संपूर्ण सत्याग्रह का अर्थ- श्री भगवान सिंह

जनसत्ता 2 अक्टुबर, 2012: महात्मा गांधी ने दुनिया को कोई नया वाद या
सिद्धांत देने का दावा नहीं किया। उन्होंने तो अपने आचरण से वह मार्ग
दिखाया जिस पर चल कर समस्त प्राणियों की हित-साधना की जा सकती है।
इसीलिए उन्होंने कहा कि ‘मेरा जीवन ही संदेश है।’ तब प्रश्न यह आता है कि
इस संदेश या मार्ग को किन शब्दों के सहारे समझा जाए? जहां तक मैंने समझा
है, गांधी-मार्ग को समझने के लिए जो दो बीज-शब्द हैं वे हैं ‘भजन’ और
‘कपास’।
बहुश्रुत लोकोक्ति है ‘चले थे हरिभजन को, ओटन लगे कपास’। इस
लोकोक्ति में ‘हरिभजन’ को वरीयता दी गई है। हरि का भजन अध्यात्म हुआ, तो
कपास ओटना अर्थ-उद्यम, अर्थात अध्यात्म को अर्थ से ऊपर का दर्जा दिया गया।
मगर गांधी हमारे सामने भजन और कपास यानी अध्यात्म और अर्थ का सम्यक संतुलन
साधने वाले साधक के रूप में आते हैं। सर्वविदित है कि उनके साबरमती,
सेवाग्राम जैसे आश्रमों में सुबह-शाम विभिन्न धर्मों से संबद्ध भजन गाए
जाते थे, तो कपास की बदौलत चलने वाले चरखे के संगीत से वहां अर्थ-उद्यम की
महिमा भी चारों ओर विकीर्ण होती रहती थी। सेवाग्राम में आज भी खुले आकाश के
नीचे सुबह-शाम भजन गाने की परंपरा जारी है। हां, चरखे का संगीत जरूर गायब
हो गया है- चरखा है भी तो मात्र स्मारक के रूप में।
भजन यानी अध्यात्म
से गांधी का लगाव बहुतेरे आधुनिकता, वैज्ञानिकता, प्रगतिशीलता के प्रेमियों
को बहुत खटकता है, इससे गांधी उन्हें पुरातनपंथी, रूढ़िवादी प्रतीत होते
हैं। पर वे यह भूल जाते हैं कि ‘वैष्णव जण तो तेणे कहिये, जे पीर पराई जाणे
रे’ या ‘रघुपति राघव राजा राम’ जैसे भजन गा-गवा कर गांधी ने विशाल जन
समुदाय को साम्राज्यवाद विरोधी संग्राम का योद्धा बना दिया। इसके साथ-साथ
गांधी इस तथ्य से भी अच्छी तरह अवगत थे कि ‘भूखे भजन न होहिं गोपाला’।
इसलिए उन्होंने कपास ओटने वाली बात को भी मजबूती से पकड़े रखा। कपास एक
कृषि-उत्पाद है जिससे रूई बनती है, फिर उससे पुनिया जिससे चरखा चलता है और
उससे बुने सूत से कपड़ा तैयार होता है। यानी यह कपास भारतीय जीवन में कृषि
से लेकर चरखे जैसे हस्त-उद्योग का प्रतीक रहा है। गांधीजी ने कृषि और हस्त
उद्योग को भारत का आर्थिक मेरुदंड मानते हुए चरखे के इस्तेमाल का
राष्ट्रव्यापी प्रचार किया।
श्रम आधारित चरखा जैसा उपकरण भारतीय उद्योग
की ऐसी तकनीक थी जिससे आदमी के न हाथ-पैर बेकार रहते थे न समाज में
बेरोजगारी का आलम रहता था। इसके जरिए वह उत्पादन भी इतनी अतिशयता में नहीं
कर पाता था जिसकी खपत के लिए उसे दूसरे इलाके, दूसरे देश को अपना बाजार या
उपनिवेश बनाना पड़े। कोई देश दूसरे देश को अपना उपनिवेश न बना सके और साथ ही
अर्थोपार्जन में स्वावलंबी बना रहे, यह गांधी की उद्योग-नीति का मूलाधार
था। इसीलिए वे भारत में पुराने उद्योग-शिल्प के नवीकरण के पक्ष में दृढ़ता
से खड़े रहे।
जाहिर है कि मानव जीवन का आर्थिक पक्ष, जिसे मार्क्सवादी
शास्त्र में काफी गौरवान्वित किया जाता रहा है, गांधी के चिंतन में नगण्य
नहीं है। मानव-जीवन का अस्तित्व बने रहने के लिहाजसे भौतिक आवश्यकताओं की
हरगिज उपेक्षा नहीं की जा सकती- कम से कम भोजन, वस्त्र, आवास जैसी बुनियादी
आवश्यकताओं की पूर्ति होनी ही चाहिए। लेकिन जब मनुष्य इन बुनियादी
आवश्यकताओं की सीमा का अतिक्रमण करते हुए भोग-विलास, अंतहीन सुख-सुविधा की
दुर्दमनीय चाहत की गिरफ्त में कैद होता जाता है तब वह एक ऐसे शैतान के रूप
में कायांतरित हो जाता है जो अपने इंद्रिय-सुख की भट्ठी में सब कुछ झोंक
देने को उतावला हो जाता है।
इसीलिए अधिकतर दार्शनिकों, तत्त्वदर्शियों
ने उच्छृंखल भोग-प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने की बात कही, लेकिन उनके चिंतन
में अर्थ-पक्ष उपेक्षित रह गया। मसलन, गौतम बुद्ध ने दुख से निवृत्ति के
लिए सुख की इच्छा पर अंकुश लगाने की बात की, पर अर्थोपार्जन का पक्ष उनके
यहां उपेक्षित ही रहा। इसका परिणाम हुआ कि देश भिक्षा-पात्र लेकर घूमने
वाले भिक्षुओं से पट गया। यही कारण था कि जो गांधी बुद्ध की समस्त
प्राणियों को आत्मीय बनाने वाली करुणा, अहिंसा के परम प्रशंसक रहे, वे
भिक्षुओं को श्रम-विमुख करने के कारण बुद्ध के आलोचक भी रहे। 
गांधी
हमारे सामने एक ऐसे चिंतक, साधक और कर्मयोगी के रूप में आते हैं जो धर्म या
अध्यात्म के साथ-साथ अर्थ-पक्ष का भी सम्यक समन्वय कर बाह्य और आंतरिक-
भौतिक और आत्मिक- दोनों का संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता का बोध कराते हैं।
विनाशकारी होड़ को निरंतर प्रोत्साहन देने वाले पश्चिम के अंध मशीनीकरण की
जगह भारत के प्राचीन उद्योग-शिल्प में ही उन्हें समस्त सृष्टि के संरक्षण
की संभावना दिखाई पड़ी। इसलिए उसके प्रतीकरूप चरखे के महत्त्व का उन्होंने
पुनर्पाठ प्रस्तुत किया, तो साथ ही मनुष्य के अंत:करण में असीम भोग-वासना
की इच्छा को नियंत्रित करने के लिए भजन यानी आध्यात्मिक मूल्यों की साधना
पर बल दिया। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि भजन और कपास अर्थात
अध्यात्म और अर्थ, गांधी मार्ग के दो तटबंध हैं जिनके बीच से प्रवहमान
जीवन-धारा कभी उच्छृंखल विनाशकारी जल-प्लावन का रूप नहीं ले सकती। अध्यात्म
और अर्थ की यह जोड़ी उनके ‘सत्याग्रह’ के हाथ-पैर और मन-मस्तिष्क है।
गांधी के इस अर्थ और अध्यात्म समन्वित चिंतन के मर्म को निबंधकार कुबेरनाथ राय की यह टिप्पणी बहुत स्पष्टता से उद््घाटित करती है- ‘‘अब तक का अर्थशास्त्र चाहे वह वामपंथी हो या दक्षिणपंथी, उत्पादन और
वितरण का शास्त्र रहा है। पर गांधीजी ने हिंदू होने के कारण, आत्मवादी,
वेदांती होने के कारण इसे संशोधित किया ‘मनुष्य के लिए उत्पादन और वितरण का
शास्त्र’ के रूप में और उन्होंने मनुष्य को उसकी आत्मिक-भौतिक समग्रता में
स्वीकृत किया। अर्थनीति ही नहीं, उनकी राजनीतिक यूटोपिया ‘रामराज्य’ और
‘सर्वोदय’ दोनों ही उनकी इस मनोभूमि की उपज हैं। वे अराजकतावादी नहीं थे।
अराजकतावादी
का लक्ष्य ‘रोटी’ पर जाकर समाप्त हो जाता है, पर गांधीजी को ‘शील’ भी
चाहिए और उससे भी परे ‘आत्मा’ भी उपलब्ध होनी चाहिए। उनका चिंतन रोटी
(भौतिक) शील (नैतिक) और आत्मा (आत्मिक) तीनों की सही और उचित अनिवार्यता पर
बल देता है, उनके द्वारा संस्कार-लब्ध हिंदू मनोभूमि के ही कारण। इसी से
उन्होंने आधुनिक जगत के मुहावरों और शब्दों का त्याग कर इस मनोभूमि से उपजी
निजी भाषा का प्रयोग किया। जवाहरलाल नेहरू, मानवेंद्रनाथरायया और कोई
बाहरी दुनिया की बहुत-सी किताबों को पढ़ कर भी यह मौलिकता हासिल नहीं कर सका
जो उन्हें इस देशी भूमि से प्रतिबद्ध रहने के कारण सहजात प्रतिभा के रूप
में प्राप्त हुई थी।’’
सच कहें, तो गांधीजी ने ‘देशी भूमि से
प्रतिबद्ध’ रहने के कारण जो मनोभूमि अर्जित की और जिसे भारत समेत विश्व के
सामने रखा, उसी का- सिर्फ उसी का क्रियात्मक अनुवाद आज की भौतिकताप्रसारी
सभ्यता से पैदा हो रहे संकटों का समाधान हो सकता है। ऐसा मंतव्य निश्चय ही
वैसे लोंगों को बकवास लग सकता है जो अब भी समस्त समस्याओं का समाधान
वैज्ञानिक विचारधारा के नाम पर सिर्फ मार्क्सवाद में खोजते हैं।
कितनी
बड़ी विडंबना है कि हमारे देश के कतिपय वामपंथी विएतनामी राष्ट्र-नायक
हो-ची-मिन्ह को गर्व से याद करते हुए ‘हो-हो हो-ची-मिन्ह, वी शैल फाइट, वी
शैल विन’ जैसे जोशीले नारे लगाते हैं, क्यूबाई क्रांति में अग्रणी भूमिका
निभाने वाले चे गवारा से प्रेरणा लेने की बात करते हैं, जब कि हो-ची-मिन्ह
खुद यह बात कबूल करते थे कि उनके बहुत बड़े प्रेरणा-स्रोत गांधी रहे हैं।
जहां तक चे गवारा का सवाल है, उन्होंने भी गांधी के सत्याग्रह के महत्त्व
को स्वीकार किया था और इस बात पर खेद जताया था कि उनके पास गांधी जैसा नेता
नहीं था। मार्टिन लूथर किंग, नेल्सन मंडेला, दलाई लामा, आंग सान सू ची आदि
ने अपने-अपने देश में गांधीवादी तरीके से अन्याय-विरोधी संघर्षों को अंजाम
दिया है।
यहां ध्यान में रखने योग्य बात यह है कि इन शख्सियतों ने
गांधी के सत्याग्रह-मार्ग का उपयोग अधूरे रूप में ही किया। उनका गांधीवादी
तरीका सामाजिक, राजनीतिक अन्याय के विरुद्ध संघर्ष तक सीमित रहा, उत्पादन
के निमित्त आविष्कृत पश्चिमी औद्योगिकी-प्रौद्योगिकी से उनका विरोध नहीं
रहा। वस्तुत: गांधी के सत्याग्रह में अहिंसा का जो महत्त्व है उसका आशय
सिर्फ यह समझ लिया जाता है कि आदमी आदमी की हत्या न करे या फिर वह शाकाहारी
हो जाए जिससे अन्य जीवों की हिंसा न हो। लेकिन गांधी का अहिंसा-मार्ग यहीं
तक सीमित नहीं है। जब तक जंगल, पर्वत, नदियों आदि तमाम प्राकृतिक संसाधनों
के साथ-साथ पशु-पक्षियों को आहार और परिवेश सुलभ कराने वाले स्थानों की
कीमत पर चलने वाली औद्योगिकी को बदल कर उसे मानव श्रम पर आधारित नहीं बनाते
तब तक अहिंसा अपने संपूर्ण संदर्भ में अर्थपूर्ण नहीं हो सकती।
गांधी
ने बहुत सोच-समझ कर अबाध मशीनीकरण की जगह भारत के सदियों पुराने, हाथ-पैर
पर आश्रित उद्योग-शिल्प को सामने रखा था, क्योंकि यही वह चीज थी जिसके कारण
मनुष्य भोजन, वस्त्र, आवास की दृष्टि से स्वावलंबी रहता आया था और अन्य
प्राणी भी सुरक्षित रहते आए थे। न कभी पर्यावरण का संकट आया न पीने के पानी
का, न ग्लोबल वार्मिंग का खतरा पैदा हुआ न किसी पशु-पक्षी-पेड़ की प्रजाति
के समाप्त होने का।
यूरोप की औद्योगिक क्रांति की कोख से जो
उत्पादन-पद्धति निकल कर सामने आई वह मजदूरों का शोषण करने वाली तो थी ही,
प्राकृतिक संपदाओं का भी निर्मम दोहन करने वाली थी। मार्क्स ने मजदूरों का
शोषण तो देखा, लेकिन इस औद्योगीकरण के पैरों तले हो रहे मनुष्येतर के
सर्वनाश को वे नहींदेख पाए। गांधी ने इस दानवी औद्योगिक-शिल्प के जुए तले
मनुष्य और मनुष्येतर दोनों के धीरे-धीरे मिटते जाने के खतरे को देखा। यही
कारण था कि वे हस्त-उद्योग और कृषि-उद्योग तक अर्थोपार्जन की गतिविधियों को
सीमित रखने की हिमायत करते रहे, तो दूसरी तरफ देह-सुख को साध्य मान कर
मनुष्य नाना अनर्गल वस्तुओं के आविष्कार और उत्पादन की अतिशयता में इस कदर
प्रवृत्त न हो जाए कि वही उसके विनाश का कारण बन जाए, इसके लिए उन्होंने
भजन यानी आत्मिक विकास को सामने रखा।
इस प्रकार देखा जाए तो गांधी की
अहिंसा को कपास (उद्योग-शिल्प) और भजन (अध्यात्म) दोनों मिल कर संपूर्णता
प्रदान करते हैं। जाहिर है कि गांधी के लेखे अहिंसावादी होने के लिए न
सिर्फ मनुष्य और मनुष्येतर की हिंसा का निषेध करना, बल्कि औद्योगिकी द्वारा
होने वाली हिंसा का भी निषेध करना आवश्यक है। न केवल राजनीतिक-सामाजिक
न्याय और समानता हासिल करने की दृष्टि से, बल्कि आज के भूमंडलीय
उपभोक्तावादी महायान के पहिए तले आम आदमी से लेकर अन्य प्राणी जिस तरह
रौंदे जा रहे हैं, बहुत सारी प्राकृतिक संपदा सदा-सदा के लिए नष्ट की जा
रही है, उसे देखते हुए भी गांधी का कपास और भजन केंद्रित सत्याग्रह-मार्ग
ही रामबाण सिद्ध हो सकता है।

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