पर्यावरण भी हो विकास का मानक- अनिल पी जोशी

हमने विकास का सबसे बड़ा मापदंड सकल घरेलू उत्पाद की दर को माना है। किसी भी देश की प्रगति उसकी जीडीपी के आधार पर तय की जाती है।

इसमें उद्योग, सुविधाएं, रियल इस्टेट बिजनेस, सेवाएं आदि मुख्य रूप से
आते हैं। सही मायने में खेती को ही जीडीपी या उत्पादन की श्रेणी में आना
चाहिए, क्योंकि अन्य उत्पाद हमारी सुविधाओं से जुड़े हैं, न कि आवश्यकताओं
से। विकास की मौजूदा अवधारणा में जल, जंगल, जमीन को महज कच्चे माल के रूप
में देखा जाता है, न कि ऐसी धरोहर के रूप में जिन्हें आने वाली पीढ़ियों के
लिए बचाए रखा जाना चाहिए। यही कारण है कि जीडीपी की अंधी दौड़ में दुनिया के
सामने पर्यावरण का संकट खड़ा हो गया है।
बढ़ती जीडीपी की दर भारत जैसे
विकासशील देश के पचासी प्रतिशत लोगों के लिए कोई मायने नहीं रखती। सीधे
अर्थों में वर्तमान जीडीपी अस्थिर विकास का सामूहिक सूचक है। इसमें केवल
उद्योगों, ढांचागत सुविधाओं और एक हद तक कृषि पैदावार को विकास का सूचक
माना जाता है। जबकि इसमें खेती को छोड़ कर बाकी सभी सूचक समाज के एक खास
हिस्से का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। यह भी सच है कि वर्तमान जीडीपी पचासी
प्रतिशत लोगों का सीधा नुकसान भी कर रही है। बढ़ते उद्योगीकरण के दबाव के
फलस्वरूप प्रत्यक्ष रूप से दो प्रकार की भ्रांतियां पैदा हुई हैं। एक तो
जीडीपी को ही संपूर्ण विकास का पर्याय समझा जा रहा है, और दूसरे, इसकी आड़
में जीवन के मूलभूत आधार जैसे हवा, पानी, मिट््टी आदि के संरक्षण की लगातार
अनदेखी की जा रही है।
पिछले दो दशक में दुनिया की बढ़ती जीडीपी की सबसे
बड़ी मार पर्यावरण पर पड़ी। हवा, पानी और जंगलों की स्थिति पर इसका विपरीत
प्रभाव पड़ा है जिसका परिणाम आज नदियों के सूखने, धरती की उर्वरा-शक्ति के
क्षरण, जलवायु संकट और ग्लोबल वार्मिंग आदि के रूप में दिखाई दे रहा है।
व्यापारिक सभ्यता इस अवसर से भी नहीं चूकी और उसने इन संकटों को भी मुनाफे
का जरिया बना लिया। इससे क्षीण होते प्राकृतिक संसाधन और क्षीण होते गए।
हममें से किसी ने भी नहीं सोचा था कि कभी बंद बोतलों में पानी बिकेगा। आज
यह हजारों करोड़ रुपए का व्यापार बन गया है। प्रकृति-प्रदत्त यह संसाधन
बोतलोें में बंद न होकर नदी-नालों, कुओं और झरनों में होता तो प्राकृतिक
चक्र पर विपरीत प्रभाव न पड़ता। रासायनिक खादों के बढ़ते प्रचलन ने जहां
मिट््टी का उपजाऊपन कम किया है वहीं प्राकृतिक रूप से उगने वाली वानस्पतिक
संपदा पर भी इसका विपरीत प्रभाव पड़ा है। अपने घर-बाहर को सजाने की
विलासितापूर्ण सभ्यता ने वनों का अंधाधुंध और अवैज्ञानिक दोहन करके जीवन को
कई तरह की मुसीबतों में डाल दिया है।
प्राकृतिक संसाधनों के अतिशय
दोहन से उपजी स्थिति की गंभीरता को देखते हुए सभी देशों ने क्योटो,
कोपेनहेगन और कानकुन में अंतरराष्ट्रीय चर्चाओं में इस बात को चिंता का
विषय बताया। यही नहीं, इसके लिए बढ़ती जीडीपी को भी जिम्मेदार समझा गया,
क्योंकि जीडीपी को ही हर एक देश अपने विकास का मापदंड समझता है। विकसित देश
विकासशील देशों की बढ़ती जीडीपीको लेकर चिंतित हैं, क्योंकि इसका सीधा
अर्थ उद्योगों से जुड़े कॉर्बन उत्सर्जन से है। विकासशील देश विकसित देशों
के खिलाफ लामबंदी कर अपने हिस्से का विकास तय करना चाहते हैं। पर्यावरण की
आड़ में आर्थिक समृद्धि की लड़ाई लड़ी जा रही है। इस खींचतान में जीवन की अहम
आवश्यकताएं- हवा, पानी, मिट््टी- भुलाई जा रही हैं। अगर जीडीपी के सापेक्ष
उपर्युक्त आवश्यकताओं को भी उतना ही महत्त्व दिया जाए तो मानव जीवन के संकट
का प्रश्न कभी खड़ा नहीं होगा।
पर्यावरण का संकट आज प्राकृतिक संसाधनों
के गैर-जिम्मेदाराना दोहन का परिणाम है। एक नजर देश की नदियों पर डालें तो
नदियों ने अपना पानी लगातार खोया है, चाहे वे वर्षा-जल निर्भर नदियां हों
या फिर हिम-नदियां। इनमें लगातार वर्ष-दर-वर्ष पानी का प्रवाह कम होता जा
रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण है नदियों के जलागम क्षेत्रों का वन-विहीन
होना। कई दशकों से देश में पानी का संकट गहराता जा रहा है। वहीं देश में
पानी की बढ़ती खपत चिंता का विषय बनती जा रही है। चूंकि पानी का कोई विकल्प
नहीं है, इसलिए इससे जुड़ा सवाल सीधे जीवन के अस्तित्व का सवाल है।
पिछले
कई दशकों से मिट््टी की जगह रसायनों ने ले ली है। मनुष्य तब से भोजन कम
रसायनों का ज्यादा उपयोग करने को विवश है, जिससे उत्पन्न तमाम विकृतियों का
प्रभाव मनुष्य ही नहीं प्राकृतिक संपदा पर भी पड़ा है। कल-कारखानों,
गाड़ियों, एयरकंडीशनरों के उत्सर्जनों ने प्राणवायु के गुणों पर प्रतिकूल
असर डाला है। दिल्ली, मुंबई समेत बड़े-बड़े महानगरों में लगे डिजिटल डिस्प्ले
बोर्ड हर पल हवा में कॉर्बन डाइ आॅक्साइड आदि गैसों की वर्तमान स्थिति का
खुलासा करते हैं, जो हवा की गुणवत्ता के लिए किसी भी तरह से उपयुक्त नहीं
हैं। पर मुश्किल यह है कि ऐसे विकास को हम अपना लक्ष्य मान बैठे हैं जो
जीवन के बुनियादी संसाधनों की अनदेखी कर रहा है। यह दुर्भाग्य की बात है कि
मिट््टी, पानी, हवा का प्रकृति-प्रदत्त तोहफा उपर्युक्त विकास के सामने गौण मान लिया गया है। संपूर्ण देश के
पंद्रह प्रतिशत लोग ही तथाकथित जीडीपी से लाभान्वित हो रहे हैं। इसे देश की
सुखद स्थिति से जोड़ कर सराहा नहीं जा सकता।
देश के पैंतालीस फीसद लोग
आज भी कई प्रकार की मूलभूत   आवश्यकताआें से वंचित हैं, जिनके पास रहने के
लिए न घर है न बिजली न शौचालय और न ही रोजगार। दिन-प्रतिदिन बेरोजगारी की
दर बढ़ती जा रही है। मूल आवश्कताएं भी पूरी नहीं हो पाती हैं। ऐसे में देश
की प्रगति को मात्र बढ़ती जीडीपी के बल पर कैसे सराहा जा सकता है? आम आदमी
का सीधा संबंध रोटी, कपड़ा, हवा, पानी, बिजली और रोजगार से है। हमें नहीं
भूलना चाहिए कि भौगोलिक परिस्थितिवश और यातायात के साधनों से अलग-थलग पड़े
गांवों का चूल्हा-चौका भी प्रकृति की ही कृपा पर निर्भर है।
दुनिया में
अब भी गांवों की आर्थिकी का आधार वहां पर उपलब्ध संसाधनों से तय होता है।
घास, जलाऊ लकड़ी, वनोपज, पानी, पशुपालन, कृषि सबका सीधा संबंध प्रकृति से
है। देश की बढ़ती जीडीपी से इनका कोई लेना-देना नहीं है। पिछले दशकों में इन
उत्पादों परहमारेइकतरफा आर्थिक विकास का प्रतिकूल असर पड़ा है। जो गांव
अपने प्राकृतिक संसाधनों के बल पर जिंदा थे वे आज अपने अस्तित्व के लिए जूझ
रहे हैं।
प्राकृतिक संसाधनों की कमी से गांवों की व्यवस्था ही नहीं
चरमराई, बल्कि इसका प्रभाव देश और विश्व की पारिस्थितिकी पर भी पड़ा है। ऐसे
में आवश्यक हो जाता है कि विकास की परिभाषा उद्योगों, ढांचागत बुनियादी
विकास और सेवा क्षेत्र के अलावा जीवन से जुड़े अति आवश्यक संसाधनों की
प्रगति से भी जुड़ी हो। इसलिए आर्थिकी के अलावा पारिस्थितिकीय संतुलन बनाए
रखने के मापदंड भी तय किया जाना जरूरी है। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के
साथ-साथ सकल पर्यावरण उत्पाद (जीइपी) का भी देश के विकास में समांतर उल्लेख
होना आवश्यक है।
एक महत्त्वपूर्ण बात जो हम बार-बार नकार देते हैं वह
यह है कि गांवों के प्रति भी हमारा उतना ही गंभीर दायित्व है जितना शहरों
के प्रति। गांवों में बढ़ती बेरोजगारी और शहरों की चमक-दमक ने गांवों में
पलायन को उकसा दिया है। अकेले उत्तराखंड में ग्यारह सालों में ग्यारह सौ
गांव आंतरिक या बाह्य पलायन के शिकार हुए। इस पलायन के पीछे सबसे बड़ी
भूमिका रही है संसाधनों की कमी की, खत्म होते जंगल और पानी की घटती
उपलब्धता ने गांवों की हालत बद से बदतर कर दी है। फिर रोजगार का सरल रास्ता
या तो निम्न स्तर की नौकरी है या जो भी शिक्षा मिली उसके आधार पर प्राप्त
अवसर।
हमने न तो संसाधनों पर आधारित शिक्षा ही दी और न ही इनसे जुडेÞ
रोजगार पर ध्यान दिया। अगर ऐसी शिक्षा हो तो जहां वह संसाधनों के संरक्षण
के प्रति जागरूक करेगी वहीं इनसे जुडेÞ आर्थिक महत्त्व पर भी प्रकाश
डालेगी। एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि आज पूरे बाजार का अस्सी फीसद
हिस्सा गांवों के उत्पादों के इर्दगिर्द ही घूमता है। अगर ऐसा है तो गांवों
को ही इसके लिए क्यों नहीं तैयार किया जाता? मगर मुट्ठी भर लोग जो न तो
जंगलों से जुड़े हैं न ही मिट््टी-पानी से, इन संसाधनों का बड़ा लाभ वे ही
उठाते हैं। अजीब बात है, गेहूं और सरसों किसान पैदा करता है मगर आटा और तेल
बड़ी-बड़ी कंपनियां बेचती हैं। यानी उत्पादों का बड़ा लाभ वे उठाते हैं जो
उत्पाद से जुड़े नहीं हैं। और यही कारण है कि संसाधनों से जुड़े किसान और
श्रमिक इसे लाभकारी न मानते हुए अन्य कामों में सहारा ढूंढ़ रहे हैं। मनरेगा
में मझले दर्जे के किसान तक अपने को ज्यादा सुरक्षित मानते हैं और खेती से
तेजी से दूर हो रहे हैं। ऐसा ही हाल जल, जंगल से जुड़े अन्य स्थानीय
रोजगारों का है।
इन सब पर वापसी अब एक ही परिस्थिति में संभव है। जब तक
स्थानीय संसाधनों पर आधारित रोजगार को सही आर्थिक लाभ से नहीं जोड़ा जाएगा
और गांवों के आर्थिक ढांचे को मजबूत करने की गंभीर पहल नहीं की जाएगी, हम
छद्म आर्थिकी के शिकार रहेंगे। किसी भी देश की सबसे बड़ी संपदा उसके
प्राकृतिक संसाधन हैं और इन्हीं से पारिस्थितिकी तय होती है। इसलिए सबल
पारिस्थितिकी ही सच्ची आर्थिकी है। मौजूदा आर्थिकी इसकी विपरीत दिशा मेंचल
रही है। आज हर तरफ संसाधनों का दोहन है। इनकी भरपाई कैसे होगी इस बारे में
उतनी गंभीरता से नहीं सोचा जाता जितना कि इनके दोहन आधारित विकास में। पर
अब एक नई आर्थिकी की बात सोचनी है जिसमें गांव के संसाधनों पर आधारित विकास
और संचय जुड़ा हो, जो जीडीपी के अलावा हमारे संसाधनों की बेहतरी के लिए किए
जाने वाले सरकारी और सामूहिक प्रयत्नों पर आधारित हो।         
जीडीपी
के साथ जीइपी की मान्यता हमें संतुलित विकास की ओर ले जाएगी। यह सारी
दुनिया के लिए आवश्यक है कि लोग जीडीपी के साथ-साथ जीइपी को भी विकास का
पैमाना मानें, वरना विकास और पर्यावरण का अंतर्विरोध बढ़ता जाएगा। अब इस तरह
की चर्चा देशों के भीतर और संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलनों में होनी निहायत
जरूरी है।

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