आंदोलनों से सीखा जिंदगी का ककहरा- गुंजेश की रिपोर्ट

1951 के आसपास जब जयपाल सिंह और उनकी झारखंड पार्टी आदिवासियों के लिए
भारतीय संघ के भीतर स्वायत्तता का रास्ता ढूंढ़ रहे थे, उसी वक्त
पूर्वोत्तर भारत में नगाओं का अतिवादी समूह अलग राष्ट्र के सपने देख रहा
था.

ऐसे समय में हजारों मील दूर पंजाब की फरीदकोट छावनी में एक फौजी परिवार के
यहां एक लड़की ने जन्म लिया. 1964-68 में यह लड़की परिवार के साथ शिलांग
पहुंचती है. जहां फौजी छावनी में रहते हुए वह राज्य और जनता के संघर्ष को
देखती है.

वह देखती है कि कैसे राज्य के विरोध में खड़े होनेवालों को इसकी कीमत
चुकानी पड़ती है. आज, इलीना को अपनी उस सहेली का नाम तो याद नहीं, लेकिन वह
घटना जरूर याद है, जिसमें अलग राज्य की मांग करने के कारण सहेली के परिवार
को भयानक त्रसदियों का समना करना पड़ा था. इलिना बताती हैं कि उनकी सहेली
के जीजा की मौत ने उनके मन में एक अजीब सी बेचैनी पैदा कर दी थी. बारहवीं
में पढ़ाई के दौरान वह यह तो नहीं समझ पायीं कि यह बेचैनी वास्तव में क्या
है, लेकिन अब वह कहती हैं कि यही वो बेचैनी थी, जिसने आंदोलनों के प्रति
उनकी रुचि पैदा की. फिर आगे तो यह तय कर पाना मुश्किल है कि इलिना ने
आंदोलनों वाला रास्ता चुना या फिर वह समय ही बागी था.

शिलांग में पढ़ाई पूरी करने के बाद वह 1969 में इलिना कोलकाता पहुंचीं
जहां से उन्होंने अंगरेजी साहित्य में एमए किया. यह नक्सलबाड़ी का समय था.
शुरुआत में उनकी रुचि कविता और साहित्य में थी, लेकिन फिर उन्हें लगा कि
समाज विज्ञान आम जिंदगी के ज्यादा करीब है और उनका रुझान उस तरफ बढ़ता गया.

इमरजेंसी के ठीक बाद, 78 में इलिना ने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में
एमफिल और पीएचडी में दाखिला लिया. इलिना ने संभवत: पहली बार देश में 1901
से 1981 के बीच लिंगानुपात में आयी कमी पर शोध किया, और इलिना ही वह पहली
महिला थीं, जिसे आइसीसीआर के स्त्री मामलों के अध्ययन के फेलोशिप दी गयी.
इन सबके बीच इलिना के निजी जीवन में भी काफी कुछ घटता रहा, जिसने उनके
भविष्य की रूप-रेखा तय की.

इलीना मानती हैं कि 21 साल की उम्र में बिनायक से शादी खुद उनके लिए एक
असामान्य बात थी. लेकिन 70 के दशक में छोटी बहन की मौत और फिर मां की
तबीयत का बिगड़ जाना और उसके तीन साल बाद पिता के देहांत ने उनके सामने कोई
चारा नहीं छोड़ा था. इलिना कहती हैं कि हमारे समाज में परिवार का कोई
विकल्प नहीं है कोई और ‘सपोर्ट सिस्टम’ जैसे संस्थानों का निर्माण हमारे
यहां नहीं हो पाया है, जैसा थोड़ा-बहुत यूरोप के कुछ देशों में हुआ है.

सांगठनिक क्षमता का जवाब नहीं
इलिना हमेशा मानती रही हैं कि किसी भी आंदोलन का असर पूरे समाज पर होता
है. इसलिए एक लोकतांत्रिक समाज में मित्र स्वभाव के जितने तरह के आंदोलन चल
रहे हों, नारीवादी आंदोलन को उससे जुड़ कर रहना होगा. खुद को सोशलिस्ट
फेमिनिस्ट मानने वाली इलिना आज भी ‘राज्य’ की भूमिका को पहचानना सबसे बड़ी
चुनौतीमानती हैं.

बिनायक की गिरफ्तारी ने और मजबूत बनाया
2007 में बिनायक की गिरफ्तारी ने इलिना और उनके परिवार को एकदम से हिला कर
रख दिया. खुद इलिना को भी उससे संभलने में एक साल का वक्त लगा, लेकिन फिर
इलिना ने मजबूती से ‘राज्य’ के आरोपों का सामना किया. मजे की बात यह है कि
2006 में इलिना को भारतीय जनसंख्या आयोग के सदस्य के रूप में भारत सरकार ने
नामित किया था. इलिना कहती हैं कि बिनायक कि गिरफ्तारी का अनुभव मेरे लिए
काफी नया था और हम पहली बार सीधे तौर पर राज्य से लड़ रहे थे. अंत में
सुप्रीम कोर्ट ने बिनायक सेन पर लगे आरोपों के आधार को खारिज कर दिया और
उन्हें रिहा कर दिया गया.

इलिना की पाठशाला
आज इलिना देश-विदेश में उस महिला के रूप में जानी जाती हैं, जिसने
नारीवादी आंदोलन को न सिर्फ अकादमिक दृष्टि प्रदान की, बल्कि जमीनी स्तर पर
भी संघर्ष करने वाली महिलाओं को संगठित किया और उनके आंदोलन को सही दिशा
देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी. खुद इलिना उन दिनों को याद करते हुए
भावुक हो जाती हैं और कहती हैं कि छत्तीसगढ़ में बल्ली राजहरा में
मजदूरों-महिलाओं के साथ काम करना उनके लिए एक शिक्षाप्रद अनुभव भी रहा.

वहां महिलाओं ने वैज्ञानिक सामाजिक नियमों को आधार बना कर अपनी लड़ाइयां लड़ीं और उनमें सफलता हासिल की.
इलिना कहती हैं कि उन्हें आज भी महसूस होता है कि बल्ली राजहरा को छोड़ना
उनके सामाजिक जीवन की बड़ी भूल थी और इसने वहां के आंदोलन को भी प्रभावित
किया.

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