जनसत्ता 25 मई, 2012: यह रास्ता जंगल की तरफ जाता जरूर है, लेकिन जंगल का
मतलब वहां सिर्फ जानवरों का निवास नहीं होता। जानवर तो आपके आधुनिक शहर में
हैं, जहां ताकत का अहसास होता है। जो ताकतवर है उसके सामने समूची व्यवस्था
नतमस्तक है।
लेकिन जंगल में तो ऐसा नहीं है। यहां जीने का अहसास है। सामूहिक संघर्ष है।
एक दूसरे के मुश्किल हालात को समझने का संयम है। फिर न्याय से लेकर
मुश्किल हालात से निपटने की एक पूरी व्यवस्था है, जिसका विरोध भी होता है
और विरोध के बाद सुधार की गुंजाइश भी बनती है।
लेकिन आपके शहर में तो
जो तय हो गया चलना उसी लीक पर है। और तय करने वाला कभी खुद को न्याय के
कठघरे में खड़ा नहीं करता। चलते चलिए। यह अपना ही देश है। अपनी ही जमीन है।
और यही जमीन पीढ़ियों से पूरे देश को अन्न देती आई है। और अब आने वाली
पीढ़ियों की फिक्र छोड़ कर हम इसी जमीन के दोहन पर आ टिके हैं। इस जमीन से
कितना मुनाफा बटोरा जा सकता है, इसे तय करने लगे हैं। उसके बाद जमीन बचे या
न बचे।
लेकिन आप खुद ही सोचिए, जो व्यवस्था पहले आपको आपके पेट से अलग
कर दे, फिर आपके भूखे पेट के सामने आपकी ही जिंदगी रख दे और विकल्प यही
रखे कि पेट भरोगे तो जिंदा बचोगे। तो जिंदगी खत्म कर पेट कैसे भरा जाता है,
यह आपकी शहरी व्यवस्था ने जंगलों को सिखाया है। यहां के
ग्रामीण-आदिवासियों को बताया है। आप इस व्यवस्था को जंगली नहीं मानते।
लेकिन हम इसे शहरी जंगलीपन मानते हैं। लेकिन जंगल के भीतर भी जंगली
व्यवस्था से लड़ना पड़ेगा, यह हमने कभी सोचा नहीं था। लेकिन अब हम चाहते हैं
कि जंगल किसी तरह महफूज रहे। इसलिए संघर्ष के ऐसे रास्ते बनाने में लगे
हैं, जहां जिंदगी और पेट एक हो।
लेकिन पहली बार समझ में यह भी आ रहा है
कि जो व्यवस्था बनाने वाले चेहरे हैं उनकी भी इस व्यवस्था के सामने नहीं
चलती। यहां सरकारी बाबुओं या नेताओं की नहीं, कंपनियों के पैंट-शर्ट वाले
बाबुओं की चलती है। जो गोरे भी हैं और काले भी। लेकिन हर किसी ने सिर्फ एक
पाठ पढ़ा है कि यहां की जमीन से खनिज निकाल कर, पहाड़ों को खोखला बना कर,
हरी-भरी जमीन को बंजर बना कर आगे बढ़ जाना है। इन सबको करने के लिए, इस जमीन
तक पहुंचने के लिए जो हवाई पट््टी चाहिए, चिकनी-चौड़ी शानदार सड़कें चाहिए,
जो पुल चाहिए, जमीन के नीचे से पानी खींचने के लिए जो बड़े-बडेÞ मोटर पंप
चाहिए, खनिज को ट्रक में भर कर ले जाने के लिए जो कटर और कन्वेयर बेल्ट
चाहिए, अगर उसमें रुकावट आती है तो यह विकास को रोकने की साजिश है।
जिन
बयालीस से ज्यादा गांवों के साढ़े नौ हजार से ज्यादा ग्रामीण आदिवासी
परिवारों को जमीन से उखाड़ कर अभी मजदूर बना दिया गया है, और खनन लूट के बाद
वे मजदूर भी नहीं रहेंगे, अगर वही ग्रामीण अपने परिवार के भविष्य का सवाल
उठाते हैं तो वेविकास विरोधी कैसे हो सकते हैं। इस पूरे इलाके में भारत के
बड़े उद्योगपति और कॉरपोरेट खनन और बिजली संयंत्र लगाने में लगे हैं और
अपनी परियोजनाओं को देखने के लिए जब वे हेलीकॉप्टर और अपने निजी जेट से
यहां पहुंचते हैं, दुनिया की सबसे बेहतरीन गाड़ियों से यहां पहुंचते हैं, तब
हमारे सामने यही सवाल होता है कि इससे देश को क्या फायदा होने वाला है।
यहां
मजदूरों को दिन भर के काम की एवज में बाईस से छप्पन रुपए तक मेहनताना
मिलता है। जो हुनरमंद होता है उसे पचासी से एक सौ पचीस रुपए तक मिलता है।
कोयला खदान हो, बाक्साइट या जिंक या फिर बिजली संयंत्र लगाने का काम, यहीं
के गांव वाले लगे हैं। उन्हें हर दिन सुबह छह से नौ किलोमीटर पैदल चल कर
यहां पहुंचना पड़ता है। जबकि इनके गांव में धूल झोंकती कॉरपोरेट घरानों की
एसी गाड़ियां दिन भर में औसतन पांच हजार रुपए का तेल फंूक देती हैं।
हेलीकॉप्टर या निजी जेट के खर्चे तो पूछिए नहीं। इन्हें कोई असुविधा न हो
इसके लिए पुलिस और प्रशासन के सबसे बड़े अधिकारी इनके पीछे हाथ जोड़ कर खड़े
रहते हैं। तो आप ही बताइए इस विकास से देश का क्या लेना-देना है। देश का
मतलब अगर देश के नागरिकों को ही खत्म कर उद्योगपति या कॉरपोरेट विकास की
परिभाषा को अपने मुनाफे से जोड़ देना है तो फिर सरकार का मतलब क्या है, जिसे
जनता चुनती है।
ग्रामीण आदिवासियों के लिए इस पूरे इलाके में एक भी
स्कूल नहीं है। पानी के लिए हैंड पंप नहीं हैं। बाजार के नाम पर अब भी हर
गुरुवार और रविवार को हाट लगती है, जिसमें बयालीस से ज्यादा गांवों के लोग
अन्न और पशु लेकर आते हैं। एक दूसरे की जरूरत के सामान की अदला-बदली होती है। लेकिन अब सरकारी बाबू हाट वाली जगह को भी हड़पने के
लिए विकास का पाठ पढ़ाने लगे हैं। धीरे-धीरे खदानों में काम शुरू होने लगा
है। बिजली संयंत्रों का माल-असबाब उतरने लगा है। तो कंपनियों के
कर्मचारी-अफसर भी यहीं रहने लगे हैं। उनको रहने के दौरान कोई असुविधा न हो
इसके लिए बंगले और बच्चों के स्कूल से लेकर खेलने का मैदान तक बनाने के लिए
मशक्कत शुरू हो गई है।
गांव के गांव यह कह कर उजाड़े जा रहे हैं कि यह
जमीन तो सरकार की है। सरकार ने इस पूरे इलाके की गरीबी दूर करने के लिए
समूचे इलाके की तस्वीर बदलने की ठान ली है। चिलकादाद, डिबूलगंज, बिलवड़ा,
खुलडुमरी सरीखे दर्जनों गांव हैं, जहां के लोगों ने अपनी जमीन पावर
प्लांट के लिए दे दी। लेकिन अब अपनी दी हुई जमीन पर ही गांव वाले नहीं जा
सकते। खुलडुमरी के करीब बाईस सौ लोगों की जमीन लेकर उन्हें रोजगार देने का
वादा किया गया। लेकिन रोजगार मिला सिर्फ दो सौ चौंतीस लोगों को।
आदिवासियों के जंगल को तबाह कर दिया गया है। जिन फॉरेस्ट ब्लॉक को लेकर
पर्यावरण मंत्रालय ने अंगुली उठाई और वन न काटने की बात कही, उन्हीं जंगलों
को अब खत्म किया जा रहा है, क्योंकि अब निर्णय पर्यावरण मंत्रालयनहीं,
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बल्कि मंत्रियों का समूह (ग्रुप आॅफ मिनिस्टर्स यानी जीओएम) करता है।
इस
तरह माहान, छत्रसाल, अमेलिया और डोगरी टल-11 जंगल ब्लॉक पूरी तरह खत्म किए
जा रहे हैं। करीब 5872.18 हेक्टेअर जंगल पिछले साल खत्म किया गया। इस बरस
3229 हेक्टेअर जंगल खत्म होगा। अब आप बताइए, यहां के ग्रामीण-आदिवासी क्या
करें। कुछ दिन रुक जाइए, जैसे ही ये ग्रामीण, आदिवासी अपने हक का सवाल खड़ा
करेंगे वैसे ही दिल्ली से यह आवाज आएगी कि यहां माओवादी विकास नहीं चाहते
हैं।
इसकी जमीन अभी से कैसे तैयार कर ली गई है, यह आप सिंगरौली के बारे
में सरकारी रिपोर्ट से लेकर अंतरराष्ट्रीय आर्थिक मंचों से सिंगरौली के
लिए मिलती कॉरपोरेट की मदद के दौरान तैयार की जा रही रिपोर्ट से समझ सकते
हैं, जिसमें लिखा गया है कि खनिज संसाधन से भरपूर इस इलाके की पहचान बिजली
उत्पादन के क्षेत्र में भारतीय क्रांति की तरह है। जहां खदान और पावर
सेक्टर में काम पूरी तरह शुरू हो जाए तो अमेरिका और यूरोप को मंदी से
निपटने का हथियार मिल सकता है।
इसलिए यहां की जमीन का दोहन किस स्तर पर
हो रहा है और किस तरीके से यहां के कॉरपोरेट के लिए अमेरिकी सरकार तक भारत
की नीतियों को प्रभावित कर रही है, इसे पर्यावरण मंत्रालय और कोयला
मंत्रालय की नीतियों में आए परिवर्तन से भी समझा जा सकता है। जयराम रमेश ने
पर्यावरण मंत्री रहते हुए चालीस किलोमीटर क्षेत्र के जंगल का सवाल उठाया।
पर्यावरण के क्षेत्र में काम कर रहे अंतरराष्ट्रीय स्वयंसेवी संगठन ग्रीन
पीस ने यहां के ग्रामीण आदिवासियों पर पड़ने वाले असर का समूचा खाका रखा।
लेकिन आधा दर्जन कॉरपोरेट की योजना के लिए जिस तरह अमेरिका, आस्ट्रेलिया से
लेकर चीन तक का मुनाफा जुड़ा हुआ है, उसमें हर वह रिपोर्ट ठंडे बस्ते में
डाल दी गई, जिनके सामने आने से योजनाओं में रुकावट आती। इस पूरे इलाके में
चीन के कामगारों और आस्ट्रेलियाई अफसरों की फौज देखी जा सकती है। अमेरिकी
बैंक के नुमाइंदों और अमेरिकी कंपनी बुसायरस के कर्मचारियों की पहल देखी जा
सकती है।
आधा दर्जन पावर प्लांटों के लिए सत्तर फीसद तकनीक अमेरिका से
आ रही है। ज्यादातर योजनाओं के लिए अमेरिकी बैंक ने पूंजी कर्ज पर दी है।
करीब नौ हजार करोड़ से ज्यादा सिर्फ अमेरिका के सरकारी बैंक यानी बैंक आॅफ
अमेरिका का लगा है।
कोयले का संकट न हो इसके लिए कोयला खदान के
राष्ट्रीयकरण की नीतियों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। खुले बाजार में
कोयला पहुंच भी रहा है और ठेकेदारी से कोयला खदान से कोयले की उगाही भी हो
रही है। कोयला मंत्रालय ने ही कोल इंडिया की जगह हिंडालको और एस्सार को
कोयला खदान का लाइसेंस दे दिया है जो अगले चौदह बरस में एक सौ चौवालीस
मिलियन टन कोयला खदान से निकाल कर अपने पावर प्लांट में लगाएंगे। तमाम कही
बातों के दस्तावेजों को बताते-दिखाते हुए हमने खदान और गांव के चक्कर पूरे
किए तो लगा पेट में सिर्फ कोयले का चूरा है।
सांसों में भी कोयले की
गर्द की धमक थी। संयोग से ढलती शाम और डूबतेहुए सूरज के बीच सिंगरौली के
आसमान में चक्कर लगाता एक विमान भी जमीन पर उतरा। पूछने पर पता चला कि
सिंगरौली में अमेरिकी तर्ज पर हिंडालको की निजी हवाई पट््टी है, जहां
रिलायंस, टाटा, जिंदल, एस्सार, जेपी समेत एक दर्जन से ज्यादा कॉरपोरेट
कंपनियों के निजी हेलीकॉप्टर और चार्टेड विमान हर दिन उतरते हैं।
आने वाले दिनों में सिंगरौली की पहचान पैंतीस हजार मेगावाट बिजली पैदा करने वाले क्षेत्र के तौर पर होगी। जिस पर भारत रश्क करेगा।