जनसत्ता 25 अक्टुबर, 2012: जीवनरक्षक दवाओं तक देश के नागरिकों की पहुंच सुनिश्चित करके बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराना संवैधानिक दायित्व है और यह लक्ष्य हर मुनाफे से परे है। मद्रास उच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी भारत सरकार बनाम नोवार्तिस मामले में की थी। स्विट्जरलैंड की नोवार्तिस दुनिया की पांचवीं बड़ी दवा निर्माता कंपनी है और इसने भारतीय पेटेंट कानून में बदलाव के मसले पर सरकार पर मुकदमा कर रखा है। फिलवक्त यह बेहद अहम मुकदमा उच्चतम न्यायालय में पहुंच गया है और इस मामले का फैसला पूरी दुनिया के दवा उद्योग की तस्वीर बदल सकता है।
इस मामले की जड़ में कैंसर के इलाज में काम आने वाली दवा इमातिनिब मेसयलेट है। रक्तकैंसर के रोगियों के लिए इमातिनिब मेसयलेट रामबाण है और नोवार्तिस इस दवा को ग्लीवेक ब्रांड के नाम से बेचती है। ग्लीवेक को 2001 में पेश किया गया था और दुनिया के कई देशों में नोवार्तिस ने इस दवा पर पेटेंट अधिकार हासिल कर रखा है, मगर भारतीय पेटेंट कार्यालय ने नोवार्तिस को ग्लीवेक पर पेटेंट देने से मना कर दिया। यहीं से भारतीय पेटेंट कानून के खिलाफ नोवार्तिस ने जंग छेड़ दी और अब मामला निचली अदालतों से होते हुए उच्चतम न्यायालय में पहुंच चुका है, जहां से आने वाला आखिरी फैसला पेटेंट बनाम जनहित की बहस की दिशा तय करेगा।
पेटेंट एक ऐसा बौद्धिक अधिकार है जो कोई नई खोज करने वाले व्यक्ति या संस्था को तयशुदा समय के लिए दिया जाता है। चूंकि नई खोज करने से पहले उस व्यक्ति या संस्था को लंबे समय तक शोध करना पड़ता है और इस दरम्यान उसका खर्च भी होता है, लिहाजा पेटेंट को उसकी मेहनत और पूंजी का प्रतिफल माना जाता है। पेटेंट की यह किताबी परिभाषा विकसित देशों में तैयार की गई है और तकनीकी रूप से उन्नत लोग पेटेंट का इस्तेमाल अपना खजाना भरने में करते हैं। मिसाल के तौर पर एड्स और कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों के इलाज में काम आने वाली दवाओं के पेटेंट अधिकारों को लिया जा सकता है।
दुनिया की आला सात बड़ी दवा कंपनियां पश्चिमी देशों से हैं और इन्होंने अपने संसाधनों के बल पर एड्स और कैंसर की दवाएं ईजाद की हैं। किसी भी दवा पर पेटेंट हासिल करने के बाद उस दवा को बनाने का अधिकार एक खास कंपनी को ही होता है और वह कंपनी दवा के दाम में इजाफा कर देती है।
पेटेंट वाली दवाओं के ऊंचे दामों से जनता को लूटने की बात नोवार्तिस की दवा ग्लीवेक के उदाहरण से समझी जा सकती है। किसी कैंसर रोगी को एक महीना ग्लीवेक दवा खाने के लिए एक लाख बीस हजार रुपए खर्च करने पड़ेंगे, वहीं भारतीय कंपनियां यह दवा आठ हजार रुपए महीना में मुहैया करवाती हैं। लीवर कैंसर के इलाज में काम आने वाली दवा सोराफेनिब जर्मनी की बायर हेल्थकेयर दवा कंपनी नैक्सावार ब्रांड के नाम से दो लाख अस्सी हजार रुपए में बेचती है, वहीं हैदराबाद की नाटको फार्मास्टिक्युल यही दवा आठ हजार आठ सौ रुपए में उपलब्ध कराती है।
गौर करने लायक बात यह है कि इन दवाओं की लागत पांचहजार है। जाहिर है, सवाल वाजिब मुनाफा हासिल करने का नहीं है। दवा के शोध पर खर्च हुए धन को वसूलने के लिए पेटेंट का अधिकार दिया जाना चाहिए, मगर बड़ी दवा कंपनियों ने पेटेंट अधिकार को लूट के लाइसेंस में बदल लिया है। पांच हजार की दवा को तीन लाख रुपए महीने में बेच कर कौन-सा जनहित पूरा किया जा रहा है? दुनिया की निन्यानबे फीसद आबादी में छत्तीस लाख रुपए सालाना कीमत वाली दवा खरीदने की कुव्वत नहीं है। यह नोवार्तिस जैसी दवा कंपनियों के मुनाफे का लाइलाज रोग है।
अक्सर कई जानकार तर्क देते हैं कि भारत में कुछ लोगों को विश्व बैंक और डब्ल्यूटीओ जैसे नामों पर छाती पीटने की आदत हो गई है, जबकि आम जनता पर अंतरराष्ट्रीय समझौतों का कोई खास असर नहीं पड़ता है।
याद रहे, 1995 में डब्ल्यूटीओ पर हस्ताक्षर करने से पहले भारत के पेटेंट कानून पूरी दुनिया में आला दर्जे के माने जाते थे। भारतीय पेटेंट कानून, 1970 का सबसे अहम प्रावधान यह था कि जनता पर सीधे-सीधे असर डालने वाले दो क्षेत्रों (दवा और खाद्य सामग्री) में किसी कंपनी को निर्माण और वितरण का एकाधिकार नहीं दिया जाएगा। यह ऐसा क्रांतिकारी नियम था जिसने भारत के साथ ही पूरी दुनिया के दवा उद्योग की दिशा बदल कर रख दी। भारतीय कंपनियों ने इस नियम की नैया से पेटेंट का दरिया पार किया और पूरी दुनिया को जेनेरिक दवाओं की आपूर्ति करना शुरू कर दिया। गौरतलब है कि जब पेटेंट कानून के दायरे से बाहर किसी दवा का निर्माण किया जाता है तो उसे जेनेरिक दवा कहा जाता है। जेनेरिक दवा और ब्रांडेड दवा में कीमत के अलावा कोई फर्क नहीं होता, और दोनों तरह की दवाएं एक जैसा ही असर दिखाती हैं।
जेनेरिक दवा के निर्माण से किसी भी कंपनी का शोध पर होने वाला खर्चा बच पाता है, इस कारण जेनेरिक दवाओं की कीमत ब्रांडेड दवाओं के मुकाबले बेहद कम (बीस गुना तक कम) होती है। मसलन, खांसी का इलाज करने वाली बड़ी कंपनियों का ब्रांडेड कफ सीरप (पचास मिलीलीटर) अस्सी रुपए से ज्यादा में मिलता है, वहीं जेनेरिक दवा कंपनियां यही दवा दस से पंद्रह रुपए के बीच बेचती हैं।
कुछ अरसा पहले तक एचआइवी-एड्स के सबसे बड़े शिकार अफ्रीकी देशों में कई सरकारें अपने जीडीपी का आधा हिस्सा केवल इसी बीमारी की दवाओं पर
खर्च करती थीं। अब भारतीय दवा कंपनियां बड़े पैमाने पर एशिया, अफ्रीका और
दक्षिण अमेरिका के देशों में एड्स और कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों के साथ
ही बाकी बीमारियों की दवाओं की भी बेहद कम दामों पर आपूर्ति कर रही हैं।
एड्स
के खिलाफ लड़ रही अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने कई बार इस बात को दोहराया है
कि अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में एड्स के नब्बे फीसद मरीज केवल भारतीय
कंपनियों की सस्ती दवाओं की वजह से जिंदा हैं। विकासशील और गरीब देशों को
सस्ती दवाएं उपलब्ध कराने की इसी क्षमता के कारण भारतीय दवा कंपनियों को अब
‘दक्षिण की फार्मेसी’ कहा जाने लगा है।
गरीब जनता को वाजिब दामों पर
दवाएं मुहैया करवा कर भारतीय दवा कंपनियां सेवा औरमेवा,दोनों हासिल कर
रही थीं, मगर इस कवायद में विकसित देशों खासकर अमेरिकी दवा कंपनियों का
बाजार खत्म होने लगा। विकसित देशों में दवाओं के बाजार का दोहन पूरा हो
चुका है और उपभोक्ता-जागरूकता के ऊंचे स्तर के चलते वहां मुनाफे की कम
संभावना है। ऐसे में विकासशील और गरीब देश बड़ी दवा कंपनियों के निशाने पर आ
गए। भारत जैसे देशों में लागू प्रगतिशील पेटेंट कानून की बाधाएं दूर करने
के लिए डब्ल्यूटीओ का सहारा लिया गया और दवा जैसी बुनियादी चीजें भी पेटेंट
कानून के दायरे में लाई गर्इं।
1995 में डब्ल्यूटीओ के उरुग्वे दौर
में इस बात पर सहमति बनी थी और सदस्य-देशों को अपने कानूनों में बदलाव करने
के लिए दस साल की मोहलत दी गई थी। दस साल का वक्त पूरा होने से पहले 2005
में भारतीय पेटेंट कानून को भी बदला गया, मगर भारतीय दवा कंपनियों,
जनसंगठनों, कुछ गरीब हितैषी सांसदों और वामदलों के दबाव में सरकार ने
पेटेंट कानून में बदलाव करते वक्त इसमें बड़ी कंपनियों की तबाही से बचने के
लिए एक पतली गली छोड़ दी।
वर्ष 2005 में बदलाव के वक्त जोड़ा गया भारतीय
पेटेंट कानून, 1970 का भाग 3 (डी) कहता है कि बाजार में पहले से ही मौजूद
दवा के यौगिकों (दवा बनाने में काम आने वाले तत्त्व) में घालमेल करके तैयार
की गई दवा पर पेटेंट नहीं दिया जाएगा। भारतीय पेटेंट कानून का यह नियम बड़ी
दवा कंपनियों के गले की फांस बना हुआ है और नोवार्तिस इसी बुनियादी नियम
के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में पहुंच चुकी है।
भारतीय दवा कंपनियों का
कहना है कि ग्लीवेक कोई नई दवा नहीं है और इसको बनाने का नुस्खा पहले से ही
दवा कंपनियों को मालूम है। नोवार्तिस ने पुराने नुस्खे में थोड़ा बदलाव
करके ग्लीवेक पेश कर दी है और इस पर पेटेंट का दावा कर रही है। भारतीय
पेटेंट कानून, दवा महानिदेशक को यह अधिकार देता है कि अगर किसी पेटेंट की
गई दवा की मांग के मुताबिक आपूर्ति नहीं हो रही है और दवा का दाम आम आदमी
की पहुंच से बाहर है तो जरूरी लाइसेंस (सीएल) जारी करके उस खास दवा को
बनाने का अधिकार दूसरी कंपनियों को दे दिया जाना चाहिए।
भारत के पूर्व
पेटेंट, डिजाइन और ट्रेडमार्क महा नियंत्रक पीएच कुरियन ने तमाम लॉबिंग और
दबावों के बावजूद लीवर कैंसर की दवा नैक्सावार बनाने के लिए हैदराबाद की
नाटको फार्मा को ओएल यानी जरूरी लाइसेंस जारी कर दिया। जर्मनी की बायर
हेल्थकेयर कंपनी नैक्सावार दवा बनाती है। बायर कीमत ऊंची रखने के लिए इस
दवा को भारत में बनाने के बजाय मांग के मुकाबले कम मात्रा में अपने विदेशी
संयंत्रों से आयात करती है और एक महीने की दवा तीन लाख रुपए में बेचती है।
कुरियन
ने इस दवा को बनाने का जरूरी लाइसेंस जारी करके बिल्कुल सही किया। बौद्धिक
अधिकारों के कारोबार से संबंधित पहलू (ट्रिप्स) समझौते पर हस्ताक्षर करने
वाले हरेक देश को दवा बनाने के लिए जरूरी लाइसेंस जारी करने का अधिकार है,
लेकिन किसी भी देश में भारत के पीएच कुरियन ने पहली मर्तबा इसका इस्तेमाल
/> किया है। बायर भी कुरियन के फैसले के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में पहुंच चुकी
है।
नोवार्तिस और बायर के मामले पर पूरी दुनिया की नजर है। फाइजर,
सनोफी, एस्ट्राजेनेका, रौचे, एबट और मर्क ऐंड कॉरपोरेशन जैसी अमेरिकी और
यूरोप की भीमकाय दवा कंपनियां खुल कर नोवार्तिस और बायर के समर्थन में
लामबंद हो चुकी हैं। नोवार्तिस और बायर के पक्ष में लॉबिंग के अलावा
कारोबारी संगठन हर रोज लंबे-चौड़े इश्तहार ला रहे हैं। विडंबना यह है कि
दुनिया की निन्यानबे फीसद लोगों की तकदीर तय करने वाली इस जंग में गरीबों
के लिए लॉबिंग करने वालों की तादाद बेहद कम है। अगर यह फैसला नोवार्तिस और
बायर के पक्ष में आता है तो भारतीय कंपनियों की सस्ती दवाएं मुहैया कराने
की कवायद थम जाने की पूरी संभावना है।
मगर याद रहे, नोवार्तिस जैसी
मुनाफाखोर कंपनियों और मरीजों की इस जंग में सबसे बड़ी खलनायक सरकार है।
कितनी बार दोहराया जाए कि एड्स और कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों से बचने के
लिए महीने में तीन लाख रुपए की दवाएं भारत के चंद धन्नासेठों को छोड़ कर
बाकी लोग नहीं खरीद सकते और मरीजों को नोवार्तिसों और बायरों से बचाने के
लिए सरकार को दवाओं के शोध में पैसा लगाना होगा। अगर नैक्सावार जैसी दवा को
सरकारी प्रयोगशाला में जनता के पैसे से ईजाद करके किसी जेनेरिक कंपनी की
ओर से बनाया जाएगा तो गरीब जनता को बड़ी दवा कंपनियों के मुनाफे की हवस का
शिकार होने से बचाया जा सकता है।
इस मामले की जड़ में कैंसर के इलाज में काम आने वाली दवा इमातिनिब मेसयलेट है। रक्तकैंसर के रोगियों के लिए इमातिनिब मेसयलेट रामबाण है और नोवार्तिस इस दवा को ग्लीवेक ब्रांड के नाम से बेचती है। ग्लीवेक को 2001 में पेश किया गया था और दुनिया के कई देशों में नोवार्तिस ने इस दवा पर पेटेंट अधिकार हासिल कर रखा है, मगर भारतीय पेटेंट कार्यालय ने नोवार्तिस को ग्लीवेक पर पेटेंट देने से मना कर दिया। यहीं से भारतीय पेटेंट कानून के खिलाफ नोवार्तिस ने जंग छेड़ दी और अब मामला निचली अदालतों से होते हुए उच्चतम न्यायालय में पहुंच चुका है, जहां से आने वाला आखिरी फैसला पेटेंट बनाम जनहित की बहस की दिशा तय करेगा।
पेटेंट एक ऐसा बौद्धिक अधिकार है जो कोई नई खोज करने वाले व्यक्ति या संस्था को तयशुदा समय के लिए दिया जाता है। चूंकि नई खोज करने से पहले उस व्यक्ति या संस्था को लंबे समय तक शोध करना पड़ता है और इस दरम्यान उसका खर्च भी होता है, लिहाजा पेटेंट को उसकी मेहनत और पूंजी का प्रतिफल माना जाता है। पेटेंट की यह किताबी परिभाषा विकसित देशों में तैयार की गई है और तकनीकी रूप से उन्नत लोग पेटेंट का इस्तेमाल अपना खजाना भरने में करते हैं। मिसाल के तौर पर एड्स और कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों के इलाज में काम आने वाली दवाओं के पेटेंट अधिकारों को लिया जा सकता है।
दुनिया की आला सात बड़ी दवा कंपनियां पश्चिमी देशों से हैं और इन्होंने अपने संसाधनों के बल पर एड्स और कैंसर की दवाएं ईजाद की हैं। किसी भी दवा पर पेटेंट हासिल करने के बाद उस दवा को बनाने का अधिकार एक खास कंपनी को ही होता है और वह कंपनी दवा के दाम में इजाफा कर देती है।
पेटेंट वाली दवाओं के ऊंचे दामों से जनता को लूटने की बात नोवार्तिस की दवा ग्लीवेक के उदाहरण से समझी जा सकती है। किसी कैंसर रोगी को एक महीना ग्लीवेक दवा खाने के लिए एक लाख बीस हजार रुपए खर्च करने पड़ेंगे, वहीं भारतीय कंपनियां यह दवा आठ हजार रुपए महीना में मुहैया करवाती हैं। लीवर कैंसर के इलाज में काम आने वाली दवा सोराफेनिब जर्मनी की बायर हेल्थकेयर दवा कंपनी नैक्सावार ब्रांड के नाम से दो लाख अस्सी हजार रुपए में बेचती है, वहीं हैदराबाद की नाटको फार्मास्टिक्युल यही दवा आठ हजार आठ सौ रुपए में उपलब्ध कराती है।
गौर करने लायक बात यह है कि इन दवाओं की लागत पांचहजार है। जाहिर है, सवाल वाजिब मुनाफा हासिल करने का नहीं है। दवा के शोध पर खर्च हुए धन को वसूलने के लिए पेटेंट का अधिकार दिया जाना चाहिए, मगर बड़ी दवा कंपनियों ने पेटेंट अधिकार को लूट के लाइसेंस में बदल लिया है। पांच हजार की दवा को तीन लाख रुपए महीने में बेच कर कौन-सा जनहित पूरा किया जा रहा है? दुनिया की निन्यानबे फीसद आबादी में छत्तीस लाख रुपए सालाना कीमत वाली दवा खरीदने की कुव्वत नहीं है। यह नोवार्तिस जैसी दवा कंपनियों के मुनाफे का लाइलाज रोग है।
अक्सर कई जानकार तर्क देते हैं कि भारत में कुछ लोगों को विश्व बैंक और डब्ल्यूटीओ जैसे नामों पर छाती पीटने की आदत हो गई है, जबकि आम जनता पर अंतरराष्ट्रीय समझौतों का कोई खास असर नहीं पड़ता है।
याद रहे, 1995 में डब्ल्यूटीओ पर हस्ताक्षर करने से पहले भारत के पेटेंट कानून पूरी दुनिया में आला दर्जे के माने जाते थे। भारतीय पेटेंट कानून, 1970 का सबसे अहम प्रावधान यह था कि जनता पर सीधे-सीधे असर डालने वाले दो क्षेत्रों (दवा और खाद्य सामग्री) में किसी कंपनी को निर्माण और वितरण का एकाधिकार नहीं दिया जाएगा। यह ऐसा क्रांतिकारी नियम था जिसने भारत के साथ ही पूरी दुनिया के दवा उद्योग की दिशा बदल कर रख दी। भारतीय कंपनियों ने इस नियम की नैया से पेटेंट का दरिया पार किया और पूरी दुनिया को जेनेरिक दवाओं की आपूर्ति करना शुरू कर दिया। गौरतलब है कि जब पेटेंट कानून के दायरे से बाहर किसी दवा का निर्माण किया जाता है तो उसे जेनेरिक दवा कहा जाता है। जेनेरिक दवा और ब्रांडेड दवा में कीमत के अलावा कोई फर्क नहीं होता, और दोनों तरह की दवाएं एक जैसा ही असर दिखाती हैं।
जेनेरिक दवा के निर्माण से किसी भी कंपनी का शोध पर होने वाला खर्चा बच पाता है, इस कारण जेनेरिक दवाओं की कीमत ब्रांडेड दवाओं के मुकाबले बेहद कम (बीस गुना तक कम) होती है। मसलन, खांसी का इलाज करने वाली बड़ी कंपनियों का ब्रांडेड कफ सीरप (पचास मिलीलीटर) अस्सी रुपए से ज्यादा में मिलता है, वहीं जेनेरिक दवा कंपनियां यही दवा दस से पंद्रह रुपए के बीच बेचती हैं।
कुछ अरसा पहले तक एचआइवी-एड्स के सबसे बड़े शिकार अफ्रीकी देशों में कई सरकारें अपने जीडीपी का आधा हिस्सा केवल इसी बीमारी की दवाओं पर
खर्च करती थीं। अब भारतीय दवा कंपनियां बड़े पैमाने पर एशिया, अफ्रीका और
दक्षिण अमेरिका के देशों में एड्स और कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों के साथ
ही बाकी बीमारियों की दवाओं की भी बेहद कम दामों पर आपूर्ति कर रही हैं।
एड्स
के खिलाफ लड़ रही अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने कई बार इस बात को दोहराया है
कि अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में एड्स के नब्बे फीसद मरीज केवल भारतीय
कंपनियों की सस्ती दवाओं की वजह से जिंदा हैं। विकासशील और गरीब देशों को
सस्ती दवाएं उपलब्ध कराने की इसी क्षमता के कारण भारतीय दवा कंपनियों को अब
‘दक्षिण की फार्मेसी’ कहा जाने लगा है।
गरीब जनता को वाजिब दामों पर
दवाएं मुहैया करवा कर भारतीय दवा कंपनियां सेवा औरमेवा,दोनों हासिल कर
रही थीं, मगर इस कवायद में विकसित देशों खासकर अमेरिकी दवा कंपनियों का
बाजार खत्म होने लगा। विकसित देशों में दवाओं के बाजार का दोहन पूरा हो
चुका है और उपभोक्ता-जागरूकता के ऊंचे स्तर के चलते वहां मुनाफे की कम
संभावना है। ऐसे में विकासशील और गरीब देश बड़ी दवा कंपनियों के निशाने पर आ
गए। भारत जैसे देशों में लागू प्रगतिशील पेटेंट कानून की बाधाएं दूर करने
के लिए डब्ल्यूटीओ का सहारा लिया गया और दवा जैसी बुनियादी चीजें भी पेटेंट
कानून के दायरे में लाई गर्इं।
1995 में डब्ल्यूटीओ के उरुग्वे दौर
में इस बात पर सहमति बनी थी और सदस्य-देशों को अपने कानूनों में बदलाव करने
के लिए दस साल की मोहलत दी गई थी। दस साल का वक्त पूरा होने से पहले 2005
में भारतीय पेटेंट कानून को भी बदला गया, मगर भारतीय दवा कंपनियों,
जनसंगठनों, कुछ गरीब हितैषी सांसदों और वामदलों के दबाव में सरकार ने
पेटेंट कानून में बदलाव करते वक्त इसमें बड़ी कंपनियों की तबाही से बचने के
लिए एक पतली गली छोड़ दी।
वर्ष 2005 में बदलाव के वक्त जोड़ा गया भारतीय
पेटेंट कानून, 1970 का भाग 3 (डी) कहता है कि बाजार में पहले से ही मौजूद
दवा के यौगिकों (दवा बनाने में काम आने वाले तत्त्व) में घालमेल करके तैयार
की गई दवा पर पेटेंट नहीं दिया जाएगा। भारतीय पेटेंट कानून का यह नियम बड़ी
दवा कंपनियों के गले की फांस बना हुआ है और नोवार्तिस इसी बुनियादी नियम
के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में पहुंच चुकी है।
भारतीय दवा कंपनियों का
कहना है कि ग्लीवेक कोई नई दवा नहीं है और इसको बनाने का नुस्खा पहले से ही
दवा कंपनियों को मालूम है। नोवार्तिस ने पुराने नुस्खे में थोड़ा बदलाव
करके ग्लीवेक पेश कर दी है और इस पर पेटेंट का दावा कर रही है। भारतीय
पेटेंट कानून, दवा महानिदेशक को यह अधिकार देता है कि अगर किसी पेटेंट की
गई दवा की मांग के मुताबिक आपूर्ति नहीं हो रही है और दवा का दाम आम आदमी
की पहुंच से बाहर है तो जरूरी लाइसेंस (सीएल) जारी करके उस खास दवा को
बनाने का अधिकार दूसरी कंपनियों को दे दिया जाना चाहिए।
भारत के पूर्व
पेटेंट, डिजाइन और ट्रेडमार्क महा नियंत्रक पीएच कुरियन ने तमाम लॉबिंग और
दबावों के बावजूद लीवर कैंसर की दवा नैक्सावार बनाने के लिए हैदराबाद की
नाटको फार्मा को ओएल यानी जरूरी लाइसेंस जारी कर दिया। जर्मनी की बायर
हेल्थकेयर कंपनी नैक्सावार दवा बनाती है। बायर कीमत ऊंची रखने के लिए इस
दवा को भारत में बनाने के बजाय मांग के मुकाबले कम मात्रा में अपने विदेशी
संयंत्रों से आयात करती है और एक महीने की दवा तीन लाख रुपए में बेचती है।
कुरियन
ने इस दवा को बनाने का जरूरी लाइसेंस जारी करके बिल्कुल सही किया। बौद्धिक
अधिकारों के कारोबार से संबंधित पहलू (ट्रिप्स) समझौते पर हस्ताक्षर करने
वाले हरेक देश को दवा बनाने के लिए जरूरी लाइसेंस जारी करने का अधिकार है,
लेकिन किसी भी देश में भारत के पीएच कुरियन ने पहली मर्तबा इसका इस्तेमाल
/> किया है। बायर भी कुरियन के फैसले के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में पहुंच चुकी
है।
नोवार्तिस और बायर के मामले पर पूरी दुनिया की नजर है। फाइजर,
सनोफी, एस्ट्राजेनेका, रौचे, एबट और मर्क ऐंड कॉरपोरेशन जैसी अमेरिकी और
यूरोप की भीमकाय दवा कंपनियां खुल कर नोवार्तिस और बायर के समर्थन में
लामबंद हो चुकी हैं। नोवार्तिस और बायर के पक्ष में लॉबिंग के अलावा
कारोबारी संगठन हर रोज लंबे-चौड़े इश्तहार ला रहे हैं। विडंबना यह है कि
दुनिया की निन्यानबे फीसद लोगों की तकदीर तय करने वाली इस जंग में गरीबों
के लिए लॉबिंग करने वालों की तादाद बेहद कम है। अगर यह फैसला नोवार्तिस और
बायर के पक्ष में आता है तो भारतीय कंपनियों की सस्ती दवाएं मुहैया कराने
की कवायद थम जाने की पूरी संभावना है।
मगर याद रहे, नोवार्तिस जैसी
मुनाफाखोर कंपनियों और मरीजों की इस जंग में सबसे बड़ी खलनायक सरकार है।
कितनी बार दोहराया जाए कि एड्स और कैंसर जैसी जानलेवा बीमारियों से बचने के
लिए महीने में तीन लाख रुपए की दवाएं भारत के चंद धन्नासेठों को छोड़ कर
बाकी लोग नहीं खरीद सकते और मरीजों को नोवार्तिसों और बायरों से बचाने के
लिए सरकार को दवाओं के शोध में पैसा लगाना होगा। अगर नैक्सावार जैसी दवा को
सरकारी प्रयोगशाला में जनता के पैसे से ईजाद करके किसी जेनेरिक कंपनी की
ओर से बनाया जाएगा तो गरीब जनता को बड़ी दवा कंपनियों के मुनाफे की हवस का
शिकार होने से बचाया जा सकता है।