जनसत्ता 20 अक्टुबर, 2012: दिल्ली के एक अग्रणी अस्पताल में पिछले दिनों एक
अलग किस्म के सम्मान समारोह का आयोजन हुआ।
महज सत्रह साल की उम्र में दुर्घटना की शिकार हुई पायल (बदला हुआ नाम)-
जिसे डॉक्टरों ने ब्रेन-डेड घोषित किया था उसके माता-पिता इस समारोह के
केंद्र में थे, जिनके बेहद कठिन निर्णय से तीन लोगों की जिंदगी बची और दो
लोगों की दृष्टि वापस लौटी। निश्चय ही उनके लिए यह अपनी जिंदगी का सबसे
कठिन निर्णय था, जब उन्होंने उसकी इंद्रियों को दान देने के प्रति सहमति
दर्ज करा दी।
पिछले साल खबर आई थी कि गाजियाबाद के एक बासठ वर्षीय
व्यक्ति ने मरणोपरांत पंद्रह जरूरतमंद मरीजों को नई जिंदगी शुरू करने का
मौका दिया। इतना ही नहीं, इसी कदम से उस शख्स ने हिंदुस्तान के अग्रणी
चिकित्सा विज्ञान संस्थान ‘एम्स’ के बोन बैंक अर्थात हड्डी बैंक को नवजीवन
प्रदान किया। सुनील ग्रोवर (परिवर्तित नाम)- जिनकी मृत्यु असमय हृदयगति बंद
होने से छब्बीस दिसंबर को हुई- उन्होंने अपनी मृत्यु के पहले आत्मीयजनों
को सूचित कर दिया था कि उनके समूचे शरीर को चिकित्सा संस्थान को दिया जाए
ताकि उसका वह यथोचित उपयोग कर सके। विडंबना यही थी कि हृदयरोगी होने के
चलते सिर्फ उनके कार्निया और हड्डियों का इस्तेमाल किया जा सका।
यह
सकारात्मक है कि चाहे पायल हो या सुनील ग्रोवर, ऐसे नाम आज सुनाई अवश्य दे
रहे हैं और ऐसे आत्मीयजन भी नजर आ रहे हैं जो तमाम रूढ़ मान्यताओं से परे
जाकर अंगदान के लिए तैयार हो रहे हैं। मगर जितने बड़े पैमाने पर अंग
प्रत्यारोपण की जरूरत है उसकी तुलना में यह फेहरिस्त बहुत छोटी है।
देश
में हर साल एक लाख पचहत्तर हजार मरीजों को गुर्दा प्रत्यारोपण की जरूरत
होती है, लेकिन हर साल महज पांच हजार मरीजों की जरूरत पूरी हो पाती है। हर
साल यकृत प्रत्यारोपण की जरूरत पचास हजार मरीजों को होती है, लेकिन उनमें
से सात सौ को प्रत्यारोपण का लाभ मिल पाता है। हर साल पचास हजार लोगों को
हृदय प्रत्यारोपण की जरूरत है, मगर पिछले साल सिर्फ तीस लोगों को
प्रत्यारोपण का फायदा मिल सका। यही हाल नेत्रहीनों का है। हर साल करीब एक
लाख लोगों को कार्निया के प्रत्यारोपण की जरूरत होती है, मगर सिर्फ पचीस
हजार लोगों की जरूरत पूरी हो पाती है। साफ है कि जरूरत के मुकाबले एक चौथाई
लोगों को ही आंखें मिल पाती हैं।
जानकारों के मुताबिक हर साल करीब दो
लाख लोग अंग प्रत्यारोपण न होने की वजह से असमय मौत के मुंह में पहुंच
जातेहैं। विश्लेषकों का मानना है कि स्थिति और भी खराब होने वाली है,
क्योंकि जैसे-जैसे जीवनरेखा लंबी हो चली है उसी के साथ इंद्रियों के रोग और
मधुमेह जैसी बीमारियां- जो गुर्दा फेल होने का अहम कारण हैं- बढ़ने वाली
हैं।
गौरतलब है कि ‘एम्स’ अर्थात अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान विज्ञान
संस्थान में, उसकी स्थापना के समय से 1999 तक महज नौ लोगों द्वारा किए गए
हड्डीदान से दो सौ पचास से अधिक मरीजों को फायदा हो सका है। कई सारी जटिल
सर्जरी या बोन ट्यूमर या दुर्घटना के बाद हड्डी की हानिके चलते हड्डियोें
को प्रतिस्थापित करना पड़ता है। यह भी महत्त्वपूर्ण है कि अगर कोई हड्डीदान
कर दे तब भी शरीर पर कोई विरूपता नहीं आती। लकड़ी और सिंथेटिक वूल के जरिए
डॉक्टर मृत शरीर को पुराने रूप में ला देते हैं, न हाथ-पांव टेढ़े-मेढ़े
दिखते हैं, न कोई अन्य विकृति।
सवाल उठता है कि इंद्रियदान या देहदान का अनुपात इतना कम क्यों है?
दिल्ली
के एम्स के आर्गन रिट्रीवल बैंकिंग आर्गनाइजेशन (ओआरबीओ) की प्रमुख के
मुताबिक अंगदान में सबसे बड़ी बाधा लोगों की अंधश्रद्धा है। दुर्घटना में
घायल और मृत व्यक्ति के रिश्तेदार भी इसमें आड़े आते हैं। यह जानते हुए कि
मृत शरीर अब मिट्टी में दफन हो जाएगा या आग के हवाले होगा, वे अंगदान का
फैसला लेने से हिचकिचाते हैं। इतना भी नहीं सोचते कि मृतक की आंखें किसी को
दृष्टि प्रदान कर सकती हैं।
शिक्षित कहे जाने वाले तबके में भी भ्रांत
धारणाओं, अंधश्रद्धा या जानकारी की कमी दिखाई देती है। अक्सर रिश्तेदारों
को लगता है कि दाता का शरीर विद्रूप हो जाएगा, जिसकी वजह से वे आगे नहीं
आते। कइयों की धार्मिक मान्यताएं उन्हें ऐसा करने से रोकती हैं। उन्हें
लगता है कि ईश्वर ने जिस रूप में मनुष्य को भेजा है, उसी रूप में उसे लौटा
देना चाहिए। एक दिक्कत यह भी आती है कि ऐसे संस्थानों, अस्पतालों की कमी
है, जहां अंग प्रत्यारोपण किए जा सकते हैं।
कई बार कानूनी प्रक्रियाएं
ही इतना समय खा जाती हैं कि मृतक व्यक्ति का शरीर इंद्रिय प्रत्यारोपण के
लिए बेकार हो जाता है। उदाहरण के लिए, पिछले दिनों एम्स के तत्त्वावधान में
हुए एक अध्ययन में पाया गया कि शुरुआती जांच और पोस्टमार्टम में ही इतना
समय बीत जाता है कि साठ फीसद मामलों में आंखों का कार्निया प्रत्यारोपण का
काम मुमकिन नहीं हो पाता। संस्थान की तरफ से की गई गुजारिश के मद्देनजर
दिल्ली पुलिस ने अपने तमाम जांच अधिकारियों को आदेश दिया है कि नेत्र
प्रत्यारोपण की संभावना को देखते हुए वे ऐसी जांच में अधिक तेजी लाएं।
बहुत
कम लोग देहदान या अंगदान के अलग-अलग आयामों को जानते होंगे। डॉक्टर बताते
हैं कि सांस रुकने के बाद भी शरीर के कई हिस्सों को निकाल कर दूसरों के
शरीर पर प्रत्यारोपित किया जा सकता है। नेत्रदान के अलावा, आंख के
पारदर्शी परदे (कार्निया), हड्डियों, त्वचा, कुछ मुलायम ऊतक, गुर्दा या मूत्रपिंड, यकृत या जिगर, हृदय, फेफडेÞ जैसे महत्त्वपूर्ण अवयवों को आसानी से प्रत्यारोपित किया जा सकता है।
अगर
दिल की टिक-टिक बंद हो भी जाए तब भी नेत्रदान या त्वचादान संभव होता है।
लेकिन जिस व्यक्ति के दिल की टिक-टिक जारी है, मगर ब्रेनडेथ
(मस्तिष्क-मृत्यु) हुई है, उसके हृदय और सांस की प्रक्रिया को कृत्रिम
उपकरणों के सहारे जारी रखते हुए किडनी, फेफडेÞ, यकृत या जिगर और स्वादुपिंड
जैसे अवयव प्रत्यारोपण के लिए अलग किए जा सकते हैंं। इन हिस्सों को शरीर
से अलग करने के लिए चार-पांच घंटे का आॅपरेशन चलता है। यह नहीं भूलना चाहिए
कि अंगदान के बाद भी दाता की मृतदेह पर किसी तरह की विद्रूपता नहीं आती और
ब्रेनडेड व्यक्ति भी कई लोगों कोजीवनदानदे सकता है। अगर अंगदान से आगे
बढ़ कर व्यक्ति देहदान करे तो उसका शरीर चिकित्सा विज्ञान के विद्यार्थियों
के प्रशिक्षण के लिए प्रयोग में लाया जा सकता है।
इस मामले में भारत
में पिछड़ेपन का आलम यह है कि प्रति दस लाख लोगों में महज 0़ 08 लोग ही
अंगदान करते हैं। जबकि पश्चिमी देशों में यह आंकड़ा कई गुना है। मसलन, स्पेन
में प्रति दस लाख की आबादी पर 35़1 लोग अंगदान करते हैं। ब्रिटेन में यह
आंकड़ा सत्ताईस है, अमेरिका में छब्बीस, कनाडा में चौदह तो आस्टेÑलिया में
ग्यारह। वैसे इन देशों में भी इस मसले पर कितनी जनजागृति की आवश्यकता है
इसका अहसास नीदरलैंड में टीवी पर आयोजित एक रियलिटी शो के दौरान कुछ साल
पहले हुआ था।
इस बहुप्रचारित रियलिटी शो की विषयवस्तु थी ‘एक महिला तय
करना चाहती है कि वह अपनी किडनी किसे दान करे’। इस कार्यक्रम को यूरोप के
अन्य देशों और अमेरिका में भी लाखों लोगों ने देखा। आधा घंटा कार्यक्रम
चलने के बाद यह बात उजागर हुई कि यह एक फर्जी (फेक) शो है। लेकिन इसका एक
सार्थक नतीजा यह निकला कि लोगों को इस बात का गहराई से अहसास हुआ कि यह
समस्या कितनी बड़ी है। बारह हजार से अधिक लोग आगे आए जिन्होंने घोषणा की कि
वे अपना गुर्दा दान देने के लिए तैयार हैं।
भारत में अंगदान या देहदान
को लेकर जागरूकता की कमी के बरक्स तमिलनाडु अपवाद-सा दिखता है। नब्बे के
दशक के उत्तरार्ध में यहां संपन्न पहले फेफड़ा प्रत्यारोपण आॅपरेशन के बाद
से अब तक यहां तेरह लाख अंगदान- मृत शरीरों से- संपन्न किए गए हैं। इसमें
जहां तमिलनाडु सरकार के समर्थन ने मदद पहुंचाई है, वहीं जागरूक समूहों,
संगठनों द्वारा इस मसले पर फैलाई गई जनचेतना का भी हाथ रहा है। चेन्नई के
अपोलो अस्पताल के एक वरिष्ठ सर्जन बताते हैं कि यह सरकार की कोशिशों का ही
नतीजा है कि हर अस्पताल में प्रत्यारोपण समन्वयक की नियुक्ति की गई है।
वर्ष
1994 में सरकार ने ‘मानवीय इंद्रियों के प्रत्यारोपण के लिए अधिनियम,
1994’ कानून बनाया ताकि विभिन्न किस्म के अंगदान और प्रत्यारोपण गतिविधियों
को सुचारु रूप दिया जा सके। चिकित्सकीय कार्यों के लिए मानवीय इंद्रियों
को निकालने, उनका भंडारण करने और उनके प्रत्यारोपण को नियमित करने के अलावा
इस कानून का मकसद था कि इंद्रियों के व्यावसायिक लेन-देन को रोका जा सके,
ब्रेनडेड को स्वीकार किया जाए और इन मरीजों को संभावित इंद्रियदाताओं के
तौर पर प्रयुक्त किया जाए। ध्यान रहे कि प्रस्तुत अधिनियम ने पहली दफा
ब्रेनडेड की अवधारणा को कानूनी जामा पहनाया। इस कानून ने ब्रेनडेड दाताओं
से इंद्रिय प्रत्यारोपण को मुमकिन बनाया है। इसमें सबसे बड़ी बाधा मरीज के
आत्मीय रिश्तेदारों को शिक्षित करने की होती है, जिसमें दुर्घटना में
ब्रेनडेड हुए मरीजों को कृत्रिम श्वास प्रणाली से ‘जिंदा’ रखा जाता है।
पिछले दिनों दिल्ली सरकार द्वारा प्रस्तावित नियम इस समस्या का सामना करता
दिखता है, जिसमें ड्राइविंग लाइसेंस बनवाते वक्त ही व्यक्ति को यह बताने का
विकल्प दिया गया है कि किसी आकस्मिक दुर्घटना में क्या वह इंद्रियदान करना
चाहेगा।
सकारात्मक चीज यह है कि लोगोंमें धीरे-धीरे बढ़ती जागृति
सामूहिक प्रयासों की शक्ल धारण कर रही है। इसलिए ऐसी खबरें भी सुनाई पड़ती
हैं कि अपने शरीर को चिकित्सकीय अनुसंधान के लिए देने की घोषणा करने वाली
असम की प्रथम महिला एलोरा रॉयचौधरी की याद में बना ‘एलोरा विचार मंच’ इसी
मुहिम में जुटा है।’ या ‘जयपुर की एक सामाजिक संस्था ने अभियान चला कर
देहदान के दो सौ दस लोगों के शपथ-पत्र स्वास्थ्य मंत्री को प्रस्तुत किए।’
इस
संदर्भ में केरल के एक गांव की पहल भी रेखांकित करने लायक है। केरल के
अल्लपुझा जिले के ग्राम वेलियेंबरा में चौबीस अक्तूबर को एक अलग तरह का
कार्यक्रम होगा। इस समारोह में जिले के तमाम वरिष्ठ अधिकारी भी उपस्थित
होंगे और गांव के निवासी अपने सहमति पत्र उन्हें सौंपेंगे। मलयाली फिल्मों
के मशहूर अभिनेता कैलाश भी इस कार्यक्रम में हाजिर रहेंगे। दो सौ परिवारों
वाले इस गांव ने यह संकल्प लिया है कि हर परिवार के अठारह साल से ऊपर के दो
सदस्य अंगदान करेंगे।
निश्चित ही यह सब स्वत:स्फूर्त मामला नहीं है।
इसके पीछे गांव के एक स्पोर्ट्स क्लब के नौजवानों की पहल दिखती है। किडनी न
बदल पाने के कारण अपने क्लब के एक सदस्य की कुछ माह पहले हुई मौत ने इन
नौजवानों को इस पहल के प्रेरित किया। उन्होंने तय किया कि आइंदा गरीबी के
चलते किसी के अंग प्रत्यारोपण में बाधा नहीं आने देंगे।
भारत में
जहां अंगदान या देहदान का चलन न के बराबर है, वेलियेंबरा का यह संकल्प एक
प्रेरक मिसाल है। क्या शेष हिंदुस्तान भी यही संकल्प लेने के लिए तैयार है!
अलग किस्म के सम्मान समारोह का आयोजन हुआ।
महज सत्रह साल की उम्र में दुर्घटना की शिकार हुई पायल (बदला हुआ नाम)-
जिसे डॉक्टरों ने ब्रेन-डेड घोषित किया था उसके माता-पिता इस समारोह के
केंद्र में थे, जिनके बेहद कठिन निर्णय से तीन लोगों की जिंदगी बची और दो
लोगों की दृष्टि वापस लौटी। निश्चय ही उनके लिए यह अपनी जिंदगी का सबसे
कठिन निर्णय था, जब उन्होंने उसकी इंद्रियों को दान देने के प्रति सहमति
दर्ज करा दी।
पिछले साल खबर आई थी कि गाजियाबाद के एक बासठ वर्षीय
व्यक्ति ने मरणोपरांत पंद्रह जरूरतमंद मरीजों को नई जिंदगी शुरू करने का
मौका दिया। इतना ही नहीं, इसी कदम से उस शख्स ने हिंदुस्तान के अग्रणी
चिकित्सा विज्ञान संस्थान ‘एम्स’ के बोन बैंक अर्थात हड्डी बैंक को नवजीवन
प्रदान किया। सुनील ग्रोवर (परिवर्तित नाम)- जिनकी मृत्यु असमय हृदयगति बंद
होने से छब्बीस दिसंबर को हुई- उन्होंने अपनी मृत्यु के पहले आत्मीयजनों
को सूचित कर दिया था कि उनके समूचे शरीर को चिकित्सा संस्थान को दिया जाए
ताकि उसका वह यथोचित उपयोग कर सके। विडंबना यही थी कि हृदयरोगी होने के
चलते सिर्फ उनके कार्निया और हड्डियों का इस्तेमाल किया जा सका।
यह
सकारात्मक है कि चाहे पायल हो या सुनील ग्रोवर, ऐसे नाम आज सुनाई अवश्य दे
रहे हैं और ऐसे आत्मीयजन भी नजर आ रहे हैं जो तमाम रूढ़ मान्यताओं से परे
जाकर अंगदान के लिए तैयार हो रहे हैं। मगर जितने बड़े पैमाने पर अंग
प्रत्यारोपण की जरूरत है उसकी तुलना में यह फेहरिस्त बहुत छोटी है।
देश
में हर साल एक लाख पचहत्तर हजार मरीजों को गुर्दा प्रत्यारोपण की जरूरत
होती है, लेकिन हर साल महज पांच हजार मरीजों की जरूरत पूरी हो पाती है। हर
साल यकृत प्रत्यारोपण की जरूरत पचास हजार मरीजों को होती है, लेकिन उनमें
से सात सौ को प्रत्यारोपण का लाभ मिल पाता है। हर साल पचास हजार लोगों को
हृदय प्रत्यारोपण की जरूरत है, मगर पिछले साल सिर्फ तीस लोगों को
प्रत्यारोपण का फायदा मिल सका। यही हाल नेत्रहीनों का है। हर साल करीब एक
लाख लोगों को कार्निया के प्रत्यारोपण की जरूरत होती है, मगर सिर्फ पचीस
हजार लोगों की जरूरत पूरी हो पाती है। साफ है कि जरूरत के मुकाबले एक चौथाई
लोगों को ही आंखें मिल पाती हैं।
जानकारों के मुताबिक हर साल करीब दो
लाख लोग अंग प्रत्यारोपण न होने की वजह से असमय मौत के मुंह में पहुंच
जातेहैं। विश्लेषकों का मानना है कि स्थिति और भी खराब होने वाली है,
क्योंकि जैसे-जैसे जीवनरेखा लंबी हो चली है उसी के साथ इंद्रियों के रोग और
मधुमेह जैसी बीमारियां- जो गुर्दा फेल होने का अहम कारण हैं- बढ़ने वाली
हैं।
गौरतलब है कि ‘एम्स’ अर्थात अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान विज्ञान
संस्थान में, उसकी स्थापना के समय से 1999 तक महज नौ लोगों द्वारा किए गए
हड्डीदान से दो सौ पचास से अधिक मरीजों को फायदा हो सका है। कई सारी जटिल
सर्जरी या बोन ट्यूमर या दुर्घटना के बाद हड्डी की हानिके चलते हड्डियोें
को प्रतिस्थापित करना पड़ता है। यह भी महत्त्वपूर्ण है कि अगर कोई हड्डीदान
कर दे तब भी शरीर पर कोई विरूपता नहीं आती। लकड़ी और सिंथेटिक वूल के जरिए
डॉक्टर मृत शरीर को पुराने रूप में ला देते हैं, न हाथ-पांव टेढ़े-मेढ़े
दिखते हैं, न कोई अन्य विकृति।
सवाल उठता है कि इंद्रियदान या देहदान का अनुपात इतना कम क्यों है?
दिल्ली
के एम्स के आर्गन रिट्रीवल बैंकिंग आर्गनाइजेशन (ओआरबीओ) की प्रमुख के
मुताबिक अंगदान में सबसे बड़ी बाधा लोगों की अंधश्रद्धा है। दुर्घटना में
घायल और मृत व्यक्ति के रिश्तेदार भी इसमें आड़े आते हैं। यह जानते हुए कि
मृत शरीर अब मिट्टी में दफन हो जाएगा या आग के हवाले होगा, वे अंगदान का
फैसला लेने से हिचकिचाते हैं। इतना भी नहीं सोचते कि मृतक की आंखें किसी को
दृष्टि प्रदान कर सकती हैं।
शिक्षित कहे जाने वाले तबके में भी भ्रांत
धारणाओं, अंधश्रद्धा या जानकारी की कमी दिखाई देती है। अक्सर रिश्तेदारों
को लगता है कि दाता का शरीर विद्रूप हो जाएगा, जिसकी वजह से वे आगे नहीं
आते। कइयों की धार्मिक मान्यताएं उन्हें ऐसा करने से रोकती हैं। उन्हें
लगता है कि ईश्वर ने जिस रूप में मनुष्य को भेजा है, उसी रूप में उसे लौटा
देना चाहिए। एक दिक्कत यह भी आती है कि ऐसे संस्थानों, अस्पतालों की कमी
है, जहां अंग प्रत्यारोपण किए जा सकते हैं।
कई बार कानूनी प्रक्रियाएं
ही इतना समय खा जाती हैं कि मृतक व्यक्ति का शरीर इंद्रिय प्रत्यारोपण के
लिए बेकार हो जाता है। उदाहरण के लिए, पिछले दिनों एम्स के तत्त्वावधान में
हुए एक अध्ययन में पाया गया कि शुरुआती जांच और पोस्टमार्टम में ही इतना
समय बीत जाता है कि साठ फीसद मामलों में आंखों का कार्निया प्रत्यारोपण का
काम मुमकिन नहीं हो पाता। संस्थान की तरफ से की गई गुजारिश के मद्देनजर
दिल्ली पुलिस ने अपने तमाम जांच अधिकारियों को आदेश दिया है कि नेत्र
प्रत्यारोपण की संभावना को देखते हुए वे ऐसी जांच में अधिक तेजी लाएं।
बहुत
कम लोग देहदान या अंगदान के अलग-अलग आयामों को जानते होंगे। डॉक्टर बताते
हैं कि सांस रुकने के बाद भी शरीर के कई हिस्सों को निकाल कर दूसरों के
शरीर पर प्रत्यारोपित किया जा सकता है। नेत्रदान के अलावा, आंख के
पारदर्शी परदे (कार्निया), हड्डियों, त्वचा, कुछ मुलायम ऊतक, गुर्दा या मूत्रपिंड, यकृत या जिगर, हृदय, फेफडेÞ जैसे महत्त्वपूर्ण अवयवों को आसानी से प्रत्यारोपित किया जा सकता है।
अगर
दिल की टिक-टिक बंद हो भी जाए तब भी नेत्रदान या त्वचादान संभव होता है।
लेकिन जिस व्यक्ति के दिल की टिक-टिक जारी है, मगर ब्रेनडेथ
(मस्तिष्क-मृत्यु) हुई है, उसके हृदय और सांस की प्रक्रिया को कृत्रिम
उपकरणों के सहारे जारी रखते हुए किडनी, फेफडेÞ, यकृत या जिगर और स्वादुपिंड
जैसे अवयव प्रत्यारोपण के लिए अलग किए जा सकते हैंं। इन हिस्सों को शरीर
से अलग करने के लिए चार-पांच घंटे का आॅपरेशन चलता है। यह नहीं भूलना चाहिए
कि अंगदान के बाद भी दाता की मृतदेह पर किसी तरह की विद्रूपता नहीं आती और
ब्रेनडेड व्यक्ति भी कई लोगों कोजीवनदानदे सकता है। अगर अंगदान से आगे
बढ़ कर व्यक्ति देहदान करे तो उसका शरीर चिकित्सा विज्ञान के विद्यार्थियों
के प्रशिक्षण के लिए प्रयोग में लाया जा सकता है।
इस मामले में भारत
में पिछड़ेपन का आलम यह है कि प्रति दस लाख लोगों में महज 0़ 08 लोग ही
अंगदान करते हैं। जबकि पश्चिमी देशों में यह आंकड़ा कई गुना है। मसलन, स्पेन
में प्रति दस लाख की आबादी पर 35़1 लोग अंगदान करते हैं। ब्रिटेन में यह
आंकड़ा सत्ताईस है, अमेरिका में छब्बीस, कनाडा में चौदह तो आस्टेÑलिया में
ग्यारह। वैसे इन देशों में भी इस मसले पर कितनी जनजागृति की आवश्यकता है
इसका अहसास नीदरलैंड में टीवी पर आयोजित एक रियलिटी शो के दौरान कुछ साल
पहले हुआ था।
इस बहुप्रचारित रियलिटी शो की विषयवस्तु थी ‘एक महिला तय
करना चाहती है कि वह अपनी किडनी किसे दान करे’। इस कार्यक्रम को यूरोप के
अन्य देशों और अमेरिका में भी लाखों लोगों ने देखा। आधा घंटा कार्यक्रम
चलने के बाद यह बात उजागर हुई कि यह एक फर्जी (फेक) शो है। लेकिन इसका एक
सार्थक नतीजा यह निकला कि लोगों को इस बात का गहराई से अहसास हुआ कि यह
समस्या कितनी बड़ी है। बारह हजार से अधिक लोग आगे आए जिन्होंने घोषणा की कि
वे अपना गुर्दा दान देने के लिए तैयार हैं।
भारत में अंगदान या देहदान
को लेकर जागरूकता की कमी के बरक्स तमिलनाडु अपवाद-सा दिखता है। नब्बे के
दशक के उत्तरार्ध में यहां संपन्न पहले फेफड़ा प्रत्यारोपण आॅपरेशन के बाद
से अब तक यहां तेरह लाख अंगदान- मृत शरीरों से- संपन्न किए गए हैं। इसमें
जहां तमिलनाडु सरकार के समर्थन ने मदद पहुंचाई है, वहीं जागरूक समूहों,
संगठनों द्वारा इस मसले पर फैलाई गई जनचेतना का भी हाथ रहा है। चेन्नई के
अपोलो अस्पताल के एक वरिष्ठ सर्जन बताते हैं कि यह सरकार की कोशिशों का ही
नतीजा है कि हर अस्पताल में प्रत्यारोपण समन्वयक की नियुक्ति की गई है।
वर्ष
1994 में सरकार ने ‘मानवीय इंद्रियों के प्रत्यारोपण के लिए अधिनियम,
1994’ कानून बनाया ताकि विभिन्न किस्म के अंगदान और प्रत्यारोपण गतिविधियों
को सुचारु रूप दिया जा सके। चिकित्सकीय कार्यों के लिए मानवीय इंद्रियों
को निकालने, उनका भंडारण करने और उनके प्रत्यारोपण को नियमित करने के अलावा
इस कानून का मकसद था कि इंद्रियों के व्यावसायिक लेन-देन को रोका जा सके,
ब्रेनडेड को स्वीकार किया जाए और इन मरीजों को संभावित इंद्रियदाताओं के
तौर पर प्रयुक्त किया जाए। ध्यान रहे कि प्रस्तुत अधिनियम ने पहली दफा
ब्रेनडेड की अवधारणा को कानूनी जामा पहनाया। इस कानून ने ब्रेनडेड दाताओं
से इंद्रिय प्रत्यारोपण को मुमकिन बनाया है। इसमें सबसे बड़ी बाधा मरीज के
आत्मीय रिश्तेदारों को शिक्षित करने की होती है, जिसमें दुर्घटना में
ब्रेनडेड हुए मरीजों को कृत्रिम श्वास प्रणाली से ‘जिंदा’ रखा जाता है।
पिछले दिनों दिल्ली सरकार द्वारा प्रस्तावित नियम इस समस्या का सामना करता
दिखता है, जिसमें ड्राइविंग लाइसेंस बनवाते वक्त ही व्यक्ति को यह बताने का
विकल्प दिया गया है कि किसी आकस्मिक दुर्घटना में क्या वह इंद्रियदान करना
चाहेगा।
सकारात्मक चीज यह है कि लोगोंमें धीरे-धीरे बढ़ती जागृति
सामूहिक प्रयासों की शक्ल धारण कर रही है। इसलिए ऐसी खबरें भी सुनाई पड़ती
हैं कि अपने शरीर को चिकित्सकीय अनुसंधान के लिए देने की घोषणा करने वाली
असम की प्रथम महिला एलोरा रॉयचौधरी की याद में बना ‘एलोरा विचार मंच’ इसी
मुहिम में जुटा है।’ या ‘जयपुर की एक सामाजिक संस्था ने अभियान चला कर
देहदान के दो सौ दस लोगों के शपथ-पत्र स्वास्थ्य मंत्री को प्रस्तुत किए।’
इस
संदर्भ में केरल के एक गांव की पहल भी रेखांकित करने लायक है। केरल के
अल्लपुझा जिले के ग्राम वेलियेंबरा में चौबीस अक्तूबर को एक अलग तरह का
कार्यक्रम होगा। इस समारोह में जिले के तमाम वरिष्ठ अधिकारी भी उपस्थित
होंगे और गांव के निवासी अपने सहमति पत्र उन्हें सौंपेंगे। मलयाली फिल्मों
के मशहूर अभिनेता कैलाश भी इस कार्यक्रम में हाजिर रहेंगे। दो सौ परिवारों
वाले इस गांव ने यह संकल्प लिया है कि हर परिवार के अठारह साल से ऊपर के दो
सदस्य अंगदान करेंगे।
निश्चित ही यह सब स्वत:स्फूर्त मामला नहीं है।
इसके पीछे गांव के एक स्पोर्ट्स क्लब के नौजवानों की पहल दिखती है। किडनी न
बदल पाने के कारण अपने क्लब के एक सदस्य की कुछ माह पहले हुई मौत ने इन
नौजवानों को इस पहल के प्रेरित किया। उन्होंने तय किया कि आइंदा गरीबी के
चलते किसी के अंग प्रत्यारोपण में बाधा नहीं आने देंगे।
भारत में
जहां अंगदान या देहदान का चलन न के बराबर है, वेलियेंबरा का यह संकल्प एक
प्रेरक मिसाल है। क्या शेष हिंदुस्तान भी यही संकल्प लेने के लिए तैयार है!