राजनीति किसी भी स्तर की क्यों न हो, उसके केंद्र में हमेशा सत्ता ही होती है। राजनीति करने वाले अधिसंख्य लोगों के सारे उपक्रम सत्ता के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं। येन-केन-प्रकारेण सत्ता हासिल करना, उसमें हिस्सेदारी करना या फिर उसके विरोध में लामबंद होना ही उनका अभीष्ट होता है। इसलिए लगभग चार दशक पहले कहे गए लोकनायक जयप्रकाश नारायण के शब्द-राजनीति से उम्मीद करने वाले लोग सूखी हड्डी चूस रहे हैं-आज भी सौ फीसदी सच लगते हैं।
दुर्भाग्य से लोकतंत्र के नाम पर हम गिरोह-तंत्र की व्यवस्था में जी रहे हैं। आदर्श लोकतांत्रिक व्यवस्था को-बाय द पीपल, फॉर द पीपल और ऑफ द पीपल-के रूप में परिभाषित किया जाता रहा है। व्यवहार में यह-बाय द हैव्स, ऑफ द हैव्स और फॉर द हैव्स की व्यवस्था बन गई है। आज के लोकतंत्र में पीपल, यानी लोक के लिए कोई जगह नहीं है। राजनीति करने वालों को केवल चुनावों के मौके पर लोक की याद आती है और फिर चुनावों के बाद उन्हें पूरी तरह भुला-बिसरा दिया जाता है।
चुनावों में धनबल और बाहुबल का बोलबाला तो रहता ही है, साथ ही धर्म, जाति, भाषा आदि को भी साधनों के तौर पर खुल्लमखुल्ला और बेशरमी से इस्तेमाल किया जाता है। बहुमत के नाम पर 51 बराबर 100 और 49 बराबर शून्य का अटपटा गणित इसी व्यवस्था की देन है। हालांकि यह 51 भी कितनी और किस-किस तरह की जोड़-तोड़ से बनता है, किसी से छिपा नहीं है। संसदीय व्यवस्था के नाम पर देश को चलाने और चरने-चराने वाले जानते हैं कि यह 51 (बहुमत) जुटाने के लिए उन्हें कितनी मशक्कत करनी पड़ती है और किस-किस तरह के समझौते करने पड़ते हैं। इतना सब करने के बाद यदि वे भूल जाते हैं कि संसद लोगों के लिए होती है, न कि लोग संसद के लिए, तो इसमें उनका कोई कुसूर नहीं है।
इसलिए जरूरी है कि हम वैकल्पिक राजनीति का खाका खींचने के बजाय लोकनीति का खाका खींचने की दिशा में पहल करें। आदर्श लोकतंत्र में न तो पारंपरिक राजनीति की जरूरत होगी और न पारंपरिक राजनीतिक दलों की। उसमें राजनीति की जगह लोकनीति ले लेगी और राजनीतिक दलों की जगह लोक संगठन ले लेंगे। उस आदर्श लोकतांत्रिक व्यवस्था में हर स्तर पर लोक सर्वोपरि होगा।
वह व्यवस्था लोकाभिमुख, लोक आधारित और लोक केंद्रित होगी। लोकनीति में लोकहित सर्वोपरि होगा। स्वहित के लिए कोई जगह नहीं होगी। इसमें लोक सेवक वास्तव में लोक सेवक होगा, न कि लोक का स्वामी या मालिक। जब लोकनीति का दौर आएगा, तो 51 बराबर 100 के बहुमत का गणित भी नहीं चलेगा। तब सभी फैसले सर्वसम्मति से होंगे। भिन्न दृष्टिकोण या नजरिये के लिएपर्याप्त गुंजाइश होगी, लेकिन यह मत भिन्नता पूर्वग्रहों या दुराग्रहों से प्रेरित नहीं होगी, बल्कि सर्वजनहिताय के उद्देश्य से होगी।
लोकनीति की दिशा में हम कैसे बढ़ेंगे? यह एक कठिन सवाल है। इसके लिए सबसे पहले हमें स्वीकार करना होगा कि राजनीति की सूखी हड्डी चूसने से कुछ भी हासिल नहीं होने वाला है। राजनीति को पूरी तरह नकार देने के बाद ही हम लोकनीति का खाका खींच सकते हैं। इसके लिए हमें गांधी की ओर लौटना होगा और उनके हिंद स्वराज में लोकनीति की बुनियाद तलाशनी होगी। दरअसल, 103 साल पहले लिखी हिंद स्वराज गांधी के विचारों की मूल किताब है। गांधी के बाद के विचार इसी का विस्तार हैं।
गांधी देश के पांच लाख गांवों को आत्मनिर्भर इकाई के रूप में देखना चाहते थे, न कि सर्व अधिकार संपन्न केंद्रीय सत्ता को। देश के आजाद होने के कुछ समय पहले उन्होंने कांग्रेस को भंग कर लोक सेवक संघ बनाने की सलाह भी दी थी। उनका मंतव्य था कि सत्ता के शिखर पर काला चोर भी बैठे, तो चिंता की बात नहीं, क्योंकि उसके पास केंद्रित अधिकारों जैसा कुछ होगा ही नहीं, सब कुछ जनता के हाथों में होगा। काश, गांधी के तथाकथित उत्तराधिकारियों ने उनकी सलाह पर ध्यान दिया होता।
आज भी गांधी के विचारों में यकीन करने वाले लोगों की कमी नहीं है, पर अतिवादी विचारों के कारण उनका एक साथ बैठाना टेढ़ी खीर है। गांधी से इतर भी देश भर में जहां-तहां बिखरे सैकड़ों-हजारों लोग और संगठन बेहतर काम कर रहे हैं। वे सीमित स्तर पर आदर्श व्यवस्थाएं बनाने में भी सफल रहे हैं, पर उन्हें जोड़ने वाला मजबूत सूत्र नजर नहीं आता है। यह सूत्र वही होगा, जिसकी व्यापक स्वीकार्यता हो और जो किसी माला के धागे की तरह अदृश्य रहने और निस्वार्थ भाव से काम करने की तत्परता रखता हो। वैकल्पिक राजनीति की तलाश करने वाले यदि लोकनीति को अपना उद्देश्य बना लें और उसका खाका बनाने और उसकी नींव का पत्थर बनने को तैयार हों, तो कोई कारण नहीं कि आने वाले समय में लोकनीति एक हकीकत बन जाए और राजनीति इतिहास की किताबों में उसी तरह दफन हो जाए जैसे कि राजतंत्र और राजघराने दफन हो चुके हैं।