नई दिल्ली। जेनरिक दवाएं गरीबों के लिए किसी वरदान से कम नहीं हैं। खासकर भारत जैसे विकासशील देश में इनकी अहमियत और हो जाती है, जहां गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली की बड़ी हिस्सेदारी है। दो जून की रोटी की जुगाड़ में लगे रहने वाले भारतीय परिवारों के कुल स्वास्थ्य पर खर्च का 72 फीसद केवल दवाओं के मद में जाता है।
क्या हैं जेनरिक दवाएं:
जब कोई दवा कंपनी किसी नई दवा का विकास करके उसे बाजार में उतारती है तो उस दवा का पेटेंट अपने नाम कराती है। यह पेटेंट उस कंपनी को आमतौर पर 20 साल के लिए दिया जाता है। इस समयावधि के बीतने पर यह पेटेंट अधिकार समाप्त हो जाता है और तब कोई भी दूसरी दवा कंपनी हूबहू इसी रसायन वाली दवा का निर्माण कर सकती है।
हालांकि बाजार में दवा को उसके रासायनिक या जेनरिक नाम से बेचा जाता है। उदाहरण के लिए एंटी डायबिटीज दवा ग्लूकोफेज पर मूल पेटेंट ब्रिस्टल मायर्स एसक्विब ने लिया था।
अब यह अपने रासायनिक अवयव मेटामॉरफिन नाम से एक जेनरिक दवा के रूप में बेची जा रही है। इसके समतुल्य ब्रांडेड दवाएं मेट-500, मेटाफोर और जोमैट हैं।
प्रकार:
जेनरिक दवाएं मुख्यत: दो संस्करणों के तहत बाजार में उतारी जाती हैं। पहले के तहत वे दवाएं आती हैं, जिन्हें उनके रासायनिक संरचना या जेनरिक नाम से बेचा जाता है। जैसे पैरासिटामॉल। दूसरे प्रकार के तहत वे जेनरिक दवाएं हैं, जिन्हें दवा निर्माताओं द्वारा उनके ब्रांड नाम से बेचा जाता है। एक हजार से ज्यादा संख्या में दवा कंपनियां पैरासिटामॉल को विभिन्न नामों के तहत बेचती हैं। कोई इसे क्रोसीन तो कोई ल्युपीसुलाइड कहता है।
सस्ती होने का मर्म:
जेनरिक दवा को बनाना और बेचना कंपनियों के लिए बहुत महंगा सौदा नहीं होता है। जिसके चलते इन दवाओं की कीमतें अपेक्षाकृत सस्ती होती हैं। जेनरिक दवाओं के निर्माताओं को इनके शोध व विकास, मार्केटिंग और विज्ञापन पर धन नहीं खर्च करना होता है। ब्रांडेड कंपनियों को अपनी दवाओं के शोध से लेकर विज्ञापन तक पर बेशुमार पैसा बहाना पड़ता है, जिसके चलते ब्रांडेड दवाओं की कीमतें महंगी होती हैं।
जेनरिक दवाओं की औसत कीमत ब्रांडेड की तुलना में 80-85 फीसद कम होती है।
लोकप्रिय पैरासिटामॉल ब्रांड के दस टैबलेट वाले एक पत्ते की कीमत दस रुपये है, जबकि इसके जेनरिक संस्करण की कीमत 2.45 रुपये प्रति पत्ता है।
कौन बना सकता है?
कोई भी दवा निर्माता कंपनी किसी भी दवा के जेनरिक संस्करण तैयार कर सकती है। इसके लिए उसे ड्रग कंट्रोलिंग अथॉरिटी से अनुमति लेनी होती है। सिपला, डॉ रेड्डी व रैनबैक्सी जैसी प्रमुख जेनरिक दवा निर्माता कंपनियां हैं।
गुणवत्ता पर असर:
जेनरिक दवा किसी ब्रांडेड दवा जैसी ही होती है। इसकी रासायनिक संरचना, खुराक, सुरक्षा, क्षमता में कोई अंतर नहीं होता।
व्यापकता:
जेनरिक दवाएं करीब सभी रोगों के लिए उपलब्ध हैं। इनमें एचआइवी, कुष्ठ, डायबिटीज, हृदय संबंधी रोग, मलेरिया, टीबी व कैंसर भी शामिल हैं।
प्राप्ति स्थान:
अधिकांश मेडिकल स्टोर पर ये उपलब्ध हैं। इसके अलावा केंद्र सरकार द्वारा चलाए जा रहे जन औषधि केंद्रों पर भी ये मिलती हैं।
हैरतअंगेज:
भारत दुनिया में जेनरिक दवाओं का सबसे बड़ा निर्यातक है। यह अमेरिका,
यूरोप, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे उच्च नियंत्रित बाजारों सहित 200 से ज्यादा देशों मेंइन दवाओं का निर्यात करता है।
-हालांकि देश में जेनरिक दवा बाजार की हिस्सेदारी अभी 40 फीसद से भी कम है। आज भी ब्रांडेड दवाओं का बाजार पर आधिपत्य है।
-देश में जेनरिक दवाओं के कम इस्तेमाल के पीछे कई वजहें हैं। एक तो लोगों में सामान्य अवधारणा बन चुकी है कि सस्ती दवाएं कारगर नहीं होतीं दूसरा डॉक्टर भी इन्हें लिखने से परहेज करते हैं।
-अमेरिका में डॉक्टरों द्वारा सुझाई गई
दवाओं में करीब 80 फीसद और ब्रिटेन में 82 फीसद जेनरिक दवाओं की हिस्सेदारी है।