जनसत्ता 6 नवंबर, 2012: अमिताभ बच्चन जब भी रेडियो और टेलीविजन पर एक
विज्ञापन ‘खुशबू गुजरात की’ करते हैं तो उनकी दिलकश आवाज और लहजे से एक बार
तो मन करता है कि ‘गुजरात-2002’ को भूल कर एक साधारण पर्यटक की तरह गुजरात
घूमा जाए।
नरेंद्र मोदी ने, विशेषकर 2002 के बाद, मीडिया में अपनी और गुजरात की छवि
सुधारने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। दरअसल, 2002 के दंगों के एक वर्ष बाद
तक, विदेशी पर्यटक तो दूर, भारतीय पर्यटकों ने भी गुजरात जाने से मुंह मोड़
लिया था।
अमेरिका और कई यूरोपीय देशों ने बाकायदा इंटरनेट पर अपने
सैलानियों को सलाह दी थी कि गुजरात न जाएं क्योंकि वहां आपकी जान को खतरा
हो सकता है। ‘गुजरात से दूर रहो’ का माहौल विश्व भर में रहा। जाहिर है,
इसका असर न केवल पर्यटन बल्कि देशी-विदेशी कंपनियों में कार्यरत
नीति-निर्माताओं पर भी पड़ा, जिन्होंने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर भगवा झंडे
उठाए बजरंगियों को मकानों और नागरिकों को आग लगाते देखा था।
साधारण
जन-जीवन अस्त-व्यस्त होने और लंबे-लंबे कर्फ्यू लगने के कारण दुनिया भर में
यह संदेश जाना लाजिमी था कि गुजरात में निवेश करना खतरे से खाली नहीं।
गुजरातियों के लिए यह और भी शर्म की बात थी कि जिन्होंने अफ्रीका से लेकर
अमेरिका तक, हर जगह अपनी दुकानें खोलीं और व्यापार में वृद्घि की, उनके
अपने गुजरात में निवेश करना दूभर हो गया। मोदी के लिए यह जरूरी हो गया कि
‘गुजराती अस्मिता’ का नारा दें और साथ में यह भी कहें कि वे गुजरात के सभी
पांच करोड़ बाशिंदों के मुख्यमंत्री हैं और कि गुजरात में निवेश करने से सभी
गुजरातियों के जीवन-स्तर में सुधार होगा। ‘सभी’ पर विशेष जोर का अर्थ
स्पष्ट था।
देखा जाए तो मोदी की समस्या वाकई गंभीर थी। एक बार उन्होंने
अपने शार्गिदों को मनमानी क्या करने दी और वह भी केवल तीन-चार दिन! (28
फरवरी, 2002 से 3 मार्च, 2002) कि उसका खमियाजा आज तक पूरा राज्य और उसके
निवासी भुगत रहे हैं। इसलिए मोदी और अब भाजपा, जिसका एक हिस्सा, उन्हें
प्रधानमंत्री बनाने की फिराक में है, का पूरा जोर आज इस बात पर है कि
गुजरात-2002 के वहशी दिनों को भुला दिया जाए। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कुछ
चैनलों ने तो मोदी को एक अवसर देने की वकालत शुरू कर दी है। कुछेक तो ‘मध्य
रास्ते’ की तलाश करने पर जोर दे रहे हैं।
नरोदा पाटिया के अदालती फैसले
से मोदी सरकार को एक बड़ा झटका लगा था। मोदी ने उसकी कुछ भरपाई ब्रिटिश
सरकार के इस फैसले से करनी चाही है जिसमें उसने भारत में ब्रिटिश
उच्चायुक्त को गुजरात जाने और गुजरात सरकार के साथ नजदीकी सहयोग करने के
तरीकों पर बात करने के लिए कहा है। ब्रिटिश सरकार ने अपने इस फैसले को यह
कह कर न्यायोचित ठहराया है कि उसने ‘आंतरिक समीक्षा’ की है और कि ‘अभी तक
भारत की न्यायिक व्यवस्था ने मोदी को कसूरवार नहीं ठहराया है।’ जाहिर है,
ब्रिटिश सरकार गुजरात मूल के प्रवासी भारतीयों के दबाव में काम कर रही है।
पूरे कॉरपोरेट मीडिया ने विकास के गुजरात मॉडल की तारीफकरनी शुरू कर दी है
और साथ में ब्रिटिश सरकार के फैसले की भूरि-भूरि प्रशंसा भी। इलेक्ट्रॉनिक
मीडिया ने इसे मोदी के वैश्विक स्तर पर अलग-थलग पड़ने का अंत माना है।
दरअसल,
गुजरात में निवेश आकर्षित करने का प्रयास 2002 के अंत में ही शुरू हो गया
था। मोदी सरकार ने ‘संकट को अवसर में बदलने’ के लक्ष्य के मद््देनजर
नौ-पृष्ठीय दस्तावेज ‘जी-2’ तैयार किया था, जिसे गुजरात के विभिन्न
औद्योगिक खिलाड़ियों जैसे अडानी, निरमा आदि को 2003 के शुरू में ही दिया जा
सका। इसके फलस्वरूप 2003-04 में गुजरात सरकार ने सरकारी और निजी क्षेत्र,
दोनों को ‘वाइब्रेंट गुजरात’ के नारे तले राज्य में निवेश करने के लिए राजी
करने का प्रयास किया।
निवेशकों के सम्मेलन में 66 लाख करोड़ रुपयों के
सहमति-पत्रों का दावा किया गया। 2004-05 में यह जादुई आंकड़ा 100 लाख करोड़
रुपए था। पर जब आयकर विभाग ने पिछले साल गुजरात सरकार को नोटिस दिया कि उसे
बताया जाए कि राज्य को कितने निवेश का आश्वासन मिला है और सच्चाई क्या है
तो सही आंकड़े सामने आ सके।
पिछले साल के गुजरात वैश्विक निवेशक सम्मेलन
में मोदी ने घोषणा की थी कि गुजरात सरकार ने 7936 सहमति-पत्रों पर
हस्ताक्षर किए हैं जिससे राज्य में छियालीस हजार करोड़ डॉलर (लगभग 23 लाख
करोड़ रुपए) का निवेश होगा। तीन माह पहले, अगस्त 2012 में, वॉल-स्ट्रीट
जर्नल को दिए अपने साक्षात्कार में मोदी ने यह भी दावा किया कि गुजरात को
दुपहिया वाहनों का केंद्र बनाने के बाद वे अपना ध्यान ‘रक्षा उपकरणों’ पर
केंद्रित करेंगे। गुजरात को विकास और सुशासन के मॉडल-राज्य के रूप में पेश
करने का प्रयास बदस्तूर जारी है।
एसोचैम के एक अध्ययन के अनुसार, 2003
से लेकर 2011 तक गुजरात में केवल 13़ 4 लाख करोड़ रुपए का निवेश हुआ है यानी
प्रतिवर्ष औसत केवल डेढ़ लाख करोड़ रुपए, जिसका सत्तर प्रतिशत केवल छह जिलों
में हुआ है- कच्छ, जामनगर, अमदाबाद, भरुच, सूरत और भावनगर। इसका तात्पर्य
यह है कि सहमति-पत्रों पर हस्ताक्षर करने वाले कितने ही निवेश-प्रस्तावक
चुपचाप खिसक लिए हैं।
अगर मोदी सरकार का प्रबंधन इतना ही प्रभावशाली है
तो क्या कारण है कि गुजरात राज्य परिवहन निगम, राज्य बिजली निगम, राज्य
वित्त निगम, एलकॉक एशडाउन (जो कि गुजरात की जहाज निर्माण कंपनी है)- ये सभी
घाटे में क्यों चल रहे हैं। निजी क्षेत्र में गुजरात का हीरा उद्योग मर रहा
है। मांग में कमी के कारण हीरा उद्योग की कई इकाइयां बंद हो चुकी हैं;
अकेले 2008-09 में छंटनी हुए दो सौ हीरा मजदूर आत्महत्या कर चुके हैं।
‘कुशल’
सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है। राज्य पेट्रोलियम निगम भी नुकसान में है।
विधानसभा में विपक्ष के नेता शक्ति सिंह गोहिल ने इस निगम में घाटे के लिए
मोदी सरकार द्वारा अडानी ग्रुप को दी जा रही सहूलियतों को जिम्मेदार ठहराया
है। पिछले पूरे बजट अधिवेशन में उन्हें निलंबित कर दिया गया था जब भरी
विधानसभा में उन्होंने मोदी पर आरोप लगाया कि अडानी ग्रुप को बहुत सस्ते
में जमीन दी गई और कि वे अडानी के विलासतापूर्ण जहाज में घूमते हैं।
मोदी
के काम करने केढंगपर ‘फोर्ब्स इंडिया’ (24 सितंबर, 2012) ने टिप्पणी की
है कि मोदी ने गुजरात स्तर पर भाजपा संगठन के अंदर एक समांतर ढांचा खड़ा कर
लिया है। गुजरात में अठारह हजार गांव हैं, हर गांव में मोदी के पांच
राजनीतिक भक्तों को ग्रामसेवक नियुक्त किया गया है। इन ग्राम-सेवकों के
हाथों में इतनी शक्ति दे दी गई है कि वे स्थानीय स्तर पर लिए जा रहे हर
निर्णय को प्रभावित करते हैं। कहां कितना फंड देना है, स्व-सहायता समूहों
के गठन में किन्हें वरीयता देनी है, ऋण किन्हें कितना देना है, सब कुछ ये
ग्रामसेवक तय करते हैं। नीचे स्थानीय स्तरों पर जो संदेश जा रहा है वह यह
कि अगर मोदी के आदमी हो तो तुम्हारा काम होगा, वरना नहीं। उन गांवों और
ग्रामवासियों को सबक सिखाया जाता है जिन्होंने पिछले चुनावों में मोदी की
पार्टी को वोट नहीं दिया।
जिस तानाशाह ढंग से मोदी अपनी सरकार चला रहे
हैं, जहां कैबिनेट मंत्रियों के हाथों से सारी शक्तियां छीन कर मोदी के
स्थानीय समर्थकों को स्थानांतरित कर दी गर्इं हैं, वहां जाहिर है ऐसे
चापलूस अफसरों की फौज पैदा होना स्वाभाविक है जो जमीनी स्तर पर बेशक कुछ न
कर पा रहे हों मगर ऊपर यही संदेश देते हैं कि सब ठीक चल रहा है। केंद्रीकृत
योजना के सभी दोष यहां गुजरात के ‘सुशासन’ में मौजूद हैं। लिहाजा, मोदी के
शासनकाल के दौरान गुजरात में महिलाओं, बच्चों, मजदूरों और किसानों के जीवन
में सुधार तो दूर, स्थितियां बदतर हुई हैं। जमीनी सच्चाइयों की ओर नजर
घुमाएं तो स्थिति एकदम उलट दिखाई देती है।
आर्थिक सर्वेक्षण, 2010-2011
के आंकड़े गुजरात की मीडिया-निर्मित छवि को ध्वस्त करने के लिए काफी हैं।
मानव-विकास संबंधी इन आंकड़ों में कुछ तथ्य इस प्रकार हैं। एक, भूख सूचकांक
(2009) को देखें तो भारत में सबसे उन्नत सत्रह राज्यों में गुजरात तेरहवें
स्थान पर है। दो, औरतों में खून की कमी के लिहाज से तो भारत के बीस प्रमुख
राज्यों में गुजरात का नंबर पहला है। तीन, बच्चों में अनीमिया या खून की
कमी के लिहाज से गुजरात का नंबर सोलहवां है। यानी केवल चार राज्यों की
स्थिति गुजरात से बदतर है। चार, बच्चों में व्याप्त कुपोषण की दृष्टि से
गुजरात का नंबर पंद्रहवां है। पांच, स्वास्थ्य, शिक्षा, ग्रामीण विकास पर
खर्च के मामले में गुजरात का नंबर पंद्रहवां है (प्रमुख बीस राज्यों में)।
छह,
2009 के आंकड़ों के अनुसार केरल में हर एक हजार नवजात शिशुओं में केवल बारह
मरते हैं, वहीं गुजरात में यह संख्या पचास है। सात, इसी तरह 2009 में
प्रसव के दौरान स्त्रियों की मौत की घटनाएं केरल की तुलना में गुजरात में
तीन गुना अधिक हुर्इं। आठ, मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अनुसार 2007-08
में केरल में दाखिल हुए बच्चों (आयु छह से सोलह वर्ष) में कोई भी स्कूल छोड़
कर नहीं गया, वहीं गुजरात में 59़11 प्रतिशत बच्चे स्कूल छोड़ने पर मजबूर
हुए।
इन सबके अतिरिक्त, राज्य सरकार नागरिकों को पीने योग्य पानी तक
मुहैया नहीं करा पा रही है। भाजपापरस्त दैनिक ‘दिव्य भास्कर’ ने पिछले
दिनों एक पूरे पृष्ठ का आलेख प्रकाशित कर यह रेखांकितकिया है कि कैसे
समूचे राज्य में पानी की भारी कमी है। इसके परिणामस्वरूप साफ-सफाई की
स्थिति भी चिंताजनक है। जयराम रमेश ने जब यह कहा था कि शौचालय के मामले में
भी राज्य पिछड़ा हुआ है तो वे गलत नहीं थे। गांवों में पैंसठ प्रतिशत
परिवार खुले में शौच करते हैं। इसके अलावा, कूड़े-कचरे के निपटारे के लिए
लगभग सत्तर प्रतिशत गांवों में कोई व्यवस्था नहीं है। अठहत्तर प्रतिशत
गांवों में सीवर की व्यवस्था नहीं है। इस गंदगी का परिणाम यह है कि गांवों
में पीलिया, मलेरिया, हैजा, गुर्दे की पथरी, चर्म-रोग आदि बीमारियां आम
हैं। यह कैसा विकास है, कैसी कार्य-प्रणाली है और कैसा औद्योगिक माहौल है
जिसकी तारीफ टाटा से लेकर ब्रिटिश उच्चायुक्त कर रहे हैं, पर दूसरी ओर
साधारण आदमी का जीवन कठिनतर होता जा रहा है।
पिछले दिनों जब मनमोहन सिंह
का अस्सीवां जन्मदिन था तो फेसबुक पर एक मजाक प्रचलित हुआ कि उस दिन केक
खाने के लिए तो वे अपना मुंह जरूर खोलेंगे। समस्या यहीं है। बेतहाशा
महंगाई, खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और रसोई गैस के
सिलेंडरों के मामले में किए गए फैसलों से पूरे देश में केंद्र-विरोधी लहर
दिख रही है। यूपीए सरकार से ऊबी जनता हर हाल में परिवर्तन चाह रही है। मोदी
का खतरा इसलिए बना हुआ है। इस खतरे को पहचान कर ही 2014 में राजनीतिक
गठबंधन करने होंगे। गुजरात के जनसंहार के नीरो को देश की बागडोर नहीं थमाई
जा सकती।
विज्ञापन ‘खुशबू गुजरात की’ करते हैं तो उनकी दिलकश आवाज और लहजे से एक बार
तो मन करता है कि ‘गुजरात-2002’ को भूल कर एक साधारण पर्यटक की तरह गुजरात
घूमा जाए।
नरेंद्र मोदी ने, विशेषकर 2002 के बाद, मीडिया में अपनी और गुजरात की छवि
सुधारने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। दरअसल, 2002 के दंगों के एक वर्ष बाद
तक, विदेशी पर्यटक तो दूर, भारतीय पर्यटकों ने भी गुजरात जाने से मुंह मोड़
लिया था।
अमेरिका और कई यूरोपीय देशों ने बाकायदा इंटरनेट पर अपने
सैलानियों को सलाह दी थी कि गुजरात न जाएं क्योंकि वहां आपकी जान को खतरा
हो सकता है। ‘गुजरात से दूर रहो’ का माहौल विश्व भर में रहा। जाहिर है,
इसका असर न केवल पर्यटन बल्कि देशी-विदेशी कंपनियों में कार्यरत
नीति-निर्माताओं पर भी पड़ा, जिन्होंने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर भगवा झंडे
उठाए बजरंगियों को मकानों और नागरिकों को आग लगाते देखा था।
साधारण
जन-जीवन अस्त-व्यस्त होने और लंबे-लंबे कर्फ्यू लगने के कारण दुनिया भर में
यह संदेश जाना लाजिमी था कि गुजरात में निवेश करना खतरे से खाली नहीं।
गुजरातियों के लिए यह और भी शर्म की बात थी कि जिन्होंने अफ्रीका से लेकर
अमेरिका तक, हर जगह अपनी दुकानें खोलीं और व्यापार में वृद्घि की, उनके
अपने गुजरात में निवेश करना दूभर हो गया। मोदी के लिए यह जरूरी हो गया कि
‘गुजराती अस्मिता’ का नारा दें और साथ में यह भी कहें कि वे गुजरात के सभी
पांच करोड़ बाशिंदों के मुख्यमंत्री हैं और कि गुजरात में निवेश करने से सभी
गुजरातियों के जीवन-स्तर में सुधार होगा। ‘सभी’ पर विशेष जोर का अर्थ
स्पष्ट था।
देखा जाए तो मोदी की समस्या वाकई गंभीर थी। एक बार उन्होंने
अपने शार्गिदों को मनमानी क्या करने दी और वह भी केवल तीन-चार दिन! (28
फरवरी, 2002 से 3 मार्च, 2002) कि उसका खमियाजा आज तक पूरा राज्य और उसके
निवासी भुगत रहे हैं। इसलिए मोदी और अब भाजपा, जिसका एक हिस्सा, उन्हें
प्रधानमंत्री बनाने की फिराक में है, का पूरा जोर आज इस बात पर है कि
गुजरात-2002 के वहशी दिनों को भुला दिया जाए। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कुछ
चैनलों ने तो मोदी को एक अवसर देने की वकालत शुरू कर दी है। कुछेक तो ‘मध्य
रास्ते’ की तलाश करने पर जोर दे रहे हैं।
नरोदा पाटिया के अदालती फैसले
से मोदी सरकार को एक बड़ा झटका लगा था। मोदी ने उसकी कुछ भरपाई ब्रिटिश
सरकार के इस फैसले से करनी चाही है जिसमें उसने भारत में ब्रिटिश
उच्चायुक्त को गुजरात जाने और गुजरात सरकार के साथ नजदीकी सहयोग करने के
तरीकों पर बात करने के लिए कहा है। ब्रिटिश सरकार ने अपने इस फैसले को यह
कह कर न्यायोचित ठहराया है कि उसने ‘आंतरिक समीक्षा’ की है और कि ‘अभी तक
भारत की न्यायिक व्यवस्था ने मोदी को कसूरवार नहीं ठहराया है।’ जाहिर है,
ब्रिटिश सरकार गुजरात मूल के प्रवासी भारतीयों के दबाव में काम कर रही है।
पूरे कॉरपोरेट मीडिया ने विकास के गुजरात मॉडल की तारीफकरनी शुरू कर दी है
और साथ में ब्रिटिश सरकार के फैसले की भूरि-भूरि प्रशंसा भी। इलेक्ट्रॉनिक
मीडिया ने इसे मोदी के वैश्विक स्तर पर अलग-थलग पड़ने का अंत माना है।
दरअसल,
गुजरात में निवेश आकर्षित करने का प्रयास 2002 के अंत में ही शुरू हो गया
था। मोदी सरकार ने ‘संकट को अवसर में बदलने’ के लक्ष्य के मद््देनजर
नौ-पृष्ठीय दस्तावेज ‘जी-2’ तैयार किया था, जिसे गुजरात के विभिन्न
औद्योगिक खिलाड़ियों जैसे अडानी, निरमा आदि को 2003 के शुरू में ही दिया जा
सका। इसके फलस्वरूप 2003-04 में गुजरात सरकार ने सरकारी और निजी क्षेत्र,
दोनों को ‘वाइब्रेंट गुजरात’ के नारे तले राज्य में निवेश करने के लिए राजी
करने का प्रयास किया।
निवेशकों के सम्मेलन में 66 लाख करोड़ रुपयों के
सहमति-पत्रों का दावा किया गया। 2004-05 में यह जादुई आंकड़ा 100 लाख करोड़
रुपए था। पर जब आयकर विभाग ने पिछले साल गुजरात सरकार को नोटिस दिया कि उसे
बताया जाए कि राज्य को कितने निवेश का आश्वासन मिला है और सच्चाई क्या है
तो सही आंकड़े सामने आ सके।
पिछले साल के गुजरात वैश्विक निवेशक सम्मेलन
में मोदी ने घोषणा की थी कि गुजरात सरकार ने 7936 सहमति-पत्रों पर
हस्ताक्षर किए हैं जिससे राज्य में छियालीस हजार करोड़ डॉलर (लगभग 23 लाख
करोड़ रुपए) का निवेश होगा। तीन माह पहले, अगस्त 2012 में, वॉल-स्ट्रीट
जर्नल को दिए अपने साक्षात्कार में मोदी ने यह भी दावा किया कि गुजरात को
दुपहिया वाहनों का केंद्र बनाने के बाद वे अपना ध्यान ‘रक्षा उपकरणों’ पर
केंद्रित करेंगे। गुजरात को विकास और सुशासन के मॉडल-राज्य के रूप में पेश
करने का प्रयास बदस्तूर जारी है।
एसोचैम के एक अध्ययन के अनुसार, 2003
से लेकर 2011 तक गुजरात में केवल 13़ 4 लाख करोड़ रुपए का निवेश हुआ है यानी
प्रतिवर्ष औसत केवल डेढ़ लाख करोड़ रुपए, जिसका सत्तर प्रतिशत केवल छह जिलों
में हुआ है- कच्छ, जामनगर, अमदाबाद, भरुच, सूरत और भावनगर। इसका तात्पर्य
यह है कि सहमति-पत्रों पर हस्ताक्षर करने वाले कितने ही निवेश-प्रस्तावक
चुपचाप खिसक लिए हैं।
अगर मोदी सरकार का प्रबंधन इतना ही प्रभावशाली है
तो क्या कारण है कि गुजरात राज्य परिवहन निगम, राज्य बिजली निगम, राज्य
वित्त निगम, एलकॉक एशडाउन (जो कि गुजरात की जहाज निर्माण कंपनी है)- ये सभी
घाटे में क्यों चल रहे हैं। निजी क्षेत्र में गुजरात का हीरा उद्योग मर रहा
है। मांग में कमी के कारण हीरा उद्योग की कई इकाइयां बंद हो चुकी हैं;
अकेले 2008-09 में छंटनी हुए दो सौ हीरा मजदूर आत्महत्या कर चुके हैं।
‘कुशल’
सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है। राज्य पेट्रोलियम निगम भी नुकसान में है।
विधानसभा में विपक्ष के नेता शक्ति सिंह गोहिल ने इस निगम में घाटे के लिए
मोदी सरकार द्वारा अडानी ग्रुप को दी जा रही सहूलियतों को जिम्मेदार ठहराया
है। पिछले पूरे बजट अधिवेशन में उन्हें निलंबित कर दिया गया था जब भरी
विधानसभा में उन्होंने मोदी पर आरोप लगाया कि अडानी ग्रुप को बहुत सस्ते
में जमीन दी गई और कि वे अडानी के विलासतापूर्ण जहाज में घूमते हैं।
मोदी
के काम करने केढंगपर ‘फोर्ब्स इंडिया’ (24 सितंबर, 2012) ने टिप्पणी की
है कि मोदी ने गुजरात स्तर पर भाजपा संगठन के अंदर एक समांतर ढांचा खड़ा कर
लिया है। गुजरात में अठारह हजार गांव हैं, हर गांव में मोदी के पांच
राजनीतिक भक्तों को ग्रामसेवक नियुक्त किया गया है। इन ग्राम-सेवकों के
हाथों में इतनी शक्ति दे दी गई है कि वे स्थानीय स्तर पर लिए जा रहे हर
निर्णय को प्रभावित करते हैं। कहां कितना फंड देना है, स्व-सहायता समूहों
के गठन में किन्हें वरीयता देनी है, ऋण किन्हें कितना देना है, सब कुछ ये
ग्रामसेवक तय करते हैं। नीचे स्थानीय स्तरों पर जो संदेश जा रहा है वह यह
कि अगर मोदी के आदमी हो तो तुम्हारा काम होगा, वरना नहीं। उन गांवों और
ग्रामवासियों को सबक सिखाया जाता है जिन्होंने पिछले चुनावों में मोदी की
पार्टी को वोट नहीं दिया।
जिस तानाशाह ढंग से मोदी अपनी सरकार चला रहे
हैं, जहां कैबिनेट मंत्रियों के हाथों से सारी शक्तियां छीन कर मोदी के
स्थानीय समर्थकों को स्थानांतरित कर दी गर्इं हैं, वहां जाहिर है ऐसे
चापलूस अफसरों की फौज पैदा होना स्वाभाविक है जो जमीनी स्तर पर बेशक कुछ न
कर पा रहे हों मगर ऊपर यही संदेश देते हैं कि सब ठीक चल रहा है। केंद्रीकृत
योजना के सभी दोष यहां गुजरात के ‘सुशासन’ में मौजूद हैं। लिहाजा, मोदी के
शासनकाल के दौरान गुजरात में महिलाओं, बच्चों, मजदूरों और किसानों के जीवन
में सुधार तो दूर, स्थितियां बदतर हुई हैं। जमीनी सच्चाइयों की ओर नजर
घुमाएं तो स्थिति एकदम उलट दिखाई देती है।
आर्थिक सर्वेक्षण, 2010-2011
के आंकड़े गुजरात की मीडिया-निर्मित छवि को ध्वस्त करने के लिए काफी हैं।
मानव-विकास संबंधी इन आंकड़ों में कुछ तथ्य इस प्रकार हैं। एक, भूख सूचकांक
(2009) को देखें तो भारत में सबसे उन्नत सत्रह राज्यों में गुजरात तेरहवें
स्थान पर है। दो, औरतों में खून की कमी के लिहाज से तो भारत के बीस प्रमुख
राज्यों में गुजरात का नंबर पहला है। तीन, बच्चों में अनीमिया या खून की
कमी के लिहाज से गुजरात का नंबर सोलहवां है। यानी केवल चार राज्यों की
स्थिति गुजरात से बदतर है। चार, बच्चों में व्याप्त कुपोषण की दृष्टि से
गुजरात का नंबर पंद्रहवां है। पांच, स्वास्थ्य, शिक्षा, ग्रामीण विकास पर
खर्च के मामले में गुजरात का नंबर पंद्रहवां है (प्रमुख बीस राज्यों में)।
छह,
2009 के आंकड़ों के अनुसार केरल में हर एक हजार नवजात शिशुओं में केवल बारह
मरते हैं, वहीं गुजरात में यह संख्या पचास है। सात, इसी तरह 2009 में
प्रसव के दौरान स्त्रियों की मौत की घटनाएं केरल की तुलना में गुजरात में
तीन गुना अधिक हुर्इं। आठ, मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अनुसार 2007-08
में केरल में दाखिल हुए बच्चों (आयु छह से सोलह वर्ष) में कोई भी स्कूल छोड़
कर नहीं गया, वहीं गुजरात में 59़11 प्रतिशत बच्चे स्कूल छोड़ने पर मजबूर
हुए।
इन सबके अतिरिक्त, राज्य सरकार नागरिकों को पीने योग्य पानी तक
मुहैया नहीं करा पा रही है। भाजपापरस्त दैनिक ‘दिव्य भास्कर’ ने पिछले
दिनों एक पूरे पृष्ठ का आलेख प्रकाशित कर यह रेखांकितकिया है कि कैसे
समूचे राज्य में पानी की भारी कमी है। इसके परिणामस्वरूप साफ-सफाई की
स्थिति भी चिंताजनक है। जयराम रमेश ने जब यह कहा था कि शौचालय के मामले में
भी राज्य पिछड़ा हुआ है तो वे गलत नहीं थे। गांवों में पैंसठ प्रतिशत
परिवार खुले में शौच करते हैं। इसके अलावा, कूड़े-कचरे के निपटारे के लिए
लगभग सत्तर प्रतिशत गांवों में कोई व्यवस्था नहीं है। अठहत्तर प्रतिशत
गांवों में सीवर की व्यवस्था नहीं है। इस गंदगी का परिणाम यह है कि गांवों
में पीलिया, मलेरिया, हैजा, गुर्दे की पथरी, चर्म-रोग आदि बीमारियां आम
हैं। यह कैसा विकास है, कैसी कार्य-प्रणाली है और कैसा औद्योगिक माहौल है
जिसकी तारीफ टाटा से लेकर ब्रिटिश उच्चायुक्त कर रहे हैं, पर दूसरी ओर
साधारण आदमी का जीवन कठिनतर होता जा रहा है।
पिछले दिनों जब मनमोहन सिंह
का अस्सीवां जन्मदिन था तो फेसबुक पर एक मजाक प्रचलित हुआ कि उस दिन केक
खाने के लिए तो वे अपना मुंह जरूर खोलेंगे। समस्या यहीं है। बेतहाशा
महंगाई, खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और रसोई गैस के
सिलेंडरों के मामले में किए गए फैसलों से पूरे देश में केंद्र-विरोधी लहर
दिख रही है। यूपीए सरकार से ऊबी जनता हर हाल में परिवर्तन चाह रही है। मोदी
का खतरा इसलिए बना हुआ है। इस खतरे को पहचान कर ही 2014 में राजनीतिक
गठबंधन करने होंगे। गुजरात के जनसंहार के नीरो को देश की बागडोर नहीं थमाई
जा सकती।