फिर चल रही है. लेकिन, जब कभी इस तरह के आंदोलनों की बात छिड़ती है, तो
बरबस लोकनायक जयप्रकाश नारायण का चेहरा व चिंतन हमारे जेहन में आता
है. अमूमन जेपी की शख्सीयत को सत्तर के दशक में उनके द्वारा दिये गये
संपूर्ण क्रांति के नारे में ही समेटने की कोशिश होती है. सच यह है कि जेपी
ने इस देश में 20वीं सदी में हुए हर वैचारिक संघर्ष को न सिर्फ जीया,
बल्कि ऐसे विकल्प की कोशिश करते रहे, जो इस देश के लोकतंत्र को परिपक्वता
दे सके. इसी बिंदु के इर्द-गिर्द लोकनायक को याद करते हुए मौजूदा भारतीय
राजनीति पर एक नजर..
आज देश में अगर कोई मुद्दा महत्वपूर्ण है, तो वह है भ्रष्टाचार. सत्तर
के दशक में जयप्रकाश नारायण ने जब इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार के खिलाफ
मोरचा खोला था, तो उस वक्त भी यह लड़ाई भ्रष्टाचार और व्यवस्था परिवर्तन
को लेकर ही थी.
जयप्रकाश नारायण मानते थे कि भ्रष्टाचार से गंदी हो चुकी हमारी संसदीय
चुनावी प्रणाली तत्काल परिवर्तन की मांग करती है. पर, हमें सावधानी से
सरकार, विधायिका और न्यायपालिका की परस्पर स्वायत्ता को अलग तरीक से देखना
चाहिए. प्रगतिशील प्रतिबद्धताओं की आड़ में हम न्यायपालिका और नौकरशाही को
सरकार का अनुचर नहीं बना सकते, नहीं तो तानाशाही का सत्ता पैदा हो जायेगी.
जयप्रकाश नारायण का पूरा ध्यान राष्ट्रीय आंदोलन के सपनों और आजादी के बाद
दुनिया की साई के बीच बढ.ते इन्हीं फासलों पर बराबर बना रहता था. इन सपनों
को सच करने के लिए उन्होंने दलवादी संसदीय राजनीति को अपर्याप्त देख कर
नये रास्तों से लोकशक्ति निर्माण की संभावनाएं तलाशी.
इसी क्रम में 1969 से 1977 के बीच, यानी लगभग एक दशक का समय उनके जीवन का
सबसे जबरदस्त आत्मचिंतन और साहसिक प्रयोगों से ओत-प्रोत था. यह समय देश और
विदेशके लिए भी अत्यंत विस्फोटक था. 1969 में कांग्रेस से विभाजन से लेकर
1971 में पाकिस्तान के विभाजन और बांग्लादेश निर्माण एवं भारत में गरीबी
हटाओं के नारे पर श्रीमती इंदिरा गांधी का जबरदस्त जनादेश हासिल करने में
सफलता, इस दौर की मामूली घटनाएं नहीं थीं. नक्सलवाद के भारत में उदय का भी
यही वक्त था.
जबकि, अमेरिका और यूरोप में नयी पीढ.ी के विद्रोह, विशेष तौर पर पश्चिमी
यूरोप में फ्रांस में मजदूर और विद्यार्थियों का राष्ट्रपति चार्ल्स डि
गाले के खिलाफ तक खुला आंदोलन और पूर्वी यूरोपीय चेकोस्लोवाकिया से लेकर
पोलैंड तक साम्यवादी व्यवस्था ने विकल्प तैयार किया.
अमेरिका में वियतनाम जंग से लेकर अफ्रीकी मूल के अमेरिकी लोगों के नागरिक
अधिकारों के सवाल का भी ध्यान जेपी को था. जेपी इस दौर में नये उपायों के
लिए राष्ट्रीय सहमति की जरूरत पर देश का ध्यान खींचना चाहते थे. इसीलिए
उन्होंने सर्वशक्तिमान हो चुकी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से लेकर क्षेत्र
संन्यास ले चुके संत विनोबा तक को जोड़ते हुए देश की समस्याओं के बारे में
संकीर्ण सोच से ऊपर उठने के लिए अपने विशेषतरीके से प्रेरित किया.
इसी क्रम में जेपी स्वयं सवरेदय की विफलता और माओवाद के उदय से जु.डे
प्रश्नों को समझने और सुलझाने के लिएउत्तर बिहार के मुशहरी प्रखंड में कई
महीनों तक स्वयं शोध और प्रयोग से जु.डे. जयप्रकाश नारायण का मुशहरी प्रयोग
देश को ग्रामीण नवनिर्माण का एक नया मॉडल प्रस्तुत करने में सफल रहा.
यह अलग बात है कि 1974-75 के भ्रष्टाचार विरोधी छात्र-युवा आंदोलन को अपना
नैतिक नेतृत्व देने के कारण सरकारी प्रतिष्ठान ने जेपी को क्षमा नहीं
किया. यह समय भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के अंतिम वर्षों में हुई ऐतिहासिक
भूल के परिणामों से साक्षात्कार का भी था. गांधी शताब्दी वर्ष होने के
बावजूद भारत में कई जगह सांप्रदायिक दंगे हुए. और, पाकिस्तान-बांग्लादेशके
सवाल पर गृहयुद्धमें फंस गया. जेपी ने देश में सांप्रदायिक सद्भाव और
पूर्वी पाकिस्तान को राजनीतिक अन्याय से मुक्ति दिलाने के लिए जरूरी विश्व
जनमत निर्माण दोनों मोरचों पर नेतृत्व किया.
पूर्वी पाकिस्तान का बांग्लादेश के रूप में पुनर्जन्म जेपी के नैतिक
योगदान से बहुत गहराई तक जुड़ा हुआ था. जेपी देश में गरीबी हटाओ की आड़ में
बढ. रहे सरकारीकरण और भ्रष्टाचार की दोहरी चुनौती से व्यथित थे. लेकिन,
उनका मानना था कि चुनाव सुधारों से हम देश को भ्रष्टाचार की बाढ. से बचा
लेंगे. हमारे राजनीतिक कार्यकर्ता और विभित्र दल चुनाव में अचानक बढ. चुके
खचरें के कारण उास्तरीय भ्रष्टाचार के दलदल में फंसने लगे हैं.
इसलिए भ्रष्टाचार की गंदगी के रूप में बदलती हमारी संसदीय चुनावी प्रणाली
तत्काल परिवर्तन मांगती है. जेपी यह बदलाव करने के लिए छात्र-युवा शक्ति और
लोकशक्ति का तानाबाना बना कर जनतंत्र का नया अध्याय संभव करना चाहते थे.
इसके लिए उन्होंने सहभागी लोकतंत्र की दिशा में देश को बढ.ाने की आस्था
रखने वाले सवरेदय कार्यकर्ताओं से शुरू होने वाले यूथ फॉर डेमोक्रेसी और
सिटीजन फॉर डेमोक्रेसी के गठन को संरक्षण दिया. 1975 से 1977 के बीच का
वक्त तो जेपी के देश के राजनीतिक क्षितिज पर एकबार फिर सूरज की तरह चमकने
की रोमांचक प्रक्रिया का वक्त था.
उास्तरीय भ्रष्टाचार, महंगाई, खराब शिक्षा व्यवस्था और बेलगाम बढ.ती
बेरोजगारी, इन चार मुद्दों को सुलझाने के लिए जेपी ने जो समग्र प्रयास
किया, उससे स्थापित राजनीतिक नेतृत्व निहित स्वाथरें के गंठजोड़ को जबरदस्त
खतरा पैदा हुआ. बिना किसी र्मयादा का ख्याल रखते हुए श्रीमती इंदिरा
गांधी, उनकी सरकार, सर्मथक दलों एवं समूहों ने अनाप-शनाप आरोपों की बौछार
की. राजनीतिक दमन का चक्र चलाया, लेकिन देश को बनाने की बचैनी में
जयप्रकाशनारायण अपने प्रयास में आगे बढ.ते गये. और, देश ने भी तमाम साजिशों
को दरकिनार करते हुए उन्हें लोकनायक के रूप में 1975 एवं 1977 के बीच
स्वीकारा.
जेपी ने इंदिरा शासन की गैर-जिम्मेवारियों को दो टूक शैली में सामने रखा.
सरकार द्वारा देशद्रोह का आरोप लगा कर जेल में बंद करने पर भी घुटने नहीं
टेके. जनतंत्र को बनाने की लड़ाई अब जनतंत्र को बचाने की लड़ाई में बदल
चुकी थी. जेपी की ही सूझबूझ का नतीजा था कि इमरजेंसी के दौरान संपूर्ण
क्रांति आंदोलन के कार्यकर्ताओं का मनोबल बना रहा और भारतीय लोकतंत्र की
रक्षा के लिए अधिकतर गैर-कांग्रेसी दल एकसाथ हो गये.
जेपी का राजनीतिक और रचनात्मक कार्य के लगभग अलग-अलग संसारों में एकसाथबने
रहना इस आखिरी दशक की महत्वपूर्ण बात थी. उन्होंने राजनीति निरपेक्ष
रचनात्मक कार्य कीसीमाओंको पहचानने का वैचारिक साहस दिखाया और सत्ता की
वासना संसदीय राजनीति के भ्रष्ट होने के शुरुआती संकेतों को भी एक समाज
वैज्ञानिक की तरह देखा. इसीलिए जेपी के जीवन का आखिरी दशक एक समाज
वैज्ञानिक की समाज रचना संबंधी प्रयोगों के सफल समापन के दौर के रूप में
आधुनिक भारत के इतिहास में दर्ज की गयी है. जेपी औसत राजनीतिज्ञों की तरह
अपनी सत्ता वासना को प्राथमिकता देने की कमजोरी से मुक्त थे.
इसी तरह वह सामान्य समाज सुधारकों की तरह अपनी सुधारधारा चलाने के अहंकार
से भी ऊपर थे. इससे एक तरफ गांधी धारा से रचनात्मक मोरचे पर हजारों की
तादाद में एक पूरी पीढ.ी उनसे प्रेरित हुई. आज रचनात्मक आंदोलन से लेकर
राजनीतिक मोरचे की समूची अगली कतार जेपी से प्रभावित और कुछ मायनों में
प्रेरित लोगों की ही है.