मैं उम्मीद करता हूं कि ये कोरे आशावादी मूल्यांकन ठीक साबित हों। लेकिन जब भी मैं ऐसा कोई लेख पढ़ता हूं, तो बरबस ही मुझे नॉर्मन एंजेल की याद आ जाती है। वर्ष 1910 में द ग्रेट इल्यूजन नाम की उनकी एक किताब आई थी। उसमें एंजेल ने लिखा था कि युद्ध अब अप्रचलित हो चले हैं। राष्ट्रों की समृद्धि व्यापार और उद्योगों से निर्धारित होती है, न कि जनता के शोषण से। इसीलिए सैन्य अभियानों पर बेतहाशा खर्च करने से कुछ हाथ में आने वाला नहीं है। उन्होंने यह भी लिखा था कि देशभक्ति की भावना में तेजी से कमी आ रही है, और लोग इसे अच्छा मानते हैं। उनके कहने का मतलब यह नहीं था कि अब और बड़े युद्ध नहीं होंगे, लेकिन उनका इशारा इसी ओर था। हालांकि हम सब जानते हैं कि बाद में क्या हुआ।
दरअसल आज की स्थिति में इसकी गारंटी नहीं है कि कोई भी देश आपदा से बचने के लिए, चाहे वह आपदा कितनी बड़ी क्यों न हो, किसी तरह की पहल करेगा। तब तो और नहीं, जब अहंकार और पूर्वाग्रह से ग्रस्त वैश्विक नेता सचाई नहीं देख पाते। यूरोप की मौजूदा खतरनाक स्थिति मुझे करीब सौ साल पहले ले गई। हममें से जो लोग यूरोप के इस संकट के गवाह हैं, उनके लिए यूरोपीय नेताओं का रवैया स्तब्ध करने वाला है। करीब दो साल पहले यूरोपीय नेताओं ने इस अर्थ संकट से निकलने के लिए मितव्ययिता और मुद्रा के अवमूल्यन की, जिसका सीधा अर्थ मजदूरी में कटौती था, रणनीति तय की थी। उनका मानना था कि कर्जदाता देशों की समस्या इससे सुलझेगी। विगत दो वर्षों में यह रणनीति सफल नहीं हो सकी। हालांकि इसके पक्षधर इस बात के लिए अपनी पीठ थपथपा सकते हैं कि इस दौरान कुछ छोटे बाल्टिक देशों की स्थिति पहले की तुलना में कुछ सुधरी है, लेकिन सचाई यह है कि ये देश अब पहले से गरीब हो गए हैं।
इस बीच यूरो संकट भीषण हो चुका है। यूनान से बाहर निकलकर इसने स्पेन और इटली जैसी अपेक्षाकृत बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को अपनी चपेट में ले लिया है। और अब तो पूरा यूरोप ही मंदी की गिरफ्त में है। इसके बावजूद बर्लिन और फ्रेंकफर्ट से जारी किए जाने वाले नीतिगत निर्देशों में कोई विशेष बदलाव देखने को नहीं मिल रहा।
पिछले दिनों हुई शिखर बैठक से हालांकि थोड़ी उम्मीद बनी है, जिसमें जर्मनी ने इटली और स्पेन के लिए उधार कीआसान शर्तों और निजी बैंकों के लिए राहत योजना को अपनी रजामंदी दी है। लेकिन जितनी बड़ी यह समस्या है, उसे देखते हुए राहत के ये कदम मामूली ही कहे जाएंगे। ऐसे में, यूरोप की एकल मुद्रा को बचाने का उपाय क्या हो सकता है? इसके लिए दो फैसले करने होंगे। एक तो यूरोपीय केंद्रीय बैंक को सरकारी प्रतिभूतियों की खरीद करनी होगी। दूसरे केंद्रीय बैंक को विभिन्न देशों की उच्च मुद्रास्फीति दर को फिलहाल बर्दाश्त करना होगा। इसके बावजूद आगामी कुछ वर्षों तक यूरोप के बड़े हिस्से को बेरोजगारी की बेहद उच्च दर का सामना करना पड़ेगा। लेकिन अंतत: इससे समाधान का रास्ता निकलेगा। हालांकि ये नीतिगत परिवर्तन किस तरह सामने आएंगे, यह बता पाना फिलहाल मुश्किल है।
इस संकट को बढ़ाने में यूरोप के नेताओं का भी हाथ है। मसलन, जर्मनी के राजनीतिज्ञ पिछले दो वर्षों से अपने मतदाताओं से झूठ बोल रहे हैं कि मौजूदा संकट के लिए दक्षिण यूरोप की सरकारों की लापरवाही जिम्मेदार है। जबकि सचाई यह है कि मौजूदा संकट का केंद्रबिंदु बने स्पेन में संकट से ठीक पहले तक हालात इतने बुरे नहीं थे। वह कर्ज में तो डूबा हुआ नहीं ही था, उसके पास बजट भी अधिक था। बावजूद इसके आज अगर वह संकट में है, तो उस होम लोन का बुलबुला फूटने के कारण, जिसे जर्मनी समेत कमोबेश सभी यूरोपीय बैंकों ने बढ़ावा दिया था। सच तो यह है कि मूल समस्या पर चढ़ा झूठ का परदा ही आज इसके समाधान के मार्ग में बड़ी बाधा बन बैठा है।
गलत ढंग से सूचित किए गए मतदाता ही एक मात्र परेशानी नहीं हैं। यूरोप के नीति-नियंता भी वास्तविकता से दूर हैं। बैंक फॉर इंटरनेशनल सेटलमेंट की पिछले हफ्ते जारी की गई रिपोर्ट कहती है कि यूरोप एक ऐसी दुनिया में प्रवेश कर चुका है, जहां न तो उसका अतीत काम आएगा और न ही अंकगणित के नियम। ऐसे में मितव्ययिता अपनाने, खर्चों में कटौती करने तथा एक और मंदी न लाने का भरोसा दिलाने में ही समाधान है।
इसीलिए यह सवाल उठता है कि क्या यूरोप खुद को बचा पाएगा। दांव बहुत बड़ा है, पर यूरोपीय नेता भी उतने बुरे और बेवकूफ नहीं हैं। वर्ष 1914 में भी तो वे बुरे और बेवकूफ नहीं थे। फिर उन्हें वह सब क्यों भोगना पड़ा? सिर्फ उम्मीद ही की जा सकती है कि यूरोप में इतिहास खुद को नहीं दोहराएगा।