गरीबों की पहुंच से ऊपर हो रही है दिल्ली- मनोज मिश्र

नई दिल्ली । दिल्ली और एनसीआर(राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) को आम की बजाए
खास आदमी का शहर बनाने की तैयारी हो रही है।
इसका नतीजा यह हुआ है कि एनसीआर के कई इलाके उजड़ने के कगार पर हैं। दिल्ली
के कुछ इलाकों को छोड़ दें तो दिल्ली के ज्यादातर इलाके स्लम जैसे बनते जा
रहे हैं। 1483 वर्ग किलोमीटर की दिल्ली का महज पांचवा हिस्सा ही रिकार्ड
में बचा है, जिसे बसाया जाना है। हकीकत में तो खाली जगह दिल्ली में है ही
नहीं है। उत्तर प्रदेश की सीमा और दिल्ली का फर्म तो काफी पहले ही खत्म हो
चुका था। अब तो दो तिहाई हरियाणी से घिरी दिल्ली का भी फर्म मिट गया है। 
इसी के चलते दिल्ली के दो-दो सौ किलो मीटर तक दिल्ली के नाम पर अंधाधुंध
शहर बसाने के लिए निर्माण हो रहे हैं।
दिल्ली की बहुशासन प्रणाली में
सबसे बड़ा संकट जमीन का ही है ज्यादातर दिल्ली की जमीन दिल्ली विकास
प्राधिकरण(डीडीए और भूमि और भवन विभाग(एलएंडडीओ) आदि सीधे केंद्र सरकार के
अधीन हैं। ग्राम सभा की जमीन दिल्ली सरकार की है और कुछ जमीन नगर निगमों
आदि की है। इतना ही नहीं दिल्ली में देश भर के राज्यों की संपति है और सबसे
ज्यादा ऐतिहासिक धरोहर से पुरातत्व विभाग से लेकर दिल्ली शहरी कला विभाग
आदि से भी विभिन्न निर्माणों में अनुमति लेनी होती है। इस लिए आवास सफाया
के  लिए अकेले शीला दीक्षित के 14 साल के शासन को दोष नहीं दिया सकता है।
जिस डीडीए के पास दिल्ली की करीब अस्सी फीसद जमीन है उसने पिछले पचास सालों
में महज चार लाख फ्लैट बनाए। इस दौरान दिल्ली की आबादी बढ़ कर दो करोड़ के
पार हो गई। 2011 की जनगणना में एक कारोड़ 68 लाख आबादी  बताई गई है।  इसी का
परिणाम हुआ कि पूरी दिल्ली में अवैध निर्माण होने लगे और आज हालत ऐसे है
कि दिल्ली में अवैध निर्णय ही है जिसे विभिन्न तरीकों से वैध किया जाता रहा
है। एक अनुमान के मुताबिक दिल्ली में करीब पचपन लाख परिवारों में 45 लाख
से ज्यादा ऐसे परिवार हैं, जिनकी मासिक आमदनी 30 हजार रुपए से कम होगी। ऐसे
परिवार किस सरकारी संस्था से अपने लिए घर खरीद पाए या न्यूनतम दो बच्चों
को भरण पोषण कर पाएं। इसी के परिणाम स्वरूप अनधिकृत कालोनी और झुग्गी
बस्तियां बसनी शुरू हुईं। चूंकि हर राजनीतिक दल को वोट चाहिए इसलिए
झुग्गियां हटाकर पुर्नवास बस्त बनी। चार सौ गांव दिल्ली में थे, वे भी अब
इसी क्षेत्रों में समाए हैं। 1967 में अनधिकृत कालोनी नियमित हुई फिर यह
सिलसिला चल निकला। 1971 में नियमित होने के बाद तो कालोनियों की बाढ़-सी आ
गई। 1982 में एशियाड खेलों के आयोजन के लिए बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य हुए। उसमें बिहार,उत्तराखंड, झारखंड, उत्तर
प्रदेश, मध्य प्रदेश,छत्तीसगढ़ राजस्थान आदि से बड़ी संख्या में मजदूर आए और
उनकी कालोनियों की संख्या बढ़ती गई। उस दौरान दिल्ली में सैकड़ों भूमफिया
रातो रात अरब पति हो गए। अधिकारी, पुलिस, नेता और भूमफिया के गठजोड़ से
दिल्ली को निगल लिया। विभिन्न कारणों के चलते-चलते एक बार फिर करीब एक हजार/> कालोनियों को नियमित करने की योजना विभिन्न बाधाओं के चलते रुकी हुई है।
पिछले
विधान सभा चुनाव के समय झुग्गी वालों को फ्लैट देने के नाम पर लाखों फार्म
बेचे गए।  60 हजार फ्लैट देने थे लेकिन अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव
तक शायद आधे भी नहीं दिए जा पाएगे। दिल्ली में लोगों की भीड़ रोकने के लिए
आला अफसरों ने कुछ नेताओं की शह पर एक अघोषित एजंडा अपना लिया है। दिल्ली
का रहन-सहन इतना मंहगा कर दिया जाए कि आम आदमी यहां टिक ही न पाए। यह सच है
कि बिजली, पानी, पढ़ाई, दवाई, सवारी से लेकर खाने-पीने की चीजें महंगी होती
गइ र्हैं।
अब एक दूसरे की देखा-देखी इलाके  में सर्किल रेट बढ़ाए जा रहे
हैं, ताकि लोग संपति न खरीद पाए। प्रदूषण के नाम पर कई इलाकों से उद्योगों
को हटाया ही गया। नए उद्योग लगने की रफ्तार कम हो गई क्योंकि इसके लिए जगह
ही नहीं बची।
पहले यह होता था कि दिल्ली में हटाए गए उद्योग एनसीआर में
लगते थे। अब एनसीआर में शहरों के भूमफिया अफसरों और नेताओं में दिल्लचस्पी
न मिलने पर वे बंगलूर, गुजरात चले गए या उत्तर प्रदेश और हरियाणा जैसे
राज्यों में पहुंच गए। एनसीआर में संपत्ति की दरें आसमान छूने लगीं। देश भर
में पैसे वालों के इस इलाकों की संपति  पैसे लगाने शुरू कर दिए ग्रेटर
नोएडा ही नहीं राजनगर एक्टेंशन जैसे शहर बसने लगे। लेकिन आसपास कारोबार के
अभाव में वे इन ढाई तीन दशकों में उजड़ने भी लगे है।  जो दाम किसी घर का तय
हो गया वह तो कम होगा नहीं लेकिन वह ज्यादा बढ़ भी नहीं रहा है। सबसे बड़ा
संकट तो यह है कि फ्लैट भी बन गए लेकिन उसमें लोग नहीं हैं। ग्रेटर नोएडा
के 20 लाख फ्लैटों की आबादी अभी भी चार लाख नहीं पार कर पाई। शहर केवल पैसे
कमाने के लिए संपत्ति खरीदने वालों से नहीं चलने वाला है। शहर को कारोबार
करने वाले ही बसाते हैं। हालत ऐसे बन गए हैं कि पूरे एनसीआर में केवल एक ही
उद्योग फ ल-फूल रहा है उसका नाम निर्माण उद्योग है। लेकिन उसे एनसीआर से
ज्यादा मंहगा करके और आसपास के सारे कारोबार खत्म करके किसी शहर को नहीं
बसाया जा सकता है। अभी तो अंदाजा  भर लग रहा है। कुछ सालों में यह साफ साफ
दिखने लगेगा।

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