फारबिसगंज : फणीश्वरनाथ रेणु की धरती है फारबिसगंज. वर्षो से यहां साहित्य
की धारा बही है. इस क्षेत्र के ही एक ख्यातिप्राप्त डॉक्टर हैं, डीएल दास.
64 वर्षीय दास ने होम्योपैथी चिकित्सा से हजारों मरीजों का सफलतापूर्वक
इलाज किया है. इस उम्र में भी वह होम्योपैथिक दवाइयों पर रिसर्च कर रहे
हैं. साथ ही वह रडार होम्योपैथी सॉफ्टवेयर जैसी आधुनिक तकनीक का भी
इस्तेमाल कर रहे हैं.
डॉ डीएल दास का पूरा नाम है दाना लाल दास. एक फकीर ने उनका नाम दाना रखा.
दाना अर्थात समझदार. जब डॉ दास पटना से होम्योपैथी की पढ़ाई कर रहे थे, तो
वहां के एक डॉक्टर ने उनकी प्रतिभा को देखकर कहा कि वह चिकित्सा के क्षेत्र
में जादूगर की तरह काम करेंगे. यह बात सच साबित हुई. पिछले 40 वर्षो से वह
होम्योपैथी से लोगों का इलाज कर रहे हैं.
बाल डॉक्टर की उपाधि
जब डॉ दास नौ वर्ष के थे, तभी उन्हें बाल डॉक्टर की उपाधि मिली. तब वह
छात्रवास में रहते थे. एक बार छात्रवास में कई लड़के फ्लू से ग्रसित हो
गये. दास ने उन सभी लड़कों को तुलसी का काढ़ा पिलाया. शीघ्र ही सभी लड़के
ठीक हो गये. यह चिकित्सा उन्होंने अपनी मां से सीखी थी. तब से सारे लड़के
उन्हें लिटिल डॉक्टर या बाल डॉक्टर कहने लगे.
गांव में ही स्कूल खोला
डॉ दास की उम्र 12-13 साल की रही होगी. उन दिनों उनके गांव में साक्षर
लोगों की संख्या महज पांच प्रतिशत थी. बच्चों को पढ़ाई के लिए तीन से चार
किलोमीटर पैदल जाना पड़ता था. डॉ दास के मन में एक स्कूल बनाने की इच्छा
हुई. पिता से आठ डिसमिल जमीन प्रार्थना करके लिया और उसमें फूस का घर बनाने
के लिए प्रत्येक ग्रामीण के दरवाजे पर जाकर बांस मांगना शुरू किया. यह
घटना 1960 की है. स्कूल बना और उनके पिता ने प्राइवेट शिक्षक को आठ या दस
रुपये महीने तनख्वाह देकर पढ़ाई शुरू करायी. इससे सैकड़ों बच्चे साक्षर
हुए. बाद में इस स्कूल को सरकारी मान्यता मिली. आज उस स्कूल में आठवीं
कक्षा तक की पढ़ाई हो रही है.
जब स्कूल में हुई थी पिटाई
डॉ दास संस्कृत में अव्वल आते थे. इस विषय में उन्हें 98-99 प्रतिशत अंक
मिलते. एक बार परीक्षा के समय एक लड़के ने उनसे कुछ मदद करने को कहा. उत्तर
बताने के क्रम में प्रधानाचार्य ने पकड़ लिया. फिर छड़ी की बरसात हो गयी.
डॉ दास बताते हैं कि वह घटना उनके जीवन की महत्वपूर्ण घटना रही. पिटाई से
पूरी हथेली फूल कर पूड़ी जैसी हो गयी. इसके बाद डॉ दास के किशोर मन ने यह
ठान लिया कि अब कभी कोई अनैतिक काम नहीं करेंगे. तब से इसी मूल मंत्र पर वह
जीवन में आगे बढ़ते रहे हैं.
प्रधानाध्यापक के चरित्र की छाप
हर व्यक्ति के जीवन पर किसी न किसी व्यक्ति की छाप जरूर पड़ती है. डॉ दास
के जीवन पर उनके प्रधानाचार्य का गहरा प्रभाव पड़ा. डॉ दास बताते हैं कि
राजा हरीशचंद्र की तरह उनके प्रधानाचार्य की हर क्षेत्र में सच्चई थी. वह
विद्यालय को मां कहा करते थे. वह कहते थे, जोपोषण करे, वही तो मां होती
है. उनके इस चरित्र की छाप डॉ दास पर पड़ी. डॉ दास कहते हैं- मैं अपनी
चिकित्सा पद्धति को मां के समान आदर देता हूं. रोगियों के साथ प्रेमपूर्ण
व्यवहार करता हूं. जब रोगी अपने इलाज से संतुष्ट हो, तभी डॉक्टर सफल है.
होम्योपैथी की पढ़ाई
मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद दास ने जीव विज्ञान से इंटरमीडिएट की
परीक्षा उत्तीर्ण की. एमबीबीएस की परीक्षा मात्र तीन नंबर से पास नहीं कर
सके. इसलिए आगे जीवविज्ञान में बीएससी किया. तब तक उनकी शादी हो चुकी थी.
शादी के बाद उनके ग्रामीण डॉ मोतीलाल शर्मा की प्रेरणा से वह होम्योपैथी की
पढ़ाई के लिए पटना गये. वहां कॉलेज के प्रो बर्मा ने दास की प्रतिभा को
पहचानते हुए कहा कि वह चिकित्सा क्षेत्र में जादूगर की तरह प्रभावी होंगे.
उन्हें इस क्षेत्र में यश मिलेगा. ऐसा ही हुआ.
चिकित्सा का लंबा अनुभव
डॉ दास जब फाइनल इयर के छात्र थे, तभी उन्होंने अपने एक सहपाठी का इलाज
किया था. डॉ दास उस मित्र को अपना पहला रोगी मानते हैं. डॉ दास के पास
नेपाल के काठमांडू, राज विराज, जनकपुर से भी मरीज आते हैं. वस्तुत: एक
चिकित्सक के रूप में डॉ दास की ख्याति तब हुई, जब वह घुरना में थे. यह गांव
नेपाल से सटा हुआ है. वहां उन्होंने महिलाओं से जुड़ी कई बीमारियों का
इलाज किया. तब प्रसव के लिए आधुनिक सुविधाएं नहीं थीं.
लेकिन उन्होंने होम्योपैथिक दवाइयों से सैकड़ों महिलाओं का सुरक्षित प्रसव
करवाया. इसी तरह नि:संतान दंपतियों को उनकी दवाइयों से लाभ पहुंचा.
फारबिसगंज आने के बाद वह असाध्य बीमारियों का इलाज करने के लिए प्रसिद्ध हो
गये. ेउनके क्लिनिक में दवाइयों पर लगातार शोध होता रहा है. डॉ दास एक
खुराक से ही रोगी का इलाज करने के लिए जाने जाते हैं. इलाके के लोग उन्हें
वन डोज डॉक्टर के रूप में जानते हैं.
डॉ दास ने होम्योपैथी पर होने वाले 20 राष्ट्रीय सेमिनारों में भाग लिया
है. जबलपुर के सेमिनार में उन्होंने होम्योपैथी दवाई की खुराक पर एक
वक्तव्य दिया था. डॉ दास ने बुखार के लिए विशेष दवाई इजाद की है. अपने 40
साल के चिकित्सा अनुभव को वह एक पुस्तक का रूप दे रहे हैं.
वन डोज डॉक्टर के नाम से मशहूर
मेरा एक सपना है कि दुनिया से विकलांगता पूरी तरह से खत्म हो जाये. कोई भी
बच्च विकलांग पैदा न हो. साथ ही विकलांग लोगों के साथ सम्मानपूर्वक
व्यवहार किया जाना चाहिए. मेरे जीवन का यह ध्येय है कि होम्योपैथी में
अनुसंधान को बढ़ावा दिया जाये. रडार सॉफ्टवेयर से इलाज पहले की अपेक्षा सरल
हो गया है. अपने अनुभवों को मैं एक पुस्तक का रूप देने जा रहा हूं, जिसमें
होम्योपैथी चिकित्सा के बारे में विस्तृत वर्णन होगा. आम लोग को इससे काफी
लाभ होगा.
रडार सॉफ्टवेयर से इलाज
होम्योपैथी में रडार सॉफ्टवेयर से इलाज एक नयी चीज है. बहुत लोगों को इस
पद्धति के बारे में नहीं पता. डॉ दास ने 2008 में 62 साल की उम्र में रडार
पद्धति की ट्रेनिंग ली. इससे इलाज करना और सरल हो गया है.रडारका मतलब
होता है दिशा-निर्देश. यानी डॉक्टरों के लिए गाइड लाइन. इसका इजाद फ्रांस
के वैज्ञानिक डॉ फ्रेडरिक स्क्रोयंस ने किया है.
यह ऐसा सॉफ्टवेयर है, जिसमें होम्योपैथी की तमाम दवाइयों का संग्रह है.
चूंकि होम्योपैथी में एक ही रोग के लिए अलग-अलग दवाइयां होती हैं. जैसे सिर
दर्द के लिए 400 अलग-अलग दवाएं हैं. पेट दर्द के लिए 500. यानी रोगी की
रुचि, उसकी पसंद-नापसंद आदि के अनुसार दवाइयां दी जाती हैं.
रडार सॉफ्टवेयर में मरीज के रुचि और व्यवहार को डाला जाता है, फिर यह
सॉफ्टवेयर यह बताता है कि उक्त मरीज के लिए कौन सी दवा उपयुक्त रहेगी. डॉ
दास ने अपनी एक एनजीओ भी बनायी है, जिसका नाम है डेवलपमेंट एडवांस्ड
साइंटिज्म इन क्लासिकल होम्योपैथी. इस एनजीओ के माध्यम से होम्योपैथी
दवाइयों पर रिसर्च किया जा रहा है. इसके दो सेमिनार भी हो चुके हैं.