जनसत्ता 22 मार्च, 2013: भाषा के प्रश्न को राजनीति के पुरोधाओं ने इस देश का रिसता नासूर बना दिया। संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा संबंधी नियमावली में संशोधन ने उस नासूर में फिर नश्तर लगा दिया। गांधीजी जानते थे कि भाषा का सवाल इस मुल्क की दुखती रग हमेशा बना रहेगा। शायद इसीलिए उन्होंने 1909 में ‘हिंद स्वराज’ में अपने स्वभाव के बरखिलाफ सख्त चेतावनी दी थी कि अंग्रेजो, अगर तुम्हें इस देश में रहना है तो हमारी भाषा में बात करनी होगी। हमारी भाषा हिंदी/हिंदुस्तानी है। हिंदी केवल हिंदी नहीं थी बल्कि उसमें सारी भारतीय भाषाओं की गरिमा समाई थी।
यही वजह है कि पूरा देश समान संवेदना के तार में बंधा है। लेकिन गांधी के जाने के बाद उनके ही अनुयायियों ने, जिनमें जवाहरलाल जी सर्वोपरि थे, इस सवाल को लाइलाज मर्ज में बदल दिया। वे नहीं समझ सके या समझना नहीं चाहा कि गांधी ने क्यों कांग्रेस में 1985 से चली आ रही अंग्रेजी प्रधान भाषा-सभ्यता को बदल कर, हिंदी और भारतीय भाषाओं को आजादी की लड़ाई की भाषा बनाया और जन-मानस ने उसे स्वीकार किया।
यह गुलामी के जमाने में एक ऐसी कठिन उपलब्धि थी जिसकी कल्पना करना मुश्किल था। 1936 में मैकाले द्वारा व्यक्त किए गए उस मत का विरोध इसी तरह संभव था। उसने कहा था अगर किसी देश की संस्कृति को खत्म करना है तो उसकी भाषा को नष्ट करो यानी बिगाड़ो। जनमानस ने गांधी के मंतव्य को समझ लिया था लेकिन सत्ता-निष्ठ उनके अनुयायी समझ कर भी समझ नहीं सके। सत्ता में आते ही मैकाले द्वारा दिए गुरु-मंत्र को फिर से व्यावहारिक रूप देने में लग गए। हिंदी की राह बाधित करने के लिए जिस प्रकार की रणनीति बनाई उसे तत्कालीन हिंदी समर्थक भी नहीं समझ पाए।
संसद के द्वारा यह कानून बनवा कर अंग्रेजी को स्थानापन्न राष्ट्रभाषा बना दिया कि जब तक एक भी राज्य विरोध करेगा, हिंदी राष्ट्रभाषा नहीं बनेगी। राष्ट्रभाषा के सवाल को सदा के लिए दफना दिया। हिंदी और अंग्रेजी दोनों संपर्क भाषाएं रहेंगी। हिंदी का दर्जा राजभाषा का होगा। इससे दो बातें हुर्इं। एक तो गैर-हिंदी भाषाओं को एकजुट कर दिया, फलत: उन्होंने अंग्रेजी को संपर्क भाषा मान लिया। हिंदी को संपर्क भाषा न स्वीकार करके हमने भारतीय भाषाओं की गरिमा को कम किया। राजभाषा बना कर उसके प्रचार-प्रसार के लिए धन, शायद तीन सौ करोड़ रुपयों का आबंटन, भाषाओं के बीच वैमनस्य का कारण बनना स्वाभाविक था। उसी ने गैर-हिंदी भाषाओं को हिंदी के खिलाफ एकजुट करने में मदद की। हिंदी प्रदेश का कुलीन कहा जाने वाला अंग्रेजी सत्तापोषित वर्ग भी अपनी अलग पहचान बनाए रखने की गरज से अंग्रेजी को संपर्क भाषा मानने वालों में शामिल हो गया।
हिंदी की बात छोड़ दें, दूसरी भाषाएं भी अंग्रेजी के वर्चस्व से अंदर ही अंदर त्रस्त हैं। भले ही वे व्यावसायिक और प्रशासनिक वर्चस्व बनाए रखने की गरज से खामोश हों। लगभग दो साल पहले ‘मातृभूमि’ अखबार के कार्यालय में गांधीजी के जाने के सौ वर्ष पूरे होने पर आयोजित एक कार्यक्रम में मुख्य अतिथि होकर गया था। तब वहां के पत्रकारों ने मुझसे कहा था कि मलयालम पचीसवर्ष में खत्म हो जाएगी। इस बात को सुन कर चौंक गया था।
इतनी समृद्ध और जीवंत भाषा कैसे समाप्त हो सकती है? एक सज्जन ने बड़ी तकलीफ के साथ कहा कि हमारे बच्चे अंग्रेजी में बोलना स्टेटस सिंबल यानी सम्मान का प्रतीक समझने लगे हैं। मैंने कहा, यही स्थिति हमारे यहां भी है। वे लोग बोले, आपके यहां हिंदी गांव तक पहुंची हुई है इसलिए उसे खतरा नहीं। हमारे यहां अब अंग्रेजी प्रदेश के हर कोने में पहुंच गई है।
यह लगभग सभी द्रविड़ भाषाओं के साथ हुआ है। तभी उस तमिलनाडु में, जो हिंदी के मुकाबले अंग्रेजी को प्रश्रय देता था, आज अंग्रेजी का विरोध पनप रहा है; लोक सेवा आयोग के नए प्रस्ताव के विरोध में एक दूसरे के विरुद्ध रहने वाले दोनों प्रमुख दल एक मत हैं, भले ही वे मुखर न हों।
भाषा के संस्कार का क्षय होना किसी भाषाभाषी के लिए उतना दुखदायी होता है जितना किसी बच्चे को छोड़ कर मां का अनायास चले जाना। यह बात कोई माने या न माने अंतर्वेदना कहीं न कहीं, कभी न कभी सालती है। हम हिंदी वाले भले ही हिंदी को वैश्विक भाषा बनाने के लिए, उसके रूप संवर्धन के लिए अपनी-अपनी दलीलें दे रहे हों, पर वे भाषा की संवेदना को भाषा से अलग कर पाएंगे मैं ऐसा नहीं सोचता। मैं जानता हूं कि संस्कृत को संस्कृत-पंडितों ने ही उसके चारों ओर चौका खींच कर समाज से दूर किया लेकिन हिंदी के सामने वैसा खतरा नहीं। प्रशासनिक खतरा है। आजादी के बाद से हिंदी और भारतीय भाषाएं लगातार इस खतरे को झेल रही हैं।
श रद यादव ने संसद में संघ लोक सेवा में अंग्रेजी को अनिवार्य बनाने के संदर्भ में जो कहा कि ‘वे सभी भारतीय भाषाओं को दे डंडा, दे डंडा बरबाद करने पर तुले हैं’ वह वास्तविकता है। जिस डंडे का शरद यादव ने जिक्र किया वह सरकारी डंडा है। विदेशी डंडे ने संभवत: इतना नहीं पीटा जितना आजादी के बाद यह डंडा हिंदी और भारतीय भाषाओं पर पुलिसिया डंडे की तरह सक्रिय है। सांस ही नहीं लेने दे रहा। हर राज्य बच्चों को अंग्रेजी पढ़ा कर सभ्य और अंतरराष्ट्रीय बनाने पर उतारू है। केंद्र सरकार सबसे आगे है।
लोक सेवा आयोग ने पहले ही प्रारंभिक परीक्षा में सब भाषाओं को दरकिनार करके तीस नंबरों का अंग्रेजी का प्रश्न अनिवार्य कर दिया था। यह अपनी भाषाओं के माध्यम से पढ़ने वाले बच्चों के लिए हतोत्साह करने वाला परिवर्तन था। इसका विरोध हुआ था, पर उनके कान पर जूं तक नहीं रेंगी। जनता सरकार के जमाने में प्रधानमंत्री मोरारजी भाई देसाई ने स्वयं पहल करके, लोक सेवा आयोग के विरोध के बावजूद, निर्णय लिया था कि आयोग की परीक्षा पहले हिंदी में और फिर सब भारतीय भाषाओं में आरंभ करने की तैयारी तत्कालीन प्रभाव से शुरू की जाए।
उसी का नतीजा था कि उत्तर भारत के उन क्षेत्रों के बच्चे भी सिविल सेवाओं में आने लगे जो मातृभाषाओं में पढेÞ होते थे। लालू प्रसाद यादव ने ठीक कहा कि अंग्रेजी का सौ अंकों का अनिवार्य परचे का प्रावधान ऐसे बच्चों के लिए सिविल सेवाकेदरवाजे बंद कर देगा। उनकी तकलीफ को वे ही समझ सकते हैं जिनकी बिवाई का कारण मातृभाषा को बना दिया गया है, जबकि आजाद देश में मातृभाषा शक्ति होनी चाहिए थी।
सवाल पैदा होता है कि आखिर संघ लोक सेवा आयोग किस तरह का प्रशासन देश को देना चाहता है। पहले ही हमारे देश की नौकरशाही सामान्य आदमी से अलग-थलग है। पुराने आइसीएस अधिकारियों का चयन कैसे होता था इसके बारे में मुझे किसी ने बताया था कि साक्षात्कार के समय एक प्रत्याशी से कहा गया, खिड़की का दरवाजा बंद कर दो। उसने स्वयं उठ कर दरवाजा बंद कर दिया। अगले लड़के से भी यही कहा गया। उसने मेज पर रखी घंटी बजाई, चपरासी आया और उससे कहा खिड़की बंद करो। वह शासकीय पद के लिए उपयुक्त समझ कर चुन लिया गया। वह बच्चा किसी आइसीएस का था।
ब्रिटिश सरकार की नौकरशाही हुकूमत के लिए थी, उसका काम भेड़ों को घेरना और मनमानी दिशा में चलाना था। वह तभी संभव हो सकता था जब लोग उनकी बोली को अपनी बोली मानें। आजादी के बाद भी हमारी अफसरशाही को उन्हीं की बोली समझ में आती है। इसलिए आज भी वे सेवा की जगह हुकूमत को मूल्य समझते हैं। यही बात उन्होंने अपने को जनसेवक मानने वाले नेताओं को समझा दी है।
सरकार ने संसद में हुए विरोध के चलते संघ लोक सेवा आयोग की भर्ती परीक्षा में सौ अंकों की अंग्रेजी अनिवार्यता को फिलहाल भले ही स्थगित कर दिया हो लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि अंग्रेजी को सेवाओं में लाने का इरादा खत्म हो गया।
सरकार ने इसकी शुरुआत तीस अंकों की अंग्रेजी अनिवार्य करके की थी। उसमें सफल हो जाने के बाद अब सौ अंकों की अंग्रेजी को अनिवार्य करने का दांव चला। दरअसल, राष्ट्रभक्तों का स्थान सत्ताभक्तों ने ले लिया। सत्ता का चरित्र अलग होता है। वह अपने को विशिष्ट बनाने के लिए अलग औजार बनाती है। भाषा एक ऐसा औजार है जो उसे सामान्य से विशिष्ट बनाने में बहुत बड़ा योगदान देती है। इसलिए शासन में बैठे अंग्रेजी के दत्तक पुत्र सर्प की तरह फिर पलटेंगे और अंग्रेजी के इस विष को फिर किसी दूसरी सिरिंज से रक्त में प्रवेश कराएंगे। हिंदी या भारतीय भाषाओं की बात करने वालों के प्रति उनके मन में गहरा विकर्षण है।
मुझे पूर्व वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी की बात याद आती है कि हिंदी न जानने वाला इस देश का प्रधानमंत्री नहीं बन सकता। यह बात देश के भद्रलोक को सालती है। भद्रलोक अंग्रेजीदां है। प्रथम प्रधानमंत्री के जमाने से ही देश को अंग्रेजीमय बनाने का अभियान जारी है। जिस तरह अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की बाढ़ आई वह अनायास नहीं हुआ। सरकार का हाथ भी है और सहमति भी।
अंग्रेजी पढ़ना गलत नहीं, अंग्रेजियत का गुमान होना बुरा है। गुमान अपनी जमीन से काट देता है। अंग्रेजियत के अभियान में डॉ लोहिया, लालबहादुर शास्त्री और मोरारजी जैसे लोग बाधक रहे। हिंदी प्रदेश का अंग्रेजीदां अंग्रेजियत का सबसे बड़ा समर्थक था। सब राज्यों में दुकानदार अपने नामपट अपनी मातृभाषा और अंग्रेजी में लगाते हैं लेकिन हिंदी प्रदेशों में ज्यादातर केवल अंग्रेजी में लगाए जाते हैं।डॉ लोहिया के, 60-62 में, अंग्रेजी हटाओ आंदोलन के तहत दुकानों के नामपट काले करने का अभियान चलाने के पीछे यही सोच था कि बच्चे जब अपनी भाषा का प्रचार-प्रसार जगह-जगह देखेंगे तो वे अपनी भाषा से जुड़ेंगे। इस अभियान का विरोध सरकार की तरफ से हुआ। प्रचार के स्तर पर भी और प्रताड़ना के अवसर पर भी। आज जो लोग हिंदी के समर्थक हैं वे हाशिए पर हैं। लेकिन कब तक?
जब भारतीय भाषाओं पर अंग्रेजी का दबाव इतना बढ़ जाएगा कि उनकी पहचान खतरे में पड़ जाएगी तो अन्य भारतीय भाषाएं स्वत: हिंदी के साथ मिल कर अपनी पहचान की लड़ाई लड़ेंगी। किसी भी समाज की सबसे बड़ी पहचान उसकी भाषा ही होती है। सरकार के ये पहचान विरोधी तरीके स्वत: ऐसी स्थितियां पैदा कर रहे हैं। मुलायम सिंह ने कहा था कि हम दूसरे प्रदेशों की सरकारों को उनकी भाषा में संबोधित करेंगे, दूसरी भाषाएं भी इस भाषाई सद्भाव का अनुपालन करें। यह बात किसी की समझ में नहीं आई। उस भाषाई सद्भाव को लाने का तरीका निकाला कि लोक सेवा में अंग्रेजीदां ले आओ, सब समस्याएं सुलझ जाएंगी। जल में चमक रहे चांद को चांद समझ कर क्या असली चांद को झुठलाया जा सकता है!