जनसत्ता 18 जनवरी, 2013: स्त्री की हिफाजत, हैसियत, बराबरी के किसी मुद्दे
पर इतना बड़ा तूफान भारतीय समाज में शायद पहले कभी न खड़ा हुआ हो।
दिल्ली में ही लोग सड़कों पर नहीं उतरे, मणिपुर, जम्मू, चेन्नै से लेकर
मुंबई, कोलकाता आदि शहरों में भी आक्रोश और पश्चाताप के अलग-अलग स्वर सुनने
को मिले। हमारी सामाजिक गिरावट की विडंबना का एक नमूना यह भी रहा कि फिजा
में फैली फांसी की मांग के बावजूद लगभग देश के हर शहर और गांव से बलात्कार
की खबरें भी लगातार आती रहीं। इस पूरे जायज शोर के बीच दो आवाजों को
साफ-साफ सुना जा सकता है। एक, अपराधियों की सजा क्या फांसी होनी चाहिए और
दूसरी कि हमारी पुलिस ऐसी निकम्मी, बर्बर क्यों है, यानी जितना कठघरे में
बलात्कारी रखे जा रहे हैं वैसा ही कठघरा पुलिस-व्यवस्था के लिए।
पुलिस
पर चारों तरफ से इतना शिकंजा कसा जा रहा है कि कम से कम दिल्ली में तो
फिलहाल उसकी चौकसी और चुस्ती चारों तरफ दिख रही है। पिछले पखवाड़े रात के
किसी भी पहर में जब भी दिल्ली की सड़कों से गुजरना हुआ पुलिस के सिपाही पूरे
चौकन्नेपन से तैनात थे। कई अवरोध लगाए हुए। एक-एक वाहन और आदमी की जांच
करते हुए। नीली-लाल बत्ती टिमटिमाती पीसीआर वैन भी घने कोहरे के बीच दिखाई
दीं। ऐसे बुरे दिनों की याद दिलाती, जो किसी शहर में दंगा होने पर होता है।
याद कीजिए, दिल्ली में बीते दिसंबर के ये दिन पिछले पचास साल के सबसे सर्द
दिन भी रहे हैं।
दामिनी कांड में जो बर्बरता देखी गई उसके लिए कोई भी
सजा कम है और उसी अनुपात में पुलिस व्यवस्था को भी सजा मिलनी चाहिए।
क्योंकि इन्हीं अपराधों को रोकने के लिए तो पुलिस को नौकरी मिली है और आप
मेरे थाने-तेरे थाने की बहस में उलझे हैं। संवेदन शून्यता की बर्बर मिसाल।
हालांकि वह समाज भी कम अपराधी नहीं है, खासकर वे अमीर बड़ी-बड़ी कारों वाले,
जो घायलों के लाख गुहार लगाने के बावजूद तमाशाई बने आते और जाते रहे।
मगर
इस संदर्भ में चारों तरफ से गरियाए जा रहे पुलिस के सिपाहियों की
सहानुभूति में दो शब्द जरूर कहना चाहता हूं। लगभग दस वर्ष पहले की बात
होगी, जनवरी के महीने में आपातकाल जैसी स्थिति में जनपथ के पास आना हुआ।
छब्बीस जनवरी की तैयारियां जोरों पर थीं। रात के दो बजे सिपाही जहां-तहां
खड़े थे चुस्त, चौकस। कुरेदने पर उन्होंने बताया कि रात की ऐसी ड्यूटी में
उन्हें न कभी पानी मिलता है, न चाय। कई बार तो शौचालय जाने के लिए भी
परेशान हो उठते हैं। पुलिस के ये सिपाही यह मान कर संतोष कर लेते हैं कि
कश्मीर की पोस्टिंग से तो दिल्ली की पोस्टिंग आसान ही है। सियाचिन या दूसरी
सीमाओं पर तैनात जवानों से तो लाख गुना अच्छी।
रात में ड्यूटी कर रहे
पीसीआर वैन के सिपाही भी बताते हैं कि कई बार तो लगातार अड़तालीस घंटे की
ड्यूटी देनी पड़ती है। क्या हमने इनकी इन कठिन स्थितियों की तरफ सोचा, जो
धीरे-धीरे इन्हें अमानवीय बनाती जाती हैं। आपने अखबारों में पढ़ाहोगा कि
झारखंड, छत्तीसगढ़ और दूसरे नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में तैनात अर्धसैनिक
बलों के हजारों जवान इन्हीं स्थितियों से भाग कर स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले
रहे हैं।
एक अनुमान के अनुसार पिछले दो वर्षों में लगभग पचास हजार
लोगों ने नौकरी छोड़ी है। कारण जो सामने आए, वे हैं- एक तरफ नक्सलवादी
हमलों, बारूदी सुरंगों का डर और दूसरी तरफ इन जंगलों में कभी पचास डिग्री
तक का तापमान, तो कभी भयानक सर्दी। मलेरिया, डेंगू और दूसरी बीमारियों का
आतंक अलग। हजारों मील घर-परिवार से दूर जब इन्हें जायज छुट्टियों की मनाही
कर दी जाती है तो ऐसे मामले भी लगातार आ रहे हैं कि वे अवसाद और निराशा में
अपने ही सहकर्मी या अधिकारी पर गोली चला देते हैं। जिन सिपाहियों की पूरी
उम्र ऐसे अन्यायों को सहते हुए बीती हो उनसे पश्चिमी मानदंडों के अनुरूप
मानवीय गरिमा और व्यवहार की उम्मीद करना क्या कुछ ज्यादती नहीं है।
आइए
इस बात की भी जांच करें कि आखिर कौन लोग हैं जो सिपाही की नौकरी में भर्ती
होते हैं या होना चाहते हैं। ये समाज के सबसे गरीब तबके के लोग हैं। खुदा
के लिए इनके जाति-विश्लेषण पर मत जाइए, जैसा कि पिछले दिनों कई रंगों के
बुद्धिजीवी अपने-अपने स्वार्थों से कर रहे हैं। पुलिस की नौकरी में कोई
अमीर, खाते-पीते परिवार का बच्चा नहीं जाता। गरीबी ही इनकी जाति है। आप कोई
भी सर्वेक्षण और आंकड़े उपलब्ध करा लीजिए इनमें से लगभग शत-प्रतिशत देश के
अलग-अलग सरकारी स्कूलों में पढ़े हैं। कम फीस वाले सरकारी स्कूलों की तारीफ
की जानी चाहिए कि कम से कम इन्हें शिक्षा की रोशनी तो मिली, जिसके बूते वे
आज शासन में शामिल हैं। प्राइवेट स्कूल की फीस तो इनके मां-बाप दे भी नहीं
सकते थे। हां, सरकारी स्कूलों में कुछ बातें इन्होंने जरूर देखीं या स्कूल
परिवेश से सीखी हैं।
क्या सरकारी स्कूल, अस्पताल, पोस्ट आॅफिस में लोग
समय से पहुंचते हैं? पत्रकार पी साईनाथ की दर्जनों रिपोर्टें और हम सबके
अनुभव बताते हैं कि उत्तर प्रदेश, बिहार के स्कूलों में ऐसे भी मामले हैं,
जहां सिर्फ तनख्वाह के लिए महीने में एकाध बार शिक्षक आते हैं। कभी आए भी
तो बच्चों को डांटने या मिड-डे मील बांट कर चले गए। सरकारी संस्थानों से
शुरू हुई ये बीमारियां देश के विश्वविद्यालयों तक में हैं।
एक पूर्व शिक्षा सचिव ने बीस वर्ष पहले
लिखा था: मुश्किल से चालीस-पचास प्रतिशत अध्यापक दिल्ली विश्वविद्यालय में
नियमित रूप से पढ़ाने आते हैं। निस्संदेह किसी घायल को देर से पहुंचाना या
मेरे थाने, तेरे थाने की बहस में उलझना अक्षम्य अपराध है। लेकिन अपने काम
के प्रति लापरवाही तो उसने इसी समाज से सीखी है।
वर्तमान दलित, सवर्ण
विमर्श में क्या संस्थानों की कार्यकुशलता और उनकी मानवीय चिंताओं को आपने
पिछले बीस सालों में कभी महसूस किया! लगता है कि सभी ने निकम्मेपन के आगे
आत्मसमर्पण कर दिया है और यहीं निजी क्षेत्र प्रवेश पा रहा है। निजी स्कूल
हों या अस्पताल, डाक-विभाग, बीमा, सफाई, एअरलाइंस आदि कोई भी। कहीं ऐसा तो
नहीं कि पुलिस-व्यवस्था को इतना बदनाम कर दिया जाए कि यहां भीनिजीक्षेत्र
की गुंजाइश बन जाए। दिल्ली और दूसरे महानगरों में फैले हजारों
अपार्टमेंटों, कारखानों के लिए तो निजी सुरक्षा-व्यवस्था आ ही गई है। वे
दिन दूर नहीं जब शहर या महानगर भी किसी निजी सुरक्षा एजेंसी को सौंप दिए
जाएं।
मैं दिल्ली में पिछले तीस वर्ष से हूं। धीरे-धीरे मैं भी सतह से
उठते आदमी की तर्ज पर बेरोजगार, अर्ध बेरोजगार, निम्नवर्ग से होता हुआ शायद
अब उच्च मध्यवर्ग में शामिल हो चुका हूं। इस बीच सभी दोस्त, दुश्मन दिल्ली
के ही हैं।
मुझे नहीं याद कि हमारे सैकड़ों दोस्तों में से किसी का
बेटा-बेटी पुलिस या अर्धसैनिक बल में कांस्टेबल की नौकरी में भर्ती हुआ हो।
वे पत्रकार, सेक्रेटरी, प्रोफेसर, संपादक, एनजीओ या सरकार के किसी भी पद
पर जाति, धर्म के आधार पर अधिकार मांगते नजर आएंगे। पुलिस या सेना के इन
छोटे पदों पर कतई नहीं।
कौन जाना चाहता है इन पदों पर! इन्हीं में से
दर्जनों रोज रात की ड्यूटी करते हुए दिल्ली के अमीरों की बड़ी गाड़ियों से
सड़कों पर कुचल दिए जाते हैं। अमीर हुंकारते हुए कहते हैं, ‘हमें नियम बता
रहा है पुलिस का फड््डा।’ शायद ही हमारे किसी रिश्तेदार, दोस्त के बेटे का
सिर सीमा के अंदर या सीमा पार काटा गया हो, तो इनके पक्ष में कौन बोलेगा।
कई
पुलिस आयोगों की बड़ी-बड़ी सिफारिशों के बावजूद इनकी बुनियादी सुविधाओं और
पदोन्नति आदि के मुद्दे पर शायद ही कोई ध्यान दिया गया है। तीस-पैंतीस साल
पहले उत्तर प्रदेश पुलिस में एक मित्र ने सब इंस्पेक्टर की नौकरी शुरू की
थी। मेधावी, स्वस्थ नौजवान था, जिसे 1972 में छब्बीस जनवरी की परेड में
शामिल होने के लिए चुना गया था। 1978 में नौकरी शुरू होने के वक्त भी वह
सब-इंस्पेक्टर था और आज भी। उसकी नौकरी पूरे उत्तर प्रदेश में गाजियाबाद से
गाजीपुर तक घूमती रही। बच्चे कभी गांव में, कभी साथ। बच्चों की पढ़ाई भी
बिखरी-बिखरी। उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों की दुर्व्यवस्था में पदोन्नतियां
और दूसरे मसले जाति और धर्म पर ज्यादा निर्धारित होते हैं, बजाय किसी
वस्तुनिष्ठ परीक्षा या पैमाने के।
मैं पांच वर्ष वडोदरा में था। वहां
कानून-व्यवस्था की हकीकत दिखाने के बहाने मैंने कई बार उसे दशहरा पर्व के
दौरान, जब गुजरात गरबा के पूरे शबाब पर होता है, बुलाना चाहा, मगर हर बार
उसका जवाब होता- दशहरा, दीवाली, होली पर तो हमें कभी छुट््टी नहीं मिल
सकती। जब दिल्ली या दूसरे शहरों का वह मध्यवर्ग अपने परिवार वालों के साथ
दशहरा, जन्मदिन, नववर्ष मना रहा होता है, तब ये पुलिस के सिपाही या सैनिक
कड़ी सर्दी में समाज और सीमाओं की रक्षा कर रहे होते हैं। और अगर गलती से
कोई गुनाह हो जाए तो मानवाधिकार कार्यकर्ताओं से लेकर पूरा देश उनके खिलाफ
हो जाता है। यहां तक कि कई बार ऐसे गुनाहों को छिपाने के लिए ये भी वैसे ही
भ्रष्ट तरीकों का सहारा लेते हैं। दो दशक पहले एक पुलिस वाले का बयान छपा
था कि हम सबसे पैसे लेते हैं, लेकिन हमें कभी-कभी पत्रकारों को देने पड़ते
हैं खबरों को दबाने के लिए।
हाल ही में पश्चिमी उत्तर प्रदेशमें एक
दिन एक नौजवान आईपीएस के साथ बिताने का सुयोग हुआ। रुड़की आइआइटी से निकला
यह नौजवान पूरे उत्साह में तो जरूर था, लेकिन इस उम्मीद के साथ कि दो साल
के अंदर दिल्ली में प्रतिनियुक्ति मिल जाएंगी। यहां बहुत दिनों तक आप काम
नहीं कर सकते। उसके दो निष्कर्ष बहुत नोकदार थे। एक यह कि किसी अमीर रसूख
वाले गुंडे को कोई सजा नहीं होती। उसके जानने वाले राजनीतिक नेता पहले ही
हमारे हाथ बांध देते हैं और दूसरे कि मैं गांव के आदमियों को बहुत भोला
समझता था, लेकिन मुझे तो अब भी किसी ईमानदार की तलाश है। उनके सामने या
पड़ोस में कत्ल हुआ है। लेकिन वे साफ कह देते हैं कि हमने कुछ नहीं देखा।
ऐसे में आप सच का साक्ष्य कहां से लाएंगे!
उसने एक लड़की की हत्या का
मामला विस्तार से बताया। पिता ने रिपोर्ट दर्ज कराई कि मेरी बेटी की हत्या
हुई है। अगले दिन तक कुछ समझौता हो गया तो कहा कि पुलिस ने दबाव में मुझसे
दस्तखत कराए थे। हम सबको पता है कि कम से कम हिंदीभाषी राज्यों में पुलिस
एफआइआर क्यों दर्ज नहीं करती, क्योंकि हर सत्ता का आदेश यही होता है कि वह
राष्ट्रीय स्तर पर उसकी कानून-व्यवस्था की पोल उजागर न होने दे।
मौजूदा
विमर्श में अगर इस पक्ष पर ध्यान नहीं दिया गया तो हम वहीं खड़े रहेंगे,
जहां सौ साल पहले थे। पुलिस है तो आखिर इसी समाज का हिस्सा। उसी का आईना।
पर इतना बड़ा तूफान भारतीय समाज में शायद पहले कभी न खड़ा हुआ हो।
दिल्ली में ही लोग सड़कों पर नहीं उतरे, मणिपुर, जम्मू, चेन्नै से लेकर
मुंबई, कोलकाता आदि शहरों में भी आक्रोश और पश्चाताप के अलग-अलग स्वर सुनने
को मिले। हमारी सामाजिक गिरावट की विडंबना का एक नमूना यह भी रहा कि फिजा
में फैली फांसी की मांग के बावजूद लगभग देश के हर शहर और गांव से बलात्कार
की खबरें भी लगातार आती रहीं। इस पूरे जायज शोर के बीच दो आवाजों को
साफ-साफ सुना जा सकता है। एक, अपराधियों की सजा क्या फांसी होनी चाहिए और
दूसरी कि हमारी पुलिस ऐसी निकम्मी, बर्बर क्यों है, यानी जितना कठघरे में
बलात्कारी रखे जा रहे हैं वैसा ही कठघरा पुलिस-व्यवस्था के लिए।
पुलिस
पर चारों तरफ से इतना शिकंजा कसा जा रहा है कि कम से कम दिल्ली में तो
फिलहाल उसकी चौकसी और चुस्ती चारों तरफ दिख रही है। पिछले पखवाड़े रात के
किसी भी पहर में जब भी दिल्ली की सड़कों से गुजरना हुआ पुलिस के सिपाही पूरे
चौकन्नेपन से तैनात थे। कई अवरोध लगाए हुए। एक-एक वाहन और आदमी की जांच
करते हुए। नीली-लाल बत्ती टिमटिमाती पीसीआर वैन भी घने कोहरे के बीच दिखाई
दीं। ऐसे बुरे दिनों की याद दिलाती, जो किसी शहर में दंगा होने पर होता है।
याद कीजिए, दिल्ली में बीते दिसंबर के ये दिन पिछले पचास साल के सबसे सर्द
दिन भी रहे हैं।
दामिनी कांड में जो बर्बरता देखी गई उसके लिए कोई भी
सजा कम है और उसी अनुपात में पुलिस व्यवस्था को भी सजा मिलनी चाहिए।
क्योंकि इन्हीं अपराधों को रोकने के लिए तो पुलिस को नौकरी मिली है और आप
मेरे थाने-तेरे थाने की बहस में उलझे हैं। संवेदन शून्यता की बर्बर मिसाल।
हालांकि वह समाज भी कम अपराधी नहीं है, खासकर वे अमीर बड़ी-बड़ी कारों वाले,
जो घायलों के लाख गुहार लगाने के बावजूद तमाशाई बने आते और जाते रहे।
मगर
इस संदर्भ में चारों तरफ से गरियाए जा रहे पुलिस के सिपाहियों की
सहानुभूति में दो शब्द जरूर कहना चाहता हूं। लगभग दस वर्ष पहले की बात
होगी, जनवरी के महीने में आपातकाल जैसी स्थिति में जनपथ के पास आना हुआ।
छब्बीस जनवरी की तैयारियां जोरों पर थीं। रात के दो बजे सिपाही जहां-तहां
खड़े थे चुस्त, चौकस। कुरेदने पर उन्होंने बताया कि रात की ऐसी ड्यूटी में
उन्हें न कभी पानी मिलता है, न चाय। कई बार तो शौचालय जाने के लिए भी
परेशान हो उठते हैं। पुलिस के ये सिपाही यह मान कर संतोष कर लेते हैं कि
कश्मीर की पोस्टिंग से तो दिल्ली की पोस्टिंग आसान ही है। सियाचिन या दूसरी
सीमाओं पर तैनात जवानों से तो लाख गुना अच्छी।
रात में ड्यूटी कर रहे
पीसीआर वैन के सिपाही भी बताते हैं कि कई बार तो लगातार अड़तालीस घंटे की
ड्यूटी देनी पड़ती है। क्या हमने इनकी इन कठिन स्थितियों की तरफ सोचा, जो
धीरे-धीरे इन्हें अमानवीय बनाती जाती हैं। आपने अखबारों में पढ़ाहोगा कि
झारखंड, छत्तीसगढ़ और दूसरे नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में तैनात अर्धसैनिक
बलों के हजारों जवान इन्हीं स्थितियों से भाग कर स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले
रहे हैं।
एक अनुमान के अनुसार पिछले दो वर्षों में लगभग पचास हजार
लोगों ने नौकरी छोड़ी है। कारण जो सामने आए, वे हैं- एक तरफ नक्सलवादी
हमलों, बारूदी सुरंगों का डर और दूसरी तरफ इन जंगलों में कभी पचास डिग्री
तक का तापमान, तो कभी भयानक सर्दी। मलेरिया, डेंगू और दूसरी बीमारियों का
आतंक अलग। हजारों मील घर-परिवार से दूर जब इन्हें जायज छुट्टियों की मनाही
कर दी जाती है तो ऐसे मामले भी लगातार आ रहे हैं कि वे अवसाद और निराशा में
अपने ही सहकर्मी या अधिकारी पर गोली चला देते हैं। जिन सिपाहियों की पूरी
उम्र ऐसे अन्यायों को सहते हुए बीती हो उनसे पश्चिमी मानदंडों के अनुरूप
मानवीय गरिमा और व्यवहार की उम्मीद करना क्या कुछ ज्यादती नहीं है।
आइए
इस बात की भी जांच करें कि आखिर कौन लोग हैं जो सिपाही की नौकरी में भर्ती
होते हैं या होना चाहते हैं। ये समाज के सबसे गरीब तबके के लोग हैं। खुदा
के लिए इनके जाति-विश्लेषण पर मत जाइए, जैसा कि पिछले दिनों कई रंगों के
बुद्धिजीवी अपने-अपने स्वार्थों से कर रहे हैं। पुलिस की नौकरी में कोई
अमीर, खाते-पीते परिवार का बच्चा नहीं जाता। गरीबी ही इनकी जाति है। आप कोई
भी सर्वेक्षण और आंकड़े उपलब्ध करा लीजिए इनमें से लगभग शत-प्रतिशत देश के
अलग-अलग सरकारी स्कूलों में पढ़े हैं। कम फीस वाले सरकारी स्कूलों की तारीफ
की जानी चाहिए कि कम से कम इन्हें शिक्षा की रोशनी तो मिली, जिसके बूते वे
आज शासन में शामिल हैं। प्राइवेट स्कूल की फीस तो इनके मां-बाप दे भी नहीं
सकते थे। हां, सरकारी स्कूलों में कुछ बातें इन्होंने जरूर देखीं या स्कूल
परिवेश से सीखी हैं।
क्या सरकारी स्कूल, अस्पताल, पोस्ट आॅफिस में लोग
समय से पहुंचते हैं? पत्रकार पी साईनाथ की दर्जनों रिपोर्टें और हम सबके
अनुभव बताते हैं कि उत्तर प्रदेश, बिहार के स्कूलों में ऐसे भी मामले हैं,
जहां सिर्फ तनख्वाह के लिए महीने में एकाध बार शिक्षक आते हैं। कभी आए भी
तो बच्चों को डांटने या मिड-डे मील बांट कर चले गए। सरकारी संस्थानों से
शुरू हुई ये बीमारियां देश के विश्वविद्यालयों तक में हैं।
एक पूर्व शिक्षा सचिव ने बीस वर्ष पहले
लिखा था: मुश्किल से चालीस-पचास प्रतिशत अध्यापक दिल्ली विश्वविद्यालय में
नियमित रूप से पढ़ाने आते हैं। निस्संदेह किसी घायल को देर से पहुंचाना या
मेरे थाने, तेरे थाने की बहस में उलझना अक्षम्य अपराध है। लेकिन अपने काम
के प्रति लापरवाही तो उसने इसी समाज से सीखी है।
वर्तमान दलित, सवर्ण
विमर्श में क्या संस्थानों की कार्यकुशलता और उनकी मानवीय चिंताओं को आपने
पिछले बीस सालों में कभी महसूस किया! लगता है कि सभी ने निकम्मेपन के आगे
आत्मसमर्पण कर दिया है और यहीं निजी क्षेत्र प्रवेश पा रहा है। निजी स्कूल
हों या अस्पताल, डाक-विभाग, बीमा, सफाई, एअरलाइंस आदि कोई भी। कहीं ऐसा तो
नहीं कि पुलिस-व्यवस्था को इतना बदनाम कर दिया जाए कि यहां भीनिजीक्षेत्र
की गुंजाइश बन जाए। दिल्ली और दूसरे महानगरों में फैले हजारों
अपार्टमेंटों, कारखानों के लिए तो निजी सुरक्षा-व्यवस्था आ ही गई है। वे
दिन दूर नहीं जब शहर या महानगर भी किसी निजी सुरक्षा एजेंसी को सौंप दिए
जाएं।
मैं दिल्ली में पिछले तीस वर्ष से हूं। धीरे-धीरे मैं भी सतह से
उठते आदमी की तर्ज पर बेरोजगार, अर्ध बेरोजगार, निम्नवर्ग से होता हुआ शायद
अब उच्च मध्यवर्ग में शामिल हो चुका हूं। इस बीच सभी दोस्त, दुश्मन दिल्ली
के ही हैं।
मुझे नहीं याद कि हमारे सैकड़ों दोस्तों में से किसी का
बेटा-बेटी पुलिस या अर्धसैनिक बल में कांस्टेबल की नौकरी में भर्ती हुआ हो।
वे पत्रकार, सेक्रेटरी, प्रोफेसर, संपादक, एनजीओ या सरकार के किसी भी पद
पर जाति, धर्म के आधार पर अधिकार मांगते नजर आएंगे। पुलिस या सेना के इन
छोटे पदों पर कतई नहीं।
कौन जाना चाहता है इन पदों पर! इन्हीं में से
दर्जनों रोज रात की ड्यूटी करते हुए दिल्ली के अमीरों की बड़ी गाड़ियों से
सड़कों पर कुचल दिए जाते हैं। अमीर हुंकारते हुए कहते हैं, ‘हमें नियम बता
रहा है पुलिस का फड््डा।’ शायद ही हमारे किसी रिश्तेदार, दोस्त के बेटे का
सिर सीमा के अंदर या सीमा पार काटा गया हो, तो इनके पक्ष में कौन बोलेगा।
कई
पुलिस आयोगों की बड़ी-बड़ी सिफारिशों के बावजूद इनकी बुनियादी सुविधाओं और
पदोन्नति आदि के मुद्दे पर शायद ही कोई ध्यान दिया गया है। तीस-पैंतीस साल
पहले उत्तर प्रदेश पुलिस में एक मित्र ने सब इंस्पेक्टर की नौकरी शुरू की
थी। मेधावी, स्वस्थ नौजवान था, जिसे 1972 में छब्बीस जनवरी की परेड में
शामिल होने के लिए चुना गया था। 1978 में नौकरी शुरू होने के वक्त भी वह
सब-इंस्पेक्टर था और आज भी। उसकी नौकरी पूरे उत्तर प्रदेश में गाजियाबाद से
गाजीपुर तक घूमती रही। बच्चे कभी गांव में, कभी साथ। बच्चों की पढ़ाई भी
बिखरी-बिखरी। उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों की दुर्व्यवस्था में पदोन्नतियां
और दूसरे मसले जाति और धर्म पर ज्यादा निर्धारित होते हैं, बजाय किसी
वस्तुनिष्ठ परीक्षा या पैमाने के।
मैं पांच वर्ष वडोदरा में था। वहां
कानून-व्यवस्था की हकीकत दिखाने के बहाने मैंने कई बार उसे दशहरा पर्व के
दौरान, जब गुजरात गरबा के पूरे शबाब पर होता है, बुलाना चाहा, मगर हर बार
उसका जवाब होता- दशहरा, दीवाली, होली पर तो हमें कभी छुट््टी नहीं मिल
सकती। जब दिल्ली या दूसरे शहरों का वह मध्यवर्ग अपने परिवार वालों के साथ
दशहरा, जन्मदिन, नववर्ष मना रहा होता है, तब ये पुलिस के सिपाही या सैनिक
कड़ी सर्दी में समाज और सीमाओं की रक्षा कर रहे होते हैं। और अगर गलती से
कोई गुनाह हो जाए तो मानवाधिकार कार्यकर्ताओं से लेकर पूरा देश उनके खिलाफ
हो जाता है। यहां तक कि कई बार ऐसे गुनाहों को छिपाने के लिए ये भी वैसे ही
भ्रष्ट तरीकों का सहारा लेते हैं। दो दशक पहले एक पुलिस वाले का बयान छपा
था कि हम सबसे पैसे लेते हैं, लेकिन हमें कभी-कभी पत्रकारों को देने पड़ते
हैं खबरों को दबाने के लिए।
हाल ही में पश्चिमी उत्तर प्रदेशमें एक
दिन एक नौजवान आईपीएस के साथ बिताने का सुयोग हुआ। रुड़की आइआइटी से निकला
यह नौजवान पूरे उत्साह में तो जरूर था, लेकिन इस उम्मीद के साथ कि दो साल
के अंदर दिल्ली में प्रतिनियुक्ति मिल जाएंगी। यहां बहुत दिनों तक आप काम
नहीं कर सकते। उसके दो निष्कर्ष बहुत नोकदार थे। एक यह कि किसी अमीर रसूख
वाले गुंडे को कोई सजा नहीं होती। उसके जानने वाले राजनीतिक नेता पहले ही
हमारे हाथ बांध देते हैं और दूसरे कि मैं गांव के आदमियों को बहुत भोला
समझता था, लेकिन मुझे तो अब भी किसी ईमानदार की तलाश है। उनके सामने या
पड़ोस में कत्ल हुआ है। लेकिन वे साफ कह देते हैं कि हमने कुछ नहीं देखा।
ऐसे में आप सच का साक्ष्य कहां से लाएंगे!
उसने एक लड़की की हत्या का
मामला विस्तार से बताया। पिता ने रिपोर्ट दर्ज कराई कि मेरी बेटी की हत्या
हुई है। अगले दिन तक कुछ समझौता हो गया तो कहा कि पुलिस ने दबाव में मुझसे
दस्तखत कराए थे। हम सबको पता है कि कम से कम हिंदीभाषी राज्यों में पुलिस
एफआइआर क्यों दर्ज नहीं करती, क्योंकि हर सत्ता का आदेश यही होता है कि वह
राष्ट्रीय स्तर पर उसकी कानून-व्यवस्था की पोल उजागर न होने दे।
मौजूदा
विमर्श में अगर इस पक्ष पर ध्यान नहीं दिया गया तो हम वहीं खड़े रहेंगे,
जहां सौ साल पहले थे। पुलिस है तो आखिर इसी समाज का हिस्सा। उसी का आईना।