जाती है। रांची सदर हॉस्पिटल के लगभग सात बाई नौ के एक छोटे से केबिन में
ममता वाहन कॉल सेंटर में लोगों के फोन कॉल्स सुनती हुई अंजलि खुद को
खुशनसीब समझती है। वह कहती है, ‘लोगों की मदद कर सुकून मिलता है।’ चार
जुलाई, 2011, इसी दिन रांची में ममता वाहन कॉल सेंटर शुरू हुआ था। वह तब से
यहां काम कर रही है। कॉलेज में थी, तो पुलिस की नौकरी चाहती थी।
लेकिन
तभी पति की असमय मौत ने उसे तोड़ दिया। मन में यह बात जलती-बुझती रही कि
वह पति की उचित सेवा नहीं कर पाई। अब वह दूर देहात की महिलाओं की मदद कर इस
मलाल की भरपाई कर रही है। वह कहती है, ‘दूर देहात में, रात में, दर्द से
तड़पती किसी महिला के लिए सही समय पर ममता वाहन पहुंच जाता है, तो उसके घर
वालों को यही लगता है कि वैतरणी पार हो गए।’ ममता वाहन उस महिला को लेकर
पास के अस्पताल में आता है। डॉक्टरों की देखरेख में वह मां बनती है। फिर जब
अस्पताल से छुट्टी मिलती है, तो वही गाड़ी उसे घर तक छोड़ आती है।
ममता वाहन दर्जनों गांवों के लिए उम्मीद की गाड़ी बन चुका है।
जहां
दवा नहीं, डॉक्टर नहीं, अस्पताल नहीं, सड़क नहीं और लोगों के पास इलाज के
पैसे नहीं! जहां दुआओं और मनौतियों के भरोसे ही किसी बच्चे का जन्म होता
रहा हो, वहां एक वाहन के जरिये मां की ममता को अस्पताल और सुविधाओं से
जोड़ने के इस आइडिया को मूर्त रूप देने में नेशनल रूरल हेल्थ मिशन, कॉरो
सोसाइटी फॉर रूरल ऐक्शन के साथ-साथ यूनिसेफ की भी बड़ी भूमिका है। 24 घंटे
के इस कॉल सेंटर में तीन लड़कियों की ड्यूटी होती है।
सुबह छह बजे
से दो बजे तक। दोपहर दो बजे से सात बजे तक और शाम सात बजे से सुबह के छह
बजे तक। यूनिसेफ से जुड़ी शुभ्रा सिंह बताती हैं कि पहले यह पता किया गया
कि किस ब्लॉक में कितनी ऐसी गाड़ियां हैं, जो किराये पर चलती हैं। उन
गाड़ियों को चिह्नित करने के बाद गाड़ी वाले से स्टांप पेपर पर लिखित रूप
से एक करार किया गया, ‘इससे किराये की मनमानी खत्म हुई और ड्राइवर की
आनाकानी भी।’
वैसे, यह सब आसान नहीं है। अंजलि कहती हैं, ‘कॉल
सेंटर में फोन आता है, तो हम लोग मां बनने वाली महिला का नाम, उनके पति का
नाम, फोन करने वाले शख्स का नाम और साथ में गांव-पंचायत का नाम पूछते हैं।
फिर दोबारा उस नंबर पर फोन करके तहकीकात करते हैं।’ अंजलि की मानें, तो एक
दिन में अमूमन 35 से 40 कॉल आते हैं। इसमें इलाके की ‘सहिया’ की भी सराहना
हो रही है।
सहिया, जो आस-पड़ोस की ही औरत होती है, लेकिन स्वयंसेवी
संस्थाओं और स्वास्थ्य विभाग की बदौलत इतना जान-समझ लेती है कि मां बनने
जा रही महिलाओं को कब क्या खाना चाहिए, कौन सा टीका कब पड़े और प्रसव-पीड़ा
के वक्त कैसे उसे जल्द से जल्द अस्पतालपहुंचाया जाए। रांची से सटे खूंटी
इलाके के टांगर बस्ती की सुमित्रा एक्का लगभग चार महीने पहले मां बनी है।
कहती है, ‘रात 11 बजे लगभग दर्द शुरू हुआ। सास तो छाती पीटने लगी।’
पड़ोस
की एक औरत को गांव की सहिया मेरी टोप्पो की याद आई। आधे घंटे में ममता
वाहन आया। मेरी भी साथ में अस्पताल तक गई। टांगर बस्ती की ही सुमंति मिंज
और मौसमी टोप्पी भी चार महीने पहले मां बनी हैं। सब मेरी टोप्पो और ममता
वाहन की गुण गाती मिलीं। वहीं ड्राइवर तहरात अंसारी से मुलाकात होती है।
उसकी मारुति वैन को ममता वाहन के लिए चिह्नित किया गया है। वह बताता है,
‘रात-बेरात अब तक 65 महिलाओं को अस्पताल पहुंचा चुका हूं।’
टांगर
बस्ती के पहाड़टोला के दूसरे हिस्से में करमी उरैण, अंजलि लकड़ा और मणि
मिंज कुछ महीने पहले मां बनी हैं। करमी कहती है, ‘रात में गाड़ी नहीं आती,
तो पता नहीं क्या हो जाता।’
गांव की आबादी कम है। जीने के लिए जंगल
की लकड़ी, पताल-तोड़ कुएं का पानी है और आलू-मटर की खेती। दो-तीन किलोमीटर
की दूरी पर एक-दो दुकानें हैं। मां बनने के दौरान होने वाली मौतों से बड़ी
कोई ‘आफत’ इस इलाके के लिए नहीं थी। अब बहुत कुछ बदल चुका है। माण्डर ब्लॉक
के हेल्थ सुपरवाइजर बालकृष्ण साईं बताते हैं, ‘पहले लोगों को ममता वाहन पर
भरोसा ही नहीं होता था। टैंपो में जाते थे। दर्द बढ़ जाता था।’ दो मांओं
से मांण्डर के रेफरल अस्पताल में मुलाकात होती है। रात में ममता वाहन के
जरिये वे अस्पताल पहुंची थीं।
एनआरएचएम के प्रखंड कार्यालय
प्रबंधक उपेंद्र प्रसाद सिंह बताते हैं, ‘रेफरल अस्पताल मांण्डर में औसतन
तीन केस ऐसे होते हैं, जिनको ममता वाहन का लाभ मिलता है।’ जाहिर है, मां को
बचाने की इस मुहिम में बहुत से हाथ, दिमाग और दिल मिले हैं। तभी तो जहां,
कभी गांव से अस्पताल तक की दूरी एक उम्र बन जाया करती थी, वहां ममता की
गाड़ी दौड़ रही है।