गत वर्ष गेहूं का रिकार्ड उत्पादन हुआ था. पूर्व के स्टॉक भी पर्याप्त
मात्र में उपलब्ध थे. इस परिस्थिति में सरकार ने 2011 में गेहूं के निर्यात
की स्वीकृति दे दी थी. कुछ निर्यात हुए भी हैं. गेहूं का उत्पादन हमारी
जरूरतों से ज्यादा है. इस असंतुलन को ठीक करने के दो उपाय हैं. एक यह कि
गेहूं की खपत अथवा निर्यात बढ़ाया जाये. दूसरा यह कि गेहूं का उत्पादन
घटाया जाये. फैक्ट्री के बढ़ते उत्पादन को गोदाम की क्षमता बढ़ा कर रखने से
समस्या बढ़ती है. ब्याज का खर्च बढ़ता है. माल की क्वालिटी घटती है.
फैक्ट्री घाटे में जाती है. माल न बिके तो उत्पादन में कटौती की जाती है.
इसी प्रकार गेहूं का जरूरी बफर स्टॉक मात्र का भंडारण करना चाहिए.
गेहूं के अधिक उत्पादन से समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं. सरकार पर
फर्टिलाइजर, डीजल और बिजली सब्सिडी का बोझ बढ़ रहा है. भूमिगत पानी का अति
दोहन हो रहा है. सरकारी आंकड़ों के अनुसार 1989 तथा 1999 के बीच ‘डार्क’
ब्लॉकों की संख्या 253 से बढ़ कर 428 हो गयी थी. ‘डार्क’ ब्लॉक उन्हें कहा
जाता है, जिनमें भूमिगत जल का स्तर तेजी से गिर रहा है. रासायनिक
फर्टिलाइजर के अति उपयोग से भूमि की दीर्घकालीन उत्पादकता गिर रही है.
सिंचाई में बिजली के अधिक उपयोग से बिजली बोर्डो और राज्य सरकारों की
वित्तीय हालत खस्ता होती जा रही है. पानी निकालने में डीजल का अधिक प्रयोग
होने से आयातित तेल पर देश निर्भर होता जा रहा है और हमारी आर्थिक
स्वतंत्रता भी खतरे में है. खाद्यान्न, बिजली और फर्टिलाइजर सब्सिडी पर
अधिक खर्च होने से सरकार का वित्तीय घाटा बढ़ रहा है और हमारी अर्थव्यवस्था
डांवाडोल हो रही है. ये सब दुष्प्रभाव सहज ही स्वीकार होते, यदि खाद्यान्न
की कमी होती. परंतु खाद्यान्न के अनावश्यक अधिक उत्पादन के लिए इन
दुष्प्रभावों को वहन करना अनुचित है.
गेहूं के विशाल भंडार का निस्तारण करने के लिए सुझाव दिया जाता है कि
सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत लाभार्थियों का कोटा बढ़ा दिया जाये.
यह हल सफल नहीं होगा. जितना खाद्यान्न वितरित किया जायेगा, उतनी ही मांग
बाजार में कम हो जायेगी. इससे गेहूं की कुल खपत में वृद्धि नहीं होगी.
दूसरा सुझाव है कि मांस की खपत को बढ़ाया जाये. यह भी अनुचित है. सीधे
खाने से एक किलो अनाज से 24,150 कैलोरी उर्जा मिलती है. उसी अन्न को पशुओं
को खिला कर बना मांस खाने से केवल 1,140 कैलोरी ऊर्जा मिलती है. यानी मांस
के भोजन में भूमि और पानी का लगभग दस गुणा उपयोग होता है. मांस की खपत समाज
के ऊपरी वर्ग द्वारा ज्यादा होती है. इससे आम आदमी और अमीर के बीच खाई
बढ़ती है.
तीसरा सुझाव है कि अधिक उत्पादन का निर्यात कर दिया जाये. यह सुझाव भी
घातक है. पर्यावरण की क्षति बनी रहती है. निर्यात का अर्थ हुआ कि भारत
सरकार द्वारा दी जा रही सब्सिडी का लाभ विदेशी क्रेता को मिलेगा. सरकार
सब्सिडी देने के लिए टैक्स वसूलती है. यानी निर्यात के माध्यम से भारत
सरकार अपने नागरिकों पर टैक्स लगा कर विदेशी नागरिकों की खपत पर सब्सिडीदे
रही है.
चौथा सुझाव है कि नगद फसलों का उत्पादन बढ़ाएं, जैसे गन्ना, मेंथा,
गुलाब अथवा रेशम का. ऐसा करने में भारत सरकार पर सब्सिडी का बोझ नहीं घटता
है. भूमिगत जल तथा भूमि की उर्वरता के ह्रास की समस्याएं भी बनी रहेंगी.
अंतर मात्र इतना होगा कि लाभ में भारतीय किसानों का हिस्सा कुछ अधिक होगा,
जिसका स्वागत है. परंतु सब्सिडी और पर्यावरण का यहां हल नहीं है.
पांचवां सुझाव है कि गेहूं के स्थान पर बायोडीजल का उत्पादन बढ़ाएं.
बायोडीजल का प्रयोग मुख्यत: अमीरों द्वारा ही किया जाता है. इसलिए इस सुझाव
में भी असमानता और उपरोक्त सुझावों से भंडारण का खर्च बढ़ने, भूमिगत जल और
भूमि की उत्पादकता का ह्रास और बिजली, डीजल व फर्टिलाइजर पर दी जा रही
सब्सिडी का बोझ बना रहता है.
इन सुझावों के स्थान पर खाद्यान्न का उत्पादन घटाना चाहिए और गरीब तथा
धरती को राहत देनी चाहिए. सुझाव इस प्रकार है. डीजल, बिजली और फर्टिलाइजर
पर दी जा रही सब्सिडी समाप्त कर बची रकम को सभी परिवारों को नगद वितरित कर
दिया जाये. ऐसा करने से खाद्यान्न की उत्पादन लागत बहुत बढ़ेगी. इस बढ़े
हुए दाम पर किसान द्वारा खाद्यान्न खरीदा जाये. ऐसा करने से किसानों पर
दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा. आम आदमी को खाद्यान्न महंगे खरीदने पड़ेंगे, परंतु
उससे अधिक रकम सब्सिडी के नगद वितरण से मिल जायेगी. इस व्यवस्था का मुख्य
दुष्प्रभाव अमीरों पर होगा, क्योंकि उनके द्वारा ही मांस तथा बायोडीजल की
खपत अधिक होती है.