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तमिलनाडु के मदुरैई जिले की एक स्कूल
प्राचार्या ने उन दो लड़कियों को स्कूल में प्रवेश देने से मना कर दिया जिनका विवाह उनके माता पिता ने कक्षा 10वीं पास करने के बाद कर दिया था। प्रारंभिक
तौर पर यह ऐसा लगता है कि प्राचार्या नेstyle="font-size: 10pt; line-height: 115%; font-family: Mangal">अपनी शक्ति का गलत
इस्तेमाल किया। साथ ही व्यापक सामाजिक संदर्भ में यह बड़ा अजीब लगता है और यह
अस्वीकार्य भी है कि किसी लड़की को शिक्षा का लाभ लेने से इसलिए
रोका जाए कि अब वह शादीशुदा महिला है। इस कहानी को देखने के अन्य कोण भी है।
यह कहानी जब 23 जून को अंग्रेजी अखबार हिंदू में छपी तो मेरी इच्छा हुई कि अगर इस
समय प्रसिद्ध समाजशास्त्री लीला दुबे जीवित होती तो उनसे पूछते
कि इस कहानी पर वे क्या सोचती हैं। इस तरह के मसलों पर उनके विचार सामाजिक वास्तविकता पर गहरी प्रतिबद्धता के होते हैं। सिर्फ राजनीतिक
गत्यात्मकता के आधार पर नहीं होते हैं। इस मुद्दे पर उनके एक लेखन को
याद किया जाए महत्वपूर्ण है।
क्या लड़़िकियों का बचपन होता है: आज शिक्षण प्रशिक्षण जेंडर सामान्य
विषय हो गया है। हर र्काइे जानता है कि लिंग के आधार पर भेदभाव होता है और स्कूलों में यह भेदभाव बहुत बड़ी
समस्या है। यह भी सबको मालूम है कि इस विषय पर कैसे बात करनी चाहिए। सारे
प्रशिक्षणों में अब इस मुद्दे पर बात होती है। इस विषय पर बात करने के संदर्भ
व्यक्ति भी उपलब्ध हैं। हर स्तर पर अधिकारी मौज़ूद हैं जो पावर
पोइंट प्रेजेंटेशन देने के लिए सक्षम है। जो यह कहेंगे कि स्कूलों में भर्ती होने में लैंगिक भेदभाव कैसे कम हो रहा है। अब लड़कियां पढ़ रही हैं।
उनके परिणाम अच्छे निकल रहे हैं। इसी तरह अखबारों में
सुर्खियों में छपता है। 10वीं व 12वीं में लड़कों से आगे लड़कियां निकल रही हैं।
ऐसा लगता है जैसे सामाजिक क्रांति हो रही है। लीला दुबे के लेखों में
खासकर जो 1988 में छपा, उसमें लीला दुबे उस सांस्कृतिक
संरक्षण की बात उठाती है जिसमें लड़कियां सामाजिक रूप से स्वीकार्य
महिला बनती हैं। पूरे तथ्यों सहित वे अपनी बात को लिखती हैं। कौनसी संस्थाएं व
व्यवहार लड़की को औरत में ढालती है, उसका वैचारिक स्वरूप स्पष्टतौर पर सामने रखती है। सबसे महत्वपूर्ण संस्था
परिवार व पारिवारिक संबंध है। इन दोनों संस्थाओं के माध्यम से
बचपन से ही लड़की सीखना शुरू कर देती है कि यह उसका भाग्य है कि उसे अपने माता
पिता का घर छोड़ना है। उसका भविष्य तय नहीं है, पता नहीं वह शादी के बाद किस परिवार में जाएगी।
इस भाग्य के साथ जबरदस्त सांस्कृतिक
स्थितियां जुड़ी हुई हैं। धार्मिक क्रियाएं, गाने, परंपराएं सब इसके साथ मजबूती से
जुड़े हुए है।लड़की को विवाह के संदर्भ में इस तरह गढ़ा जाता
है कि उसमें सौंदर्य महत्वपूर्ण हो जाता है।उसे अपने आप को रोके रखना है और स्व को समर्पित करना है। एक लड़की स्वतंत्रता की स्वाभाविक अनुभूति
जिम्मेदारी व स्व को नकारने में परिवर्तित हो जाती है।
यह लेख आपको सोचने को मजबूर करता है
कि क्या लड़कियों का कोई बचपन होता है या सीधे वे बचपन से यौवनावस्था में
पहुंच जाती है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि इससे एक द्वंद्व घर में लड़कियों के
सामाजिकरण व स्कूल की शिक्षा में उनके लक्ष्य के बीच उभरता है।
परंपराएं और रीतिरिवाज बचपन से यह सिखाते हैं कि वह अधीनस्थ की भूमिका में है और पूरी जिंदगी उन्हें पुरुषों के आधिपत्य में रहना है। इस शिक्षा का
मूलमंत्र यह है कि बौद्धिक स्वायत्ता व व्यक्तिगत विशेषता को हर हालत में
छोड़ना है। पूरी ताकत के साथ धार्मिक व जातिगत विश्वास बालपन में यह भावना भर देते
हैं कि उनके शरीर का महत्त्व बच्चा पैदा करने में है। घूमने फिरने
पर प्रतिबंध, उठने बैठने के तरीकों पर प्रतिबंध, समय व स्थान की पाबंदी, उनके मासिक धर्म प्रारंभ होने के बहुत पहले से शुरू हो
जाती है। मासिक धर्म प्रारंभ होने के बाद तो ये प्रतिबंध और भी मजबूत हो
जाते हैं। इससे एक बात साफ उभरकर आती
है कि शिक्षा के मूल सिद्धांत व लड़कियों के बचपन में कितना अंतर है। शिक्षा का सिद्धांतबच्चे की स्वतंत्रता से जुड़ा है। प्रगतिशील विचार यह है कि बच्चे
के आत्मविश्वास, हिम्मत व व्यक्ति के रूप में पहचान को बढ़ाना है। यह बच्चों को केंद्र में रखकर जिस शिक्षा के बारे में सोचा
गया है वह सामाजिक, सांस्कृतिक ताने बाने में लड़की के दिमाग में द्वंद्व पैदा करती है।
समाज की परिधि: लीला दुबे ने इस
द्वंद्व को उभारा कि क्या हम शिक्षा व्यवस्था के सुधार के बारे में सोच
सकते हैं जिसमें लिंग को लेकर एक अच्छी समझ व संबंध को ला
सकें। खासकर उस व्यापक संदर्भ को सामने ला सकें जिसमें संबंधों में ऊंच
नीच व श्रेष्ठता व अधीनता का रिश्ता है। इस बात को सरकारी स्कूल की प्राचार्या के
समाचार से जोड़कर देखना जारी होगा। जिन दो लड़कियों को कक्षा 11
में प्रवेश देने से मना किया वे 10वीं तक इसी विद्यालय में थीं। स्कूल व इसकी
प्राचार्य से इन लड़कियों के माता पिता का शादी के संबंध में कोई
बातचीत नहीं हुई। न ही व्यापक रूप से समुदाय ने कोई बात कही जो व्यापक रूप से
समुदाय ने कोई बात कही जो इस विवाह में शामिल हुए। इस घटना से एक बात साफ निकल कर
आई कि स्कूल, समाज की परिधि से
कितना दूर है? स्कूल वह स्थान है जहां लोग अपने
बच्चों को सर्टिफाइट योग्यता सीखने के लिए भेजते हैं। स्कूल कभी भी समाज के
किसी निर्णय से नहीं जुड़ता है। न ही पाठ्यक्रम दैनिक जिंदगी से कोई वास्ता रखता है। इन स्कूलों के प्राचार्य व अध्यापक सरकार के अदने से कर्मचारी मात्र
हैं। जिन दो लड़कियों की शादी होने से वे विवाहित महिलाएं
बनीं उनके प्रवेश को मना करके प्राचार्या ने एक तरह से अपने गुस्से का इजहार
किया। अगर हम प्राचार्य पर आरोप लगाएं कि उन्होंने अपनी शक्ति का दुरुपयोग किया और
उन पर दबाव बने कि उन्हें इन दोलड़कियों को भर्ती करना है जैसा
सरकार अवश्य करेगी, तो ऐसे में हम उस आवाज को नहीं सुन
रहे हैं जो संस्थागत रूप से अवश्य दफना दी गई है। यह अध्यापकों
की आवाज है जिनके कंधों पर समाज को बदलने का बीड़ा अपने कंधों पर उठाना है।
समाज सुधार का मुद्दा जब वे उठाते भी हैं तो समाज का समर्थन नहीं मिलता है।
पाठ्यक्रम आधारित शिक्षा उनके बौद्धिक संघर्ष को एक घिसापिटा रूप दे देती
है जिसका उद्देश्य परीक्षा कराना व प्रमाण पत्र देना है। समाज व राज्य चूंकि उनको महत्व नहीं देता है। इस कारण जो भूमिका समाज में बननी चाहिए वह
नहीं बन पाती है। मेलूर की प्राचार्या की गलती यह थी कि
उन्होंने इस मुद्दे को स्पष्ट तौर पर कहा। उनका यह कहना सही था कि वह शादीशुदा
महिलाओं को पढ़ाने की स्कूल चलाने के लिए सक्षम नहीं है। अगर बालिका
वधुओं के लिए सरकार स्कूल चलाना चाहती है तो उनके लिए पाठ्यक्रम तैयार करना चाहिए और ऐसी संस्थाएं स्थापित करनी चाहिए जहां उन्हंे पढ़ाया
जा सके।
वास्तव में राज्य बालिका वधु को
वयस्क नागरिक का दर्जा देकर संविधान के सब अधिकार नहीं दे सकती। यह राज्य व समाज के बीच की स्थिति में है। यह भारत की आधुनिकता का बिखरा हुआ रूप है।
यही स्थिति बालश्रम की स्थित को लेकर है। हमें इन सब ढांचों पर खुलकर बात
करनी होगी। हम इन्हें नजरअंदाज करके एक सक्रिय अधीर कार्यकर्ता के रूप में काम करने लगते हैं तो हमारी रणनीति संकीर्ण हो जाती है। औरतों की अधीनता की
स्थिति को सामने रखकर ही पूरी व्यवस्था पर बात करनी होगी।
(लेखक वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर और एनसीआईटी के पूर्व निदेशक
हैं) (अनुवादः रेणुका पामेचा)
(विविधा फीचर्स)