आसान नहीं है किशोर अपराधियों की आयु सीमा में बदलाव

अनिल बंसल, नई दिल्ली। राजधानी में चलती बस में युवती के साथ हुई सामूहिक
बलात्कार की वारदात के बाद किशोर अपराधियों की उम्र घटाने की मांग सामने आई
है।
आरोपियों में एक किशोर भी है जिसके लिए पुलिस ने अपने आरोप पत्र में अदालत
से फांसी की मांग नहीं की है।
मौजूदा कानूनों के मुताबिक 18 साल से कम
उम्र के बालक को किशोर की श्रेणी में रखा जाता है। ऐसे किशोर अपराधियों को
दूसरे अपराधियों के साथ जेलों में नहीं रखा जाता। पर दिल्ली की घटना के बाद
सुझाव आए हैं कि कानून बदल कर इस किशोर आरोपी को भी अदालत से फांसी की सजा
दिलाई जाए। पुलिस के मुताबिक युवती पर सबसे ज्यादा जुल्म इसी किशोर ने
ढाया था।
दरअसल किशोर किसे मानें, इसका फैसला संयुक्त राष्ट्र पहले ही
कर चुका है। पहले चौदह वर्ष तक के बच्चों को ही किशोर की श्रेणी में रखा
जाता था। विभिन्न देशों में किशोर वय तय करने के अपने अलग अलग तौर-तरीके
थे। लेकिन संयुक्त राष्ट्र ने गहन विचार-विमर्श के बाद किशोर के लिए उम्र
सीमा बढ़ा कर 18 साल की थी। चूंकि संयुक्त राष्ट्र में बच्चों के प्रति
प्रतिबद्धता वाले प्रोटोकाल पर भारत भी हस्ताक्षर कर चुका है, लिहाजा किशोर
की उम्र 18 से घटाकर 16 करना संयुक्त राष्ट्र के प्रोटोकाल का उल्लंघन
होगा।
किशोर अपराधियों के लिए बनाई गई जेलों को सरकार ने बाल सुधार गृह
नाम दिया है। इनके खिलाफ आपराधिक मुकदमों की सुनवाई भी सामान्य अदालतें
नहीं करतीं। इसके लिए कानून में किशोर न्याय बोर्ड के गठन की व्यवस्था है।
ऐसे बोर्ड में प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट को अध्यक्ष और दो सामाजिक
कार्यकर्ताओं को सदस्य बनाए जाने का प्रावधान है। तीनों मिलकर ही मुकदमों
की सुनवाई और दोषी पाए जाने पर दंड का फैसला सुनाते हैं। पर प्रोटोकाल के
हिसाब से किसी किशोर अपराधी को फांसी की सजा नहीं दी जा सकती। भले उसने
फांसी वाला अपराध यानी किसी का कत्ल भी क्यों न किया हो।
सुप्रीम कोर्ट
ने पिछले हफ्ते ही बाल अधिकार आयोग गठित नहीं करने पर 19 राज्यों से
जवाब-तलब किया था। बच्चों के अधिकारों और उनके संरक्षण से संबंधित कानून के
तहत ये आयोग गठित किए जाते हैं। इसके लिए 2005 में राष्ट्रीय स्तर पर संसद ने कानून बनाया
था। राज्यों में उसी कानून के तहत अलग-अलग आयोगों की स्थापना का प्रावधान
है। आयोगों के अभाव में बच्चों को अपने अधिकारों से वंचित रहना पड़ रहा है।
संयुक्त राष्ट्र अपने सभी सदस्य देशों से अपेक्षा करता है कि वे बाल आयोग
बना कर उन्हें मानवाधिकार आयोग जैसे अधिकार दें। वाजपेयी सरकार के दौरान
बाल अधिकार संरक्षण आयोग का जो विधेयक बनाया था उसमें बाल आयोग में भी
मानवाधिकार आयोग की तरह ही सुप्रीम कोर्ट जज को राष्ट्रीय अध्यक्ष और
राज्यों के आयोग में हाईकोर्ट जज को अध्यक्ष बनाने की व्यवस्था की गई थी।
पर यह विधेयक पारित नहीं हो पाया। बाद में यूपीए सरकार ने विधेयक में बदलाव
कर बाल आयोगों में जजों की जगह राजनीतिकों तक की नियुक्ति का प्रावधान कर
दिया। ऐसे आयोगों के लिए अबबच्चों के क्षेत्र में काम करने का अनुभव रखने
वाला कोई भी व्यक्ति अध्यक्ष और सदस्य के लिए पात्र है।
अफसोस की बात
है कि बाल अधिकार संरक्षण आयोग को सूचना का अधिकार आयोग जैसी हैसियत नहीं
दी गई है। राष्ट्रीय बाल आयोग की नियमावली में हालांकि अध्यक्ष को कैबिनेट
सचिव के बराबर दर्जा और वेतन दिए जाने का प्रावधान है पर राज्यों ने अपने
यहां बाल आयोगों के अध्यक्षों को दर्जा तो अपने मुख्य सचिव के बराबर दे
दिया पर नियुक्ति सुपात्रों की जगह राजनीतिकों की कर दी। कई जगह तो यह
जिम्मा आईएएस अफसर ही संभाल रहे हैं यानी स्वतंत्र संस्था के बजाय ये आयोग
सरकारी विभाग में तब्दील हो गए हैं। इन आयोगों को बाल संरक्षण में लापरवाही
करने वाले सरकारी अधिकारियों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई करने का भी कोई
अधिकार नहीं है।        
नियमानुसार किशोर न्याय बोर्ड और बाल कल्याण
समितियों की महीने में कम से कम बारह बैठकें जरूर होनी चाहिए। इनके सदस्यों
के लिए कानून में पांच सौ रुपए प्रति बैठक के मानदेय का प्रावधान है। पर
ज्यादातर राज्यों ने इस मानदेय में भी मनमाने तरीके से कटौती कर रखी है।
कुछ राज्य तो ऐसे सदस्यों को बतौर मानदेय फूटी कौड़ी भी नहीं दे रहे। नतीजतन
तमाम किशोर और बालक अपने अधिकारों से वंचित हैं।

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