ध्य प्रदेश के ग्वालियर में बना विवेकानंद नीड़म बताता है कि जीवन
और प्रकृति के बीच सामंजस्य कितना सुंदर हो सकता है. प्रियंका दुबे की
रिपोर्ट.
उम्मीद का रंग शायद हरा होता होगा. सूखती नदियों और
लगातार दूषित हो रहे पर्यावरण की चिंताओं वाले दौर में विवेकानंद नीड़म को
देखकर पहला ख्याल यही आता है. चंबल के सूखे बीहड़ों में बने इस हरे भरे
‘आश्रम’ को सहजीवन की उस धारणा के आधार पर बनाया गया है जहां जीवन और
प्रकृति के बीच दो तरफा संबंध हैं. प्रकृति से जो लिया जाता है, उस रूप में
वापस होता है जिसे वह आसानी से स्वीकार कर सकें. जल संरक्षण के अलग-अलग
तरीकों, दैनिक कचरे की रिसाइक्लिंग और गृह-निर्माण की पर्यावरण अनुकूल
पद्धतियों को अपनाकर निर्मित किया गया विवेकानंद नीड़म इसी वैकल्पिक
जीवनशैली का एक केंद्र है. ग्वालियर जिले की एक वीरान पहाड़ी पर इस आश्रम
की परिकल्पना करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता अनिल सरोदे इसकी स्थापना से
जुड़े अनुभव हमें बताते हैं,
‘हमने 1995 में ग्वालियर के आसपास बसे सहरिया आदिवासियों के बीच काम
करना शुरू किया था. एक दिन जब हम एक गांव पहुंचे तो देखा की छह-सात साल की
एक लड़की बीमार-सी दिख रही थी. पूछने पर मालूम पड़ा कि कलावती नाम की यह
बच्ची विकलांग है. उसकी बड़ी बहन की शादी हो रही थी और उसके मां-बाप उसकी
शादी भी उसी दूल्हे से करने की योजना बना रहे थे. हमारे रोकने पर उनका कहना
था कि इस विकलांग बच्ची को आगे कौन स्वीकार करेगा? तब हमने बच्चों का एक
आश्रम खोलने के बारे में सोचा. फिर काफी खोजबीन के बाद तय किया गया कि
हमारी बसाहट प्रकृति को उजाड़कर नहीं, प्रकृति के साथ होनी चाहिए. यह सोच
नीड़म की बुनियाद बनी. आज इस आश्रम में कई बच्चे और बुजुर्ग रहते हैं.’
हालांकि इस सामाजिक कार्यकर्ता के लिए नीड़म की स्थापना को सोच के आगे
जमीन पर उतारना इतना आसान नहीं था. उन्हें जिले के कलेक्टर ने कई बार
समझाया कि वे जिस पहाड़ी को हरा-भरा बनाने की सोच रहे हैं वहां सालों से
पौधे नहीं उगे. दूसरी समस्या पहाड़ी की इस 3.5 एकड़ जमीन को नीड़म के लिए
लेने की भी थी. सरोदे बताते हैं, ‘ हमारे पास बहुत कम पैसे थे. आश्रम के
लिए सरकारी कोष में जमा करवाने के लिए जो पैसा जरूरी था वह भी नहीं था
हमारे पास. हमें एक साल तक कानूनी दांवपेंच सुलझाने पड़े तब जाकर हमें कम
कीमत पर यह जमीन मिल पाई.’
आज इस आश्रम को 17 साल हो गए हैं और इन सालों में बायोडाइजेस्टर की मदद
से काम करने वाले बायो टॉयलेट, गंदे पानी को रिसाइकल करने वाली भूमिगत
टंकियां और गोबर गैस संयंत्र जैसी कई पर्यावरण अनुकूल युक्तियां यहां लागू
की गईं. अनिल और उनकी पत्नी अल्पना सरोदे के मार्गदर्शन में नीड़म के
कार्यकर्ताओं ने दशकों से बंजर रही इस पहाड़ी को कुछ सालों में ही हरा-भरा
बना दिया.
हालांकि इन मुट्ठी भर कार्यकर्ताओं के सामने पहले से कोई तैयार योजना
नहीं थी जिसके तहत वे अचानक पहाड़ी को हरा-भरा बनाते. इसके लिए उन्हें कई
स्तरों पर प्रयोग करने पड़े. इनमें सबसे महत्वपूर्ण और प्रमुखहै नीड़म के
खास बायोडाइजेस्टर से संचालित बायो टॉयलेट. भारतीय रक्षा अनुसंधान केंद्र
ने भारत में पहली बार बायो टॉयलेट की स्थापना विवेकानंद नीड़म में ही करवाई
थी. इन विशेष शौचालयों के बारे में आश्रम के कार्यकर्ता आशाराम प्रजापति
बताते हैं, ‘ इन शौचालयों से निकलने वाला सारा मानव-मल इस बायोडाइजेस्टर
में जाता है. इसमें मौजूद विशेष बैक्टीरिया मल को पचाकर उसे पानी में बदल
देते हैं.’ बायो टॉयलेट के साथ-साथ 14,000 लीटर का वाटर-रिचार्जिंग टैंक भी
नीड़म के वाटर रिचार्जिंग सिस्टम का एक महत्वपूर्ण अंग है. साफ-सफाई और
नहाने आदि के लिए इस्तेमाल किया गया पूरा पानी खास नालियों के जरिए इस
वाटर-रिचार्जिंग टैंक में लाया जाता है. बायो टॉयलेट से निकला पानी भी इसी
टैंक में लाया जाता है. यहां से इस पानी को पाइप-लाइन के जरिये परिसर के
पेड़-पौधों में डाला जाता है. इस तरह इस्तेमाल किए जा चुके पानी को वापस
पौधों में डालकर पहाड़ी का भू-जल स्तर बढ़ाने का प्रयास किया जाता है.
नीड़म में रोजमर्रा के कचरे को खाद में बदलने के लिए तीन बड़ी नाडेप-खाद
टंकियां भी हैं. इसके अलावा आश्रम में केचुओं से बनने वाली ‘वर्मीकल्चर
खाद’ और गोबर-गैस बनाने के लिए स्थापित कचरा टंकी के दो अलग हिस्से भी
मौजूद हैं.
नीड़म में बना विशेष बायो टॉयलेट इतना अहम प्रयोग साबित हुआ कि बाद में
देश भर में कई संस्थान अपने यहां इनकी स्थापना के लिए अनिल से संपर्क कर
चुके हैं. वे बताते हैं, ‘ सियाचिन की रक्षा पोस्टों पर भी हमारे
बायो-टॉयलेट लगवाए गए हैं. असल में ऐसी बर्फीली जगहों पर मानव मल का
साफ-सुथरा खात्मा एक बड़ी समस्या थी. इसी तरह लक्षद्वीप द्वीप समूहों में
रहने वाले लोगों के लिए भी मानव मल का हाइजीनिक खात्मा भी बड़ा सरदर्द था.
अब वहां भी 12,000 बायो-टॉयलेट लगवाए जा रहे हैं.’ आज नीड़म में 250 प्रकार
के 11,000 पेड़-पौधों के साथ-साथ 60 प्रजातियों के पक्षी भी मौजूद हैं.
यहां भू-क्षरण को रोकने के लिए पूरी पहाड़ी पर सीढ़ी नुमा पट्टियां बनाकर,
उन पर पेड़ लगवाए गए हैं. इन पेड़ों के चारों ओर छोटे-छोटे गड्ढे खोदकर
उनमें पानी, खाद और सूखे पत्ते डाल दिए जाते हैं.
आश्रम में सहजीवन की इस अवधारणा को पानी बचाने और कचरे की रिसाइकलिंग के
साथ-साथ गृह-निर्माण में भी इस्तेमाल किया गया है. आश्रम में बने 24 घरों
के निर्माण में ‘लो-कॉस्ट हाउसिंग’ के सिद्धांतों का सख्ती से पालन किया
गया है. अनिल बताते हैं, ‘ हमने यहां घरों के निर्माण में लारी-बेकर
कांसेप्ट का इस्तेमाल किया है. यानी सभी घरों की दीवारें चूहे दानी जैसी
बनावट की हैं और अंदर से लगभग खोखली. इससे कंक्रीट और ईंटों का इस्तेमाल तो
50 प्रतिशत तक घटता ही है, घर का तापमान भी मौसम के हिसाब से कम-ज्यादा
होता रहता है. जैसे गर्मियों में इन घरों के भीतर आम घरों से 6 -7 डिग्री
कम तापमान रहता है और सर्दियों में 6 -7 डिग्री ज्यादा.’ साथ ही नीड़म के
घरों के निर्माण में फेंके जा चुके पुराने सामानों का भी इस्तेमाल हुआ है.
पुरानी बोतलों, पुराने खंबों, टूटे टाइल्स और पुरानी जालियों का रचनात्मक
इस्तेमाल कर इन घरों की सुंदरसजावटकी गई है.
पिछले 17 सालों से विवेकानंद नीड़म के जरिए एक वैकल्पिक जीवन शैली
विकसित करने का प्रयास कर रहे अनिल का मानना है कि सहजीवन का यह मॉडल
नदियों और पर्यावरण को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. प्रदूषित
नदियों और सूखते जल-स्रोतों के बीच आए दिन पानी की किल्लत झेल रहे शहरों
और गांवों के लोगों को सह-जीवन का रास्ता दिखाते हुए वे कहते हैं, ‘अगर
फैक्टरियों के कचरे को बायोडाइजेस्टर से ट्रीट करके नदियों में डाला जाएं
तो काफी हद तक नुकसान को कम किया जा सकता है. साथ ही आम लोग भी अपने-अपने
घरों में छोटे-छोटे बायोडाइजेस्टर लगवाकर भू-जल स्तर को बनाए रखने के
प्रयास कर सकते हैं.’