जनसत्ता 23 मार्च, 2013: भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू ने पत्रकारों की योग्यता मापने के पैमाने तय करने के जिन उपायों की बात की है उनसे स्वाभाविक ही विवाद पैदा हो गया है। उनके अव्यावहारिक नुस्खों से किसी भी तरह सहमत नहीं हुआ जा सकता। पत्रकारिता में आई गिरावट के लिए जिन चीजों को वे जिम्मेदार बता रहे हैं, उन्हीं से पता चलता है कि वे समस्या को सही ढंग से देख पाने में विफल रहे हैं और इसीलिए सुधार का उनका एजेंडा भी उतना ही दोषपूर्ण हो गया है। पत्रकारों की कुशलता और पेशे को लेकर उनकी प्रतिबद्धता में कमी की वजह सिर्फ उनका डिग्रीधारी न होना नहीं है।
सचाई यह है कि न्यूनतम योग्यता यानी कम से कम स्नातक होना अघोषित रूप से मीडिया में पहले से ही निर्धारित है और अच्छे प्रशिक्षण संस्थानों से पत्रकारिता में हासिल डिग्रियों को भी पर्याप्त महत्त्व दिया जाता है। लेकिन इससे गुणवत्ता की गारंटी नहीं मिलती, क्योंकि अव्वल तो डिग्रियां योग्यता के निर्धारण का पैमाना अब नहीं रहीं, क्योंकि वे हासिल कम की जा रही हैं, बंट ज्यादा रही हैं। दूसरे, अच्छा पत्रकार बनने के लिए डिग्री और प्रशिक्षण भर काफी नहीं होता। उसके लिए कई और गुण महत्त्वपूर्ण और आवश्यक होते हैं। इसीलिए कई बार बिना डिग्री या औपचारिक प्रशिक्षण वाले लोग कहीं बेहतर पत्रकार सिद्ध होते हैं।
पत्रकार जन्मजात होते हैं या बनाए जा सकते हैं, यह बहस पुरानी और बेकार है। नियतिवादी लोग ही जन्मजात प्रतिभा की अवधारणा के पैरोकार होते हैं, अन्यथा औपचारिक या अनौपचारिक शिक्षा के जरिए ही लोग कोई कौशल अर्जित करते हैं। इसमें परिवार और आसपास का वातावरण अहम भूमिका निभाता है। फिर समय के साथ चीजें भी बदलती हैं जैसे पत्रकारिता बदली है। कभी भाषा पर अधिकार और समाजसेवा की भावना ही पत्रकार बनने के लिए पर्याप्त योग्यता मान ली जाती थी। मगर बदले हुए परिवेश में आज की पत्रकारिता की मांग इससे कहीं अलग और ज्यादा है। पत्रकारिता के विभिन्न रूप सामने आ गए हैं। इसमें तकनीकी पक्ष की भूमिका भी बहुत बढ़ गई है। खासतौर पर टेलीविजन पत्रकारिता में।
हालांकि पत्रकारिता के मूल उपकरण वही हैं, मगर उनको नए संदर्भों में इस्तेमाल करने की दिशा में व्यवस्थित प्रशिक्षण मददगार साबित होता है। पत्रकारिता ही क्यों, कला, सिनेमा, संगीत, नाटक आदि के क्षेत्र में भी प्रशिक्षण अहम भूमिका निभा रहा है। लिहाजा, अगर प्रशिक्षण के जरिए भावी पत्रकारों को बेहतर ढंग से तैयार किया जा सकता है तो इसमें एतराज नहीं होना चाहिए और न ही इसे हेय दृष्टि से देखना चाहिए। लिहाजा, प्रशिक्षण के स्तर की बात जरूर उठाई जानी चाहिए और न्यायमूर्ति काटजू यही नहीं कर रहे हैं। उनका जोर पढ़ाई और प्रशिक्षण से ज्यादा डिग्रियों पर है।
अगर उन्हें लग रहा है कि अप्रशिक्षित पत्रकारों की वजह से पत्रकारिता का यह हाल हुआ है तो सबसे पहला काम तो उसी मोर्चे पर किया जाना चाहिए। वे पत्रकारिता के पाठ्यक्रम और प्रशिक्षण को सुधारने की मुहिम चलाएं। यही नहीं, कार्यरत पत्रकारों के कौशल को निखारने के लिए मीडिया संस्थानों के साथ मिलकर प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाने की कोशिश होनी चाहिए। अगर वे ऐसा करेंगे तो लोग उनका विरोध नहीं, स्वागत करेंगे।
वास्तव में पत्रकारों का प्रशिक्षण या उनकी न्यूनतम योग्यता, समस्या का केवल एक पक्ष है। यह उस समस्या का समाधान नहीं है, जिसे लेकर काटजू परेशान नजर आते हैं। दूसरा पक्ष इससे कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण और शक्तिशाली है कि समूचा मीडिया, बाजार से प्रेरित-संचालित हो गया है। पिछले ढाई दशकों में बाजार के हावी हो जाने की वजह से जो वातावरण बना है, उसमें अच्छी चीजों की कद्र ही नहीं रह गई है। मीडिया का असीमित-अव्यवस्थित विस्तार और अंधी प्रतिस्पर्धा ने गुणवत्ता को कहीं पीछे धकेल दिया है। अधिकतर मीडिया संस्थानों की नीतियां बाजार से निर्देशित होती हैं और मुक्त बाजार-व्यवस्था में इसे स्वाभाविक और जायज भी माना जाता है।
यही वजह है कि सबसे बड़े मीडिया संस्थान का प्रबंध निदेशक खुलेआम कहता है कि वह खबरों के नहीं, विज्ञापन के कारोबार में है और न काटजू, न प्रेस परिषद पलट कर यह कहती है कि क्यों न आपको दिए लाइसेंस रद्द कर दिए जाएं या क्यों न मीडिया के नाम पर मिलने वाली सहूलियतें आपसे छीन ली जाएं, क्योंकि आपकी प्रतिबद्धता समाचारों और पत्रकारिता के साथ रह ही नहीं गई है। ऐसा करने का साहस उनमें नहीं है, किसी में भी नहीं है। यानी संकट यह है कि समस्या की जड़ पर प्रहार करने के लिए कोई तैयार नहीं है और गुस्सा या खीझ उन चीजों पर उतारी जा रही है, जो कम जिम्मेदार हैं। हालत यह है कि मर्ज कुछ और है और इलाज कुछ और बताया जा रहा है। फर्ज कीजिए कि अगर काटजू के हिसाब से सारे पत्रकार डिग्रीधारी हो जाएं यानी न्यूनतम योग्यता साबित कर दें तो क्या पत्रकारिता की हालत बेहतर हो जाएगी?
इससे भी एक कदम आगे बढ़ कर अगर कहें कि उन्हें अच्छी तरह प्रशिक्षित भी कर दिया जाए तो क्या वह परिवर्तन मीडिया में दिखने लगेगा, जिसकी हम अपेक्षा करते हैं? निश्चय ही इससे फर्क तो पड़ेगा, मगर हमारा मानना है कि अगर कोई ऐसा सोचता है तो वह भ्रमों का शिकार है।
पहली बात तो यह कि अधिकतर पत्रकार नाकाबिल नहीं हैंऔर अच्छा काम करने की ललक और दक्षता वाले पत्रकारों की संख्या भी ठीक-ठाक है। दिक्कत यह है कि मीडिया को हल्का-फुल्का और मनोरंजक बनाने के क्रम में काबिल पत्रकारों को हाशिये पर डाल दिया गया है। उनका कोई उपयोग ही नहीं हो रहा और इसके उलट उनकी पूछ-परख बढ़ गई है, जो टेबलॉयड पत्रकारिता के गुर जानते हैं।
ये पत्रकार भूत-प्रेत, बाबा, ज्योतिष, क्रिकेट, बॉलीवुड, कॉमेडी, अपराध आदि की ऐसी सामग्री तैयार करने में महारत रखते हैं, जो लोकप्रियता के मामले में रामबाण साबित हो। लोकप्रियता मतलब बाजार के नजरिए से सफलता, जिसे विज्ञापन में तब्दील करके लाभ कमाया जाता है। लोकप्रियता के इसी खेल ने संपादक नाम की संस्था या तो खत्म कर दी है या फिर उसे बेहद कमजोर कर दिया है। एक ऐसा रीढ़विहीन संपादक गढ़ दिया गया है, जो प्रबंधन के साथ मिल कर लक्षित पाठक-दर्शक वर्ग के हिसाब सेबाजारके लिए उत्पादों का निर्माण कर रहा है। पत्रकारिता तो छोड़िए, इस संपादक-वर्ग को दर्शक, समाज और देश का भी खयाल नहीं रह जाता। थोड़े-थोड़े अंतराल पर पैदा किए जाने वाले उन्माद इसके उदाहरण हैं।
दूसरे, पत्रकारिता के व्यवसाय में भले अब थोड़ा ज्यादा धन दिखने लगा हो, मगर पत्रकार असुरक्षित हो गए हैं। उनको कभी भी दरवाजा दिखाया जा सकता है। हाल के वर्षों में एक ही झटके में पचासों लोगों को सड़क पर फेंक देने के बीसियों उदाहरण हमारे सामने हैं। उनके लिए कहीं से कोई संरक्षण नहीं है। पत्रकार और कर्मचारी संगठन हैं नहीं और अगर हैं तो बेहद कमजोर। ऐसे में असुरक्षाबोध से त्रस्त पत्रकार हर तरह के समझौते करने को मजबूर हो जाते हैं।
टेलीविजन पत्रकारिता में तो यह समस्या और गंभीर है। जाहिर है, ऐसे प्रतिकूल वातावरण में उनके सामने नौकरी के बजाय पत्रकारिता को तरजीह देना बहुत बड़ी चुनौती बन जाता है। कहने का मतलब यह कि पत्रकारों की समस्याओं को नजरअंदाज करके पत्रकारिता को ठीक करने के बारे में सोचना ही गलत है।
सवाल है कि क्या काटजू बड़ी तस्वीर को देख पा रहे हैं? क्या उन्होंने यह समझने की कोशिश की है कि मीडिया का ऐसा चरित्र क्यों बन गया है? कौन-सी आर्थिक ताकतें हैं, जिन्होंने मीडिया को एक खास रूप दे दिया है और उसका अपने उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल कर रही हैं? क्या उन्होंने अकेले मीडियाकर्मियों और मीडिया को निशाना बनाने से पहले उस न्याय-व्यवस्था की बीमारियों की पहचान की, जहां उन्होंने अपनी जिंदगी का अधिकतर हिस्सा गुजारा है?
डिग्रियों और लाइसेंस व्यवस्था की वजह से क्या न्याय-व्यवस्था का स्तर बेहतर रहा है? अगर उन्होंने इन सवालों पर गौर किया होता तो शायद उनकी प्रतिक्रिया कुछ और होती और वे समाधान के नए रास्ते तलाशने की बात करते। या क्या पता वे इन चीजों को भली-भांति समझते हों, मगर इनके बारे में बात करना राजनीतिक रूप से खतरनाक मानते हों।
वैसे काटजू साहब को मालूम होना चाहिए कि मीडिया के गिरते स्तर को लेकर केवल वही चिंतित नहीं हैं। पूरी पत्रकारिता और बौद्धिक बिरादरी इससे दुखी और पीड़ित है। इसके प्रमाण पत्र-पत्रिकाओं में छपे लेख और हजारों की संख्या में हुई सभा-संगोष्ठियां हैं, जहां तमाम तरह की दुष्प्रवृत्तियों की घोर निंदा-भर्त्सना होती रही है। यह और बात है कि मीडिया संस्थानों द्वारा कान बंद कर लिए जाने की वजह से यह अब एक तरह का अरण्यरोदन बन कर रह गया है। बाजार की ताकतें इतनी मजबूत हैं कि उनके सामने किसी की नहीं चल पा रही। ध्यान देने की बात यह भी है कि हिंदुस्तान ही नहीं, विश्व भर में मीडिया का यही हाल है।
हर जगह मीडिया पर सनसनी और मनोरंजनवाद का बोलबाला है। भ्रष्टाचार की महामारी भी इसी की देन है। सर्वाधिक स्वतंत्र और जिम्मेदार कहे जाने वाले ब्रिटिश मीडिया की जैसी कड़ी आलोचना वहां के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति लेवसन ने कुछ समय पहले रूपर्ट मर्डोक की पत्रिका ‘न्यूज आॅफ द वर्ल्ड’ के संदर्भ में की थी, वह अपने आप में एक मिसाल है।
दरअसल, काटजू की मुश्किल यहहै कि वे काम कम कर रहे हैं, बोल ज्यादा रहे हैं। इस बीच उन्होंने कई ऐसे प्रश्न उठाए, जो बहुत वाजिब और जरूरी हैं। लेकिन उनके बयानों से पैदा हुए विवादों के शोर में वे खो गए हैं। उन्होंने बहुत से लोगों को यह आरोप लगाने का मौका भी दिया है कि वे सरकार के इशारे पर ऐसा कर रहे हैं और उनकी मुहिम का उद्देश्य मीडिया को नाथना है। अगर वे थोड़ा सतर्कता से बात करते और ज्यादा से ज्यादा लोगों को साथ लेकर चलने की कोशिश करते तो मीडिया का ज्यादा भला कर पाते। लेकिन लगता है कि उनके अंदर बैठा न्यायाधीश फैसला सुनाने को बेचैन रहता है और जल्दबाजी में गलत फैसले सुना बैठता है।
दरअसल, पत्रकारिता में गिरावट को रोकने के लिए एक समग्र योजना की आवश्यकता है। इसका सबसे प्रमुख लक्ष्य यह होना चाहिए कि मीडिया पर बाजार और सरकार दोनों के दबाव को कैसे कम किया और उसे पाठकों-दर्शकों के प्रति जवाबदेह बनाया जा सके। स्वतंत्र नियामक संस्था के गठन से लेकर टीआरपी के दुश्चक्र को तोड़ने तक के उपाय इसमें शामिल होने चाहिए। लेकिन सवाल है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधेगा? कौन है जो बाजार के पैरोकारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नकली जिहादियों से टकराने का साहस दिखाएगा?