की राजनीति से किसी सार्थक उम्मीद की आशा कर सकता है. अब राजनीति नव
उदारवादी अर्थ व्यवस्था के मातहत है. जिसे ‘शिकागो स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स’
कहा जाता है, वह अमेरिकी अर्थशास्त्री मिल्टन फ्रीडमैन की आर्थिक दृष्टि और
नीति के बाद ही प्रमुख रूप से अस्तित्व में आया. मिल्टन फ्रीडमैन नव
उदारवादी अर्थशास्त्र के प्रमुख प्रणोता हैं. मनमोहन सिंह का अर्थशास्त्र
जन से नहीं अभिजन से, गांव से नहीं बाजार से, लघु उद्योगों से नहीं
बहुराष्ट्रीय कंपनियों से, देशी पूंजी से नहीं विदेशी पूंजी से, कॉरपोरेट
से जुड़ा है.
उनकी अर्थशास्त्रीय दृष्टि मिल्टन फ्रीडमैन से जुड़ी है. भारत की नव
उदारवादी अर्थव्यवस्था को, जो 1991 से शुरू हुई और जिसे ‘टर्निग प्वाइंट’
माना जाता है, अभी तक मिल्टन फ्रीडमैन की आर्थिकी से जोड़ कर अधिक नहीं
देखा गया है. अगर देखा गया होता तो फ्रीडमैन की जन्मशती की चर्चा
अर्थशास्त्रियों के बीच अवश्य होती. निजीकरण, उन्मुक्त व्यापार और विदेशी
पूंजी के प्रभुत्व ने मिल कर समाज की संरचना को प्रभावित किया है. हम उसकी
जद में आ चुके हैंऔर हमारी संतानें, चंद अपवादों को छोड़ दें तो, हमसे दूर
हो रही हैं.
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कई बार यह कहा है कि उन्हें जो करना है, वे
करके रहेंगे. ऐसा अटल विश्वास कहां से आता है? 1991 के पहले भारतीय
राजनीति में आने का उनका एक मकसद था. गिरती अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने
के लिए उनका आगमन हुआ. वे अर्थशास्त्री हैं और बदलते भारत व विश्व की समझ
रखने वालों ने पहले यह अवश्य सोचा होगा कि वित्तमंत्री के रूप में उन्होंने
जो आर्थिक सुधार कायम किये हैं, उसे ध्यान में रख कर भविष्य में वे
प्रधानमंत्री के पद पर आसीन होंगे. उनका अर्थशास्त्र एक निश्चित तबके के
लिए महत्वपूर्ण है. यह ध्यान देना चाहिए कि पिछले बीस वर्षो में भारतीय
मुद्रा डॉलर के मुकाबले कितनी कमजोर हुई है.
मनमोहन सिंह ने अब तक दो अवसरों पर सख्त रवैया अपनाया है, परमाणु करार
और अभी विदेशी पूंजी निवेश को लेकर. दोनों बार समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष
मुलायम सिंह ने सरकार बचायी. आज के विश्व पूंजीवाद का समाजवाद से दूर-दूर
का कोई रिश्ता नहीं. मुलायम सिंह का ‘समाजवाद’ मनमोहन सिंह के ‘स्वतंत्र
पूंजीवाद’ में विलीन हो चुका है.
आज की अर्थव्यवस्था हमारे मानस को प्रभावित करती है. वह हमें अस्थिर
करती है. झटके देती है. मनौवैज्ञानिक रूप से हमारी संघर्ष-शक्ति को कुंद
करती है. राजनीतिक दल ही नहीं, सामान्य जन भी अपने को इस स्थिति में
‘एडजस्ट’ करते हैं. आर्थिक सुधार को, जिसका डंका पीटा जाता है, जबरन लागू
किया जाता है. इसका केवल मतलब उन आर्थिक शक्तियों से होता है जो विश्व स्तर
पर सक्रिय और प्रभावशाली हैं. संसद में बहसें कम होती हैं. वालमार्ट
प्रमुख हो जाता है. सरकार गौण हो जाती है, कंपनियां ताकतवर. बाजार आधारित
अर्थव्यवस्था में सरकार बाजार के अधीन हो जाती है. रूस के राष्ट्रपति बोरिस
निकोलयविच येल्तसिन ने रूस की समाजवादी अर्थव्यवस्था को नष्ट किया और भारत
में नेहरू की मिश्रित अर्थव्यवस्था समाप्त की गयी. यह मात्र संयोग नहीं है
किरूस और भारत में लगभग एक ही समय 1990-91 में पुरानी अर्थव्यवस्था
समाप्त हुई.
अपने देश में आर्थिक सुधारों से जुड़े सभी निर्णय लागू किये गये हैं.
सभी दलों ने इसी अर्थनीति को महत्व दिया है. यह आर्थिक सुधार कभी भी साधारण
जन को रास नहीं आया. नरसिंह राव की सरकार की ही नहीं, संयुक्त मोर्चा और
भाजपा सरकार की भी विदाई इसी कारण हुई. विडंबना यह है कि 2004 में ‘इंडिया
शाइनिंग’ के विरोध में भारतीय मतदाताओं ने कांग्रेस को प्राथमिकता दी थी.
वह फिर ठगा गया. भाजपा ने वाजपेयी के समय अलग से एक विनिवेश मंत्रलय ही खोल
दिया था, जिसके मंत्री अरुण शौरी थे. भाजपा ने अपने कार्यकाल में सरकारी
कंपनियों को जिस तरह बेचना आरंभ किया था, वह लोगों को याद होगा. पश्चिम
बंगाल में लंबे समय से सत्ता में रही वाम सरकार को आर्थिक सुधार की नीतियों
को स्वीकार करने के कारण विदा होना पड़ा. सच्चई यह है कि मनमोहन सिंह, पी
चिदंबरम और मोंटेक सिंह अहलूवालिया नव उदारवादी अर्थव्यवस्था के पक्षधर
हैं.
तृणमूल कांग्रेस के यूपीए से अलग होने के बाद सरकार अल्पमत में भले आ
गयी हो, लेकिन उस पर कोई खतरा नहीं है. मुलायम सिंह अपने 22 सांसदों सहित
खड़े हैं. फिर बसपा के 21 सांसदों का भी बाहर से समर्थन है. संसद के
शीतसत्र में भी सरकार बहुमत में रहेगी. सपा और बसपा की बैसाखियां उसे गिरने
का मौका नहीं देंगी. दो साल का समय कट जाएगा. मुलायम सिंह का तर्क
सांप्रदायिक शक्तियों से दूरी का है. भारत में विदेशी पूंजी प्रवाह के बाद
सांप्रदायिक शक्तियां बढ़ी हैं, ताकतवर हुई हैं. 1989 के पहले भाजपा के
सांसदों की संख्या कितनी थी? 1980 के पहले विश्व हिंदू परिषद कितनी
शक्तिशाली थी? बाबरी मसजिद ध्वंस, गुजरात नरसंहार, सब विदेशी पूंजी निवेश
के बाद ही हुआ है.
भारत बंद में भाजपा, वामदल, द्रमुक, सपा सब साथ रहे. सपा ने यूपीए-1 में
सरकार बचायी थी. अब यूपीए-2 में तृणमूल कांग्रेस के हटने पर वह सरकार के
साथ डट कर खड़ी है. कांग्रेस और सपा के इस मधुर संबंध का एक प्रमुख कारण
दोनों का समाजवाद से दूर होना है. अकाली दल राजग के साथ है, पर वह एफडीआइ
के पक्ष में है. द्रमुक यूपीए-2 में है, पर सरकार की नीतियों के खिलाफ है.
अविश्वसनीय पूंजी के दौर में विश्वसनीय कुछ भी नहीं है. कांग्रेस की चिंता
में सांसदों की संख्या प्रमुख है, पर उसे अधिसंख्य भारतीय जनता की चिंता
नहीं है. सरकार के लिए तर्क, बहस सब गौण है. विरोधी स्वर बेमानी है. एफडीआइ
की अधिसूचना जारी हो चुकी है. वॉलमार्ट पर सरकार फिदा है. जदयू अध्यक्ष
शरद यादव को मुलायम सिंह पर विश्वास है कि वे जनता को देख कर फैसला करते
हैं. कांग्रेस प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रपति बना सकती है, पर वित्त मंत्री
के रूप में संसद में दिये उनके आश्वासन को अनसुनी करती है कि बिना रजामंदी
के एफडीआइ पर कोई निर्णय नहीं लिया जायेगा.
एक छोटा बच्च भी यह जानता है कि पैसा पेड़ों पर नहीं उगता और भारत की
गरीब जनता की परेशानी लगातार बढ़ती जा रही है. ईमानदारी सेउसकेबारे में
सोचने और करने वाला कोई नहीं है. संभव है, जनता अगले चुनाव में कांग्रेस को
अपनी बात समझाये.