसे सबके लिए उपयोगी और न्यायपूर्ण मान लेते हैं। ऐसे समाधानों की तुलना उन तथाकथित ‘सार्वजनिक’ खुले पेशाबघरों से की जा सकती है जो सड़कों के किनारे बने होते हैं। उन्हें नाम तो सार्वजनिक दे दिया जाता है, लेकिन अलग व्यवस्था न होने से औरतें इनका उपयोग नहीं कर पातीं। क्या नीति-निर्माता महिलाओं की यह पीड़ा महसूस नहीं कर सकते?

औपनिवेशिक जमाने में बने कानून के एक सौ उन्नीस बरस बाद भूमि अधिग्रहण संबंधीकानून नए सिरे से बनने जा रहा है तो यह उम्मीद क्यों न की जाए कि नया कानून लैंगिक पूर्वग्रह से मुक्त होगा। क्या यह कोई नाजायज मांग है?

 

 

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