मुजफ्फरपुर, कासं : गर्भाशय ऑपरेशन की जांच ज्यों-ज्यों आगे बढ़ रही है,
अस्पताल प्रबंधनों की बेचैनी बढ़ती जा रही है। कुछ जगहों पर मिली गड़बड़ी
सार्वजनिक होने से इनकी बौखलाहट भी दिखने लगी है। रिपोर्ट सार्वजनिक न हो
इसलिए मीडियाकर्मियों को जांच से दूर रखने के लिए अस्पताल प्रबंधनों का
शिष्टमंडल जिलाधिकारी संतोष कुमार मल्ल से मिला। इसके बाद निर्णय हुआ कि
जांच के दौरान मीडियाकर्मी वहां नहीं रहेंगे। इस कारण संजीवनी क्लीनिक में
जांच के दौरान मीडियाकर्मी उपस्थित नहीं रहे। जांच के बाद टीम की ओर से
जानकारी दी गई कि यहां सभी कागजात व्यवस्थित मिले।
संजीवनी क्लीनिक में आरएसबीवाइ योजना के तहत 33 महिलाओं का
हिस्टेरेक्टॉमी ऑपरेशन हुआ था। यहां करीब 20 के कागजात की जांच हुई। वरीय
उपसमाहर्ता मनोज रजक ने बताया कि सभी की बीएसटी सही थी। मोतीपुर के करौना
की सीता देवी (31) के बारे में उन्होंने बताया कि रिपोर्ट में ट्यूमर का
जिक्र है। मगर, बीमा कंपनी ने उसके ऑपरेशन के एवज में अस्पताल की राशि रोक
रखी है। जांच टीम में डॉ. स्नेहलता और बीमा कंपनी के प्रतिनिधि मदन प्रसाद
भी शामिल थे।
हालांकि, सूत्रों की मानें तो बीएसटी में सभी कागजात तो थे। मगर, इसमें
अल्ट्रासाउंड की फिल्म अलग से लेकर दी जा रही थी। ऐसा किस कारण से किया गया
यह नहीं बताया गया।
5664 मामले, कितने सही
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पैसे के अभाव में गरीब निजी अस्पतालों में अपना इलाज नहीं करा सकते थे।
इसे देखते हुए ही राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना के तहत बीपीएल लोगों का मुफ्त
इलाज अच्छे अस्पतालों में कराने की योजना बनाई गई। क्योंकि सरकारी अस्पताल
में तो इनका इलाज मुफ्त में हो ही जाता था। मगर, जिस तरह के अस्पतालों का
चयन इस योजना के लिए किया गया उसने योजना को गलत रूप दे दिया। सुविधा का
बिना मूल्यांकन किए अमानक अस्पतालों को भी इस योजना से जोड़ दिया गया।
गर्भाशय ऑपरेशन में होने वाली गड़बड़ी इसी का परिणाम है। चूंकि संवेदनशील
होने के कारण इस मामले ने तूल पकड़ लिया। मगर, सवाल उठता है कि जो अस्पताल
गर्भाशय ऑपरेशन में गड़बड़ी कर सकता है, अन्य ऑपरेशन में पारदर्शिता बरतने की
गारंटी कैसे दी जा सकती है। बीमा कंपनी नेशनल इंश्योरेंस की रिपोर्ट के
अनुसार जिले में इस वर्ष अस्पताल में भर्ती होने के 7754 मामले आए। इसमें
2090 गर्भाशय ऑपरेशन से जुडे़ थे। कंपनी ने इस एवज में अस्पतालों को
5,91,438 रुपये दिए। प्रति गर्भाशय ऑपरेशन के लिए औसत 10 हजार रुपये की
राशि का आंकड़ा लें तो इसके लिए करीब दो करोड़ की राशि दी गई। यानी, शेष करीब
चार करोड़ की राशि के 5664 मामलों में इलाज के लिए अस्पतालों ने कितनी
पारदर्शिता बरती, इसकी भी जांच क्यों नहीं होनी चाहिए। क्योंकि अगर इलाज के
नामपर अगर लूटखसोट होता रहा तो इस बीमा योजना का उद्देश्य शायद पूरा नहीं
हो सकेगा।