इस आंदोलन के निहितार्थ- आनंद प्रधान

जनसत्ता 3 जनवरी, 2012: दिल्ली की वह बहादुर लड़की शरीर और मन पर हुए
प्राणांतक घावों के बावजूद जीना चाहती थी। देश के करोड़ों लोग भी यही चाहते
थे। लेकिन वह लड़ते हुए एक शहीद की तरह चली गई।
यह सही है कि वह भारतीय समाज में स्त्रियों के खिलाफ होने वाली बर्बर यौन
हिंसा और भेदभाव की पहली शहीद नहीं है और न आखिरी। उसके जाने के बाद भी
दिल्ली, पंजाब, बिहार, गुजरात से लेकर बंगाल तक से स्त्रियों पर यौन हिंसा,
बलात्कार और हत्या की खबरें आ रही हैं।
लेकिन इस बार एक बड़ा फर्क है
कि अखबारों और न्यूज चैनलों में स्त्रियों पर होने वाली बर्बर हिंसा की
खबरों से ज्यादा सुर्खियों में उसके विरोध की खबरें हैं। उस बहादुर लड़की के
संघर्ष और शहादत ने देश के लाखों नौजवानों, खासकर लड़कियों और आम लोगों में
स्त्रियों के खिलाफ होने वाली बर्बर हिंसा और आपराधिक भेदभाव के खिलाफ
लड़ने का जज्बा भर दिया है। दिल्ली से लेकर देश भर के छोटे-बड़े शहरों-कस्बों
में हजारों-लाखों युवा और आम नागरिक ‘हमें न्याय चाहिए’ और ‘हमें चाहिए
आजादी’ के नारों के साथ सड़कों पर उतर आए हैं।
खासकर दिल्ली में जिस बड़ी
संख्या में युवा सड़कों पर और उसमें भी खासकर सत्ता के केंद्र रायसीना
पहाड़ी, विजय चौक और इंडिया गेट से लेकर जंतर मंतर पर उतर कर प्रदर्शन और
अपना गुस्सा जाहिर कर रहे हैं, पुलिसिया दमन के बावजूद पीछे हटने को तैयार
नहीं हैं, उसने सत्ता प्रतिष्ठान के साथ-साथ समूचे राजनीतिक वर्ग को एक साथ
चौंका और डरा दिया है। हड़बड़ी और घबराहट में केंद्र और दिल्ली सरकार ने
कानून में बदलाव और दिल्ली सामूहिक बलात्कार की जांच के लिए दो न्यायिक
आयोग बनाने से लेकर त्वरित अदालत बनाने, दिल्ली में सार्वजनिक बसों की
संख्या बढ़ाने जैसे कई फैसले किए हैं।
यही नहीं, प्रधानमंत्री से लेकर
गृहमंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष तक रोज बलात्कार के खिलाफ कड़े कानून बनाने
से लेकर दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाने के वायदे कर रहे हैं। लेकिन
लोगों का गुस्सा थमने का नाम नहीं ले रहा है। अपना गुस्सा जाहिर करने पहुंच
रहे लोगों में छात्र-युवा लड़के और लड़कियों की संख्या सबसे ज्यादा है,
लेकिन उनमें चालीस से ज्यादा उम्र के पुरुषों और महिलाओं की संख्या भी
अच्छी-खासी है।
असल में, यह एक इंद्रधनुषी विरोध-प्रदर्शन है, जिसमें
चरम वामपंथी संगठनों- आइसा, आरवाइए, एपवा और दूसरे वामपंथी संगठन जैसे
एसएफआइ, एडवा, एनआइएफडब्ल्यू आदि से लेकर जेएनयू छात्रसंघ तक और अस्मिता
जैसे सांस्कृतिक और जागोरी जैसे नारीवादी संगठनों तक कई रंगों-विचारों के
संगठन हैं तो दूसरी ओर आम आदमी पार्टी से लेकर घोर दक्षिणपंथी एबीवीपी जैसे
संगठन भी हैं। लेकिन इन संगठनों और उनके कार्यकर्ताओं से कई गुना ज्यादा
संख्या में आम नौजवान, खासकर लड़कियां और महिलाएं हैं, जो खुद वहां पहुंच
रही हैं। इनका किसी राजनीतिक संगठन या पार्टी से संबंध नहीं है।
सबके
अपने पीड़ादायक अनुभव हैं, जो उन्हें उस बहादुर लड़की से जोड़ते हैं, उसकी
पीड़ा और बलात्कारियों के खिलाफ संघर्ष में साझीदार बनाते हैं और लड़ने का
हौसला और साहस देते हैं। इन सभीलड़कियों-महिलाओं और उनके पुरुष
साथियों-परिजनों ने चाहे वह घर की बंद चहारदीवारी हो या घर के बाहर
कॉलोनी-मुहल्ले की सड़क, बस स्टैंड या खुद बस-मेट्रो या बाजार/ शॉपिंग मॉल्स
या आॅफिस या स्कूल-कॉलेज-यूनिवर्सिटी या कोई और सार्वजनिक स्थान- लगभग हर
दिन, कम या ज्यादा अश्लील फब्तियां, यौन उत्पीड़न और अत्याचार अंदर जमा होते
गुस्से के बावजूद डर कर और चुपचाप झेला है।
लेकिन दिल्ली सामूहिक
बलात्कार की बर्बरता ने उस डर को तोड़ दिया। उन हजारों-लाखों युवाओं, खासकर
लड़कियों को यह समझ में आ चुका है कि लड़ने और घरों से बाहर निकल कर अपनी
आवाज बुलंद करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। उनका वर्षों से जमा
गुस्सा फूट पड़ा है। उस गुस्से में शुरुआत में बदले की भावना भी दिखी, जो
न्याय की मांग करते हुए बलात्कारियों को फांसी की सजा और उनका रासायनिक
बंध्याकरण करने और कड़े से कड़े कानूनों की मांग कर रही थी।
लेकिन
धीरे-धीरे इसमें वह विवेक और तार्किकता बढ़ रही है, जो न्याय का मतलब बदला
नहीं समझती है। जो यौन हिंसा का समाधान फांसी में नहीं देखती, जो कड़े
कानूनों और चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात करने से परे जाकर सरकार, पुलिस,
कोर्ट और कानूनों पर हावी उस पुरुषसत्ता और पुरुषवादी सोच को निशाने पर ले
रही है जो लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ हिंसा और यौन अत्याचारों को कभी घर
से बाहर निकलने, कभी फैशन और कपड़ों और कभी संस्कारों आदि के नाम पर जायज
ठहराने की कोशिश करता है। वह ऐसे किसी कुतर्क और बहाने को स्वीकार करने को
तैयार नहीं है।
यही नहीं, सरकारी और प्रशासनिक संवेदनहीनता से नाराजगी
और गुस्से के बावजूद वे तालिबानी न्याय के पक्ष में नहीं हैं। अलबत्ता वे
सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों की नींद में खलल जरूर डालना चाहते हैं। वे
उनकी शांति जरूर भंग करना चाहते हैं। यह भी सच है कि वे समूचे राजनीतिक
वर्ग और सत्ताधारियों से नाराज हैं। उन्हें लगता है और सौ फीसद सही लगता है
कि दिल्ली की वह बहादुर लड़की उस बस में सामूहिक बलात्कार का विरोध करती और
लड़ती हुई इसलिए मारी गई, क्योंकि अपराधी-लंपट तत्त्वों, भ्रष्ट पुलिस और
परिवहन विभाग और उनके सबसे बड़े संरक्षक सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेताओं और
राजनीतिक पार्टियों को आम लोगों की कोई परवाह नहीं है।
अफसोस की बात है कि इस जनउभार और धीरे-धीरे उसके आंदोलन बनने का स्वागत करने के बजाय कई उदार
बुद्धिजीवी उससे भयभीत नजर आ रहे हैं। उन्हें यह एक अराजक भीड़ लग रही है,
जिसकी आक्रामकता और जल्दबाजी में वे फासीवाद की आहट देख रहे हैं। उन्हें
इसमें कानून के राज और व्यवस्था के प्रति खुला तिरस्कार और मखौल दिख रहा
है। उन्हें यह भय सता रहा है कि देश भीड़तंत्र की ओर बढ़ रहा है, जो कि देश
में पिछले कई दशकों और अनेक बलिदानों के बाद खड़ा किए गए लोकतांत्रिक
व्यवस्था को तहस-नहस कर देगा।
उन्हें यह चिंता है कि इस भीड़ की हिम्मत
बढ़ती जा रही है, उसने जैसे ‘अव्यवस्था’ फैलाने और ‘हुक्मउदूली’ करने का
लाइसेंस हासिल कर लिया है और अपनी शर्तों परअपनीमांगें मनवाने की कोशिश
कर रही है। सचमुच, उदार बुद्धिजीवियों की इस चिंता से सतर्क होने का समय आ
गया है। सवाल है कि वे कैसा लोकतंत्र चाहते हैं? वे कैसी व्यवस्था के पक्ष
में खड़े हैं? ये सवाल इसलिए महत्त्वपूर्ण हैं कि एक ऐसे समय में जब देश में
सत्ता-कॉरपोरेट्स गठजोड़ की ओर से लोकतांत्रिक अधिकारों, खासकर
अभिव्यक्तिकी आजादी, विरोध के अधिकार, संगठन बनाने के अधिकार आदि पर संगठित
हमले बढ़ रहे हैं और खुद लोकतंत्र का दायरा सिकुड़ता-संकुचित होता जा रहा
है, उस समय दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को अपने ही नागरिकों और उनके सड़क
पर उतरने से डर क्यों लग रहा है? क्या लोकतंत्र का मतलब सिर्फ पांच साल पर
होने वाले चुनाव हैं? क्या नागरिकों का काम हर पांच साल पर उपलब्ध विकल्पों
में एक सरकार चुन देना भर है?
जाहिर है कि लोकतंत्र का मतलब नागरिकों
का राजकाज के मुद्दों पर चुप रहना नहीं, बल्कि सक्रिय भागीदारी है। इस
सक्रिय भागीदारी का एक लोकप्रिय रूप विरोध करने का अधिकार भी है। विरोध का
अधिकार लोकतंत्र की आत्मा है। इस मायने में दिल्ली में सामूहिक बलात्कार के
खिलाफ भड़का गुस्सा लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है। उसने विरोध के अधिकार को
फिर से बहाल करने की कोशिश की है। 
युवाओं के इस विरोध और आंदोलन ने
एक भ्रष्ट, जड़, संवेदनहीन व्यवस्था को झकझोर दिया है। इस आंदोलन ने सत्ता
में बैठे नेताओं की जवाबदेही की मांग करके लोकतंत्र को कमजोर नहीं, बल्कि
मजबूत किया है। इस आंदोलन ने अपनी तीव्रता के कारण बहुत छोटी अवधि में कई
कामयाबियां हासिल की हैं। इसकी सबसे बड़ी कामयाबी यह है कि इसने स्त्रियों
के खिलाफ बढ़ती हिंसा से लेकर उनकी आजादी, सम्मान और सुरक्षा से जुड़े मसलों
को पहली बार राष्ट्रीय राजनीति के एजेंडे पर सबसे ऊपर पहुंचा दिया है। याद
कीजिए, इससे पहले कब देश में स्त्रियों के खिलाफ हिंसा, उनकी आजादी और
सुरक्षा के मुद्दे राष्ट्रीय स्तर पर इतनी शिद्दत से चर्चा और बहस में आए
थे?
इससे पहले सत्ता प्रतिष्ठान और राजनीतिक वर्ग कब महिलाओं के
मुद्दों पर इतने फैसले और घोषणाएं करने के लिए मजबूर हुआ था? कहने की जरूरत
नहीं कि राजनीतिक विमर्श में महिला और युवा वोटरों की बढ़ती चर्चाओं के
बावजूद महिलाओं के मुद्दे राजनीतिक पार्टियों के घोषणापत्रों में अब भी
सबसे आखिर में और चलताऊ ढंग से जगह पाते रहे हैं। लेकिन इस आंदोलन के बाद
राजनीतिक पार्टियों के लिए महिलाओं के मुद्दों को नजरंदाज कर पाना मुश्किल
होगा। इस अर्थ में इस आंदोलन की दूसरी सबसे बड़ी कामयाबी यह है कि इसने
संकीर्ण जातिवादी, क्षेत्रीय और सांप्रदायिक अस्मिताओं का निषेध करते हुए
स्त्री अस्मिता की जोरदार दावेदारी की है।
इसने एक बलात्कार को दूसरे
बलात्कार के खिलाफ खड़ा करने, एक आंदोलन को दूसरे के खिलाफ खड़ा करने की
संकीर्ण अस्मितावादी बुद्धिजीवियों की कोशिशों को भी नाकाम कर दिया है।
तीसरी बड़ी कामयाबी यह है कि लंबे अरसे बाद किसी आंदोलन में इतनी बड़ी संख्या
में और मुखरता के साथ मध्य और निम्न-मध्यवर्गीय महिलाएं खासकर युवा
छात्राएं-लड़कियां विरोध-प्रदर्शनों में सड़कों पर उतरी हैं। उन्होंने जिस
तरहसे पुलिस के डंडों, आंसू गैस और वाटर कैनन का सामना किया, वह नई भारतीय
स्त्री के आगमन की सूचना है। अण्णा हजारे के नेतृत्व वाले भ्रष्टाचार
विरोधी आंदोलन में महिलाएं नहीं आर्इं थीं।
इस आंदोलन की चौथी कामयाबी
यह है कि इसने महिला आंदोलन को पुनर्जीवित कर दिया है। इसने महिलाओं को
भयमुक्त किया है। उनका आत्मविश्वास बढ़ा है। उन पर अब नैतिकता और इज्जत की
रक्षा के नाम पर भांति-भांति की पाबंदियां थोपना आसान नहीं होगा। वे अब और
खुल कर अपनी इच्छाएं जाहिर कर सकेंगी और चुनाव की स्वतंत्रता का इस्तेमाल
करेंगी। इस तरह पितृ-सत्ता को चुनौती बढ़ेगी। हालांकि यह लड़ाई बहुत लंबी और
कठिन है, लेकिन इस आंदोलन ने जिस तरह महिला आंदोलन को नई ताकत, ऊर्जा और
गति दी है, उससे यह उम्मीद बढ़ी है कि पितृ-सत्ता के खिलाफ आंदोलन को नया
आवेग मिलेगा।
भारतीय लोकतंत्र के लिए इस आंदोलन से डरने के बजाय इससे
आश्वस्त और आशान्वित होने की जरूरत है? सच पूछिए तो इस आंदोलन ने भारतीय
लोकतंत्र और समाज को और बेहतर और जीवंत बनाने में मदद की है। उस अनाम
बहादुर लड़की की बलात्कारियों के खिलाफ लड़ाई के बावजूद लोग अगर
घरों-कॉलेजों-दफ्तरों से बाहर नहीं निकलते तो यकीन मानिए वह भारतीय
लोकतंत्र के अंदर बढ़ते संवेदनहीनता के अंधेरे को और गहरा करता, सत्ता और
अपराधियों के गठजोड़ का खौफ और बढ़ जाता और लोगों की लाचारी और हताशा और बढ़ती
जाती। इस आंदोलन ने लोगों की इस लाचारी और हताशा को तोड़ा और साफ  कर दिया
है कि लोकतंत्र में लोगों से ऊपर कुछ नहीं है।

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