राजधानी से 30 किमी पश्चिम गंगा नदी के किनारे बसा एक छोटा सा शहर है
मनेरशरीफ. यहां से तीन किमी उत्तर-पश्चिम एक गांव है हल्दीछपरा. एक तरफ
मनेरशरीफ को मखदूम शाह यहिया मनेरी और अनेक सूफी-संतों की स्थली के लिए
प्रसिद्धि प्राप्त है, दूसरी तरफ मनेर के हल्दीछपरा के इलाकों को पवित्र
नदियां सोन, गंगा व सरयूग के संगम के कारण भी अलग पहचान हासिल है. यहां एक
अनूठा श्मसान घाट भी है.
अनूठा इसलिए कि इस श्मसान घाट पर श्मशान के राजा डोम की जगह श्मसान की
रानी डोम की हुक्मरानी चलती है. संभवत: यह भारत का एकमात्र श्मशान घाट है,
जहां कर्मकांड की क्रिया एक महिला डोम कांति के हाथों संपन्न होती है.
समूचे इलाके में कांति को श्मसान की रानी के नाम से जाना जाता है. बकौल
कांति संगमस्थली पर स्थित श्मसान घाट कांति को अपने ससुर से विरासत में
मिली है. कांति के पति शौकीन लाल को मरे पांच वर्ष बीत चुके हैं. पति की
मौत के बाद श्मसान घाट की जिम्मेवारी उसी के कंधों पर आ गयी. उसके तीन बेटे
किशोरी लाल, टुनटुन लाल व लक्ष्मण दिन-रात शराब के नशे में धूत रहते हैं.
इसलिए श्मसान घाट की कमान कांति ने खुद संभाल ली, जो तकरीबन पांच वर्षों
से जारी है. कांति के तीन देवर भी हैं, लेकिन वे भी शराबी हैं. पिछले दो
वर्षों तक कांति ने घाट पर कर्मकांड को बखूबी अंजाम दिया. अब चूंकि उसकी
उम्र 60 वर्ष पार कर चुकी है, इसलिए उससे घाट पर ग्राहकों (शवों को अंतिम
संस्कार करने आने वालों) से हुज्जत और बहस करते नहीं बनती है. इसलिए घाट की
जिम्मेवारी उसने अपनी बहुओं संगीता देवी, मालती देवी व रेखा देवी को सौंप
दी है. कांति की ये तीन बहुएं भी उसी की तरह ही कर्मकांड करवाने में दक्ष
हैं. वे अपने काम में जुटी हैं. श्मसान घाट पर शवों का दाह-संस्कार करने
आनेवालों के लिए महिला डोम के हाथों कर्मकांड करवाना बिलकुल नया व अद्वितीय
लगता है. किसी हिंदू के सभी 16 संस्कारों में से अंतिम संस्कार में
कर्मकांड के माध्यम से अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाले हल्दीछपरा गांव
के तीन परिवारों की डोम टोली के लोग आज अभागों की जिंदगी जी रहे हैं.
उनके बो स्कूल के नाम से अंजान हैं. आधा मकान ईंट है, तो आधा झोपड़ी. न
पीने के लिए उचित पानी की व्यवस्था है और न शौचालय का इंतजाम. घाट की आमदनी
को तीन बराबर-बराबर भागों में बांटकर ये लोग अपनी आजीविका चलाते हैं. जब
घाट पर काम नहीं होता है, तो महिलाएं घर में सूप और हाथ पंखा बनाती हैं.
सूप और पंखा बनाने के लिए का माल यानी बांस इन्हें दाह-संस्कार करने
आनेवालों से शवों के रंथी के रूप में प्राप्त हो जाता है.