त्रासदी की नींव पर घटती त्रासदी

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भोपाल के यूनियन कार्बाइड परिसर में दबाए गए जहरीले कचरे नेआस-पास
के भूजल को मानक स्तर से 561 गुना ज्यादा प्रदूषित कर दिया है. शिरीष खरे
की रिपोर्ट.

सुप्रीम कोर्ट के कड़े रुख और
लंदन ओलंपिक में भोपाल
गैस कांड के मुख्य आरोपित डाउ केमिकल्स कॉरपोरेशन को
शीर्ष प्रायोजक बनाने
से उठे विरोध के बीच आखिरकार केंद्र सरकार ने यूनियन
कार्बाइड कारखाने की
style="font-family:Mangal">चारदीवारी में रखे 340 मीट्रिक
टन जहरीले कचरे को जलाने के लिए जर्मनी
भेजने पर हरी झंडी दिखा दी. लेकिन यह कुल कचरे
का इतना मामूली हिस्सा है कि
इसे जलाने भर से पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं से निजात
नहीं मिल पाएगी.
सरकार भी यह  मान चुकी है कि कारखाने में और उसके चारों तरफ तकरीबन 10
हजार मीट्रिक टन से अधिक कचरा जमीन में दबा हुआ है.

अभी तक सरकारी स्तर पर इसे हटाने को
लेकर कोई चर्चा नहीं हुई है. खुले
आसमान के नीचे जमा यह कचरा बीते कई सालों से बरसात के
पानी के साथ घुलकर अब
तक 14 बस्तियों
की
40 हजार आबादी के भूजल को
जहरीला बना चुका है.

बीते दिनों इस मामले में भोपाल गैस
पीड़ित संगठनों ने भोपाल गैस त्रासदी
को लेकर गठित मंत्री समूह के अध्यक्ष और गृहमंत्री पी
चिदंबरम से मुलाकात
भी की थी. संगठनों का आरोप है कि सरकार सिर्फ कारखाने के बंद गोदाम में
रखे
कचरे
का निपटान करके अपनी जवाबदेही से पल्ला झाड़ना चाह रही है
, जबकि यूनियन कार्बाइड प्रबंधन ने कारखाने परिसर में मौजूद
जहरीले कचरे को
कारखाने के भीतर व बाहर और खुले तौर पर 14 से अधिक स्थानों में दबाया था. कारखाने के बाहर बने तीन तालाबों में तकरीबन 10
हजार मीट्रिक टन जहरीला कचरा दबा हुआ है.
फिलहाल तालाबों की जमीन खेल के मैदानों और बस्तियों में
तब्दील हो गई हैं और यहां दबा कचरा अब सफेद
परतों के रूप में जमीन से बाहर
दिखाई देने लगा है. भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग
संगठन के अब्दुल जब्बार
का कहना है, ‘ कचरा हटाने के नाम पर सरकार गैस पीडि़तों की पीड़ा को बढ़ा रही है. खुले में पड़ा
हजारों मीट्रिक टन कचरा समस्या की असली जड़ है और
इसे निपटाए बिना गैस पीड़ित बस्तियों के भूजल
प्रदूषण को कम नहीं किया जा
सकता.‘ 

यूनियन कार्बाइड कारखाने में
कारबारील
, एल्डिकार्ब और सेबिडॉल
जैसे
खतरनाक
कीटनाशकों का उत्पादन होता था. संयंत्र में पारे और क्रोमियम जैसी
दीर्घस्थायी और जहरीली
धातुएं भी इस्तेमाल होती थीं. कई सरकारी और
गैरसरकारी एजेंसियों के मुताबिक कारखाने के
अंदर और बाहर पड़े कचरे के
लगातार जमीन में रिसने से एक बड़े भूभाग का जल
प्रदूषित हो चुका है.
1991 और 1996
में मध्य प्रदेश सरकार के लोक स्वास्थ्य
यांत्रिकी विभाग ने पाया
था कि इलाके के 11 नलकूपों से लिए गए भूजल के नमूनों में जहरीले रसायन
हैं.
1998 से 2006 के बीच मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने
हर तीन महीने
में
पड़ताल करके यहां जहरीले रसायनों की पुष्टि की है. अंतरर्राष्ट्रीय
संस्था ग्रीनपीसने भी
अपने अध्ययन में पाया कि यहां पारे की मात्रा
सुरक्षित स्तर से 60 लाख गुना तक अधिक है. सबसे ताजा 2009 में दिल्ली के सीएसई यानी सेंटर फॉर साइंस एंेड एनवायरनमेंट
का
अध्ययन है जिसमें कारखाना परिसर से तीन
किलोमीटर दूर और
30 मीटर गहराई तक जहरीले रसायन पाए
गए. सीएसई के मुताबिक कारखाने के आस-पास सतही पानी के
नमूनों में कीटनाशकों का सम्मिश्रण 0.2805
पीपीएम पाया गया जो भारतीय मानक से 561 गुना अधिक है. सीएसई की निदेशक सुनीता नारायण
बताती हैं
, ‘ भोपाल में कारखाना क्षेत्र
भीषण विषाक्तता को जन्म दे रहा है जिसका स्वास्थ्य पर
भयंकर असर पड़ेगा. क्लोरिनेटिड बेंजीन मिश्रण
जिगर और रक्त कोशिकाओं को
नष्ट कर सकता है. वहीं ऑर्गेनोक्लोरीन कीटनाशक कैंसर
और हड्डियों की
विकृतियों के जनक हो सकते हैं. यूसीआईएल के दो प्रमुख उत्पाद कारबारील और एल्डिकार्ब दिमाग और
तंत्रिका प्रणाली को नुकसान पहुंचाने के अलावा
गुणसूत्रों में गड़बड़ी ला सकते हैं.‘ 

फिलहाल जर्मनी की कंपनी जर्मन एजेंसी
फॉर टेक्टिकल को-ऑपरेशन को भोपाल
गैस त्रासदी पर गठित मंत्री समूह ने जर्मनी के
हामबुर्ग स्थित संयंत्र में
भोपाल के 340 मीट्रिक टन कचरे को भेजने का फैसला कर लिया है. लेकिन वित्तीय, कानूनी, पर्यावरणीय और विदेशी मामलों की अड़चनों को दूर करने
से
लेकर इस
कचरे को जर्मनी में जलाने के लिए दोनों देशों की सरकारों की सहमति
बनाना भी जरूरी होगा.
जाहिर है कारखाने के बंद गोदाम के कचरे को अपने आखिरी
मुकाम तक पहुंचाकर नष्ट कराने से पहले एक लंबी
दूरी तय करनी है
, लेकिन इसी के साथ यह सवाल अब तक
बना हुआ है कि स्थानीय क्षेत्र के जन-जीवन और
पर्यावरण को लगातार नुकसान पहुंचाने वाले उस
भूमिगत कचरे से मुक्ति कब
मिलेगी जो 27 साल से गैस पीडि़तों की छाती पर पड़ा हुआ है.

 

 

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