जनसत्ता 30 मई, 2012: एनसीइआरटी की ग्यारहवीं कक्षा की एक पाठ्यपुस्तक के
जिस कार्टून पर विवाद खड़ा हुआ, बात महज उस कार्टून तक रहती तो समझ में आती।
लेकिन केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री ने एक झटके में सारे कार्टून
हटाने की घोषणा कर दी। छह साल पहले बड़ी मेहनत से तैयार कक्षा नौ से बारह तक
की राजनीति शास्त्र की सारी पाठ्यपुस्तकों को वापस लेने का एलान कर दिया।
बाकी समाज विज्ञान की पुस्तकों की भी समीक्षा होगी। ऐसा लगा मानो कपिल
सिब्बल इसके लिए तैयार बैठे थे और ऐसे बवाल का इंतजार ही कर रहे थे। यूपीए
सरकार का मानवीय और उदात्त चेहरा मानी जाने वालीं सोनिया गांधी भी इस
मुद्दे पर उत्तेजित नजर आर्इं और लोकसभा में किताबों को वापस लेने का
निर्देश देती दिखाई दीं। शायद पाठ्यपुस्तकों में शामिल नेहरू और इंदिरा
गांधी के कार्टूनों से उनका क्रोध भड़का।
यह सही है कि संसद को ऐसे
मुद््दे उठाने और उन पर फैसला लेने का अधिकार है। वह भारत की सर्वोच्च
संस्था है। नीतिगत निर्णयों में उसकी सर्वोच्चता को चुनौती नहीं दी जा
सकती। शिक्षा नीति के लक्ष्य और दिशा तय करने का काम संसद का है, पर शिक्षा
नीति के ब्योरे और पाठ्यपुस्तकें तैयार करने का काम शिक्षाविदों और
संबंधित विषयों के विशेषज्ञों का है। अगर संसद को एक कार्टून पर एतराज था
तो केवल उसे हटाने का आश्वासन मानव संसाधन विकास मंत्री को देना चाहिए था;
उन्होंने आनन फानन में समाज विज्ञान की सारी पाठ्यपुस्तकों की समीक्षा के
लिए समिति गठित करने की घोषणा क्यों कर दी, जबकि ये पाठ्यपुस्तकें कांग्रेस
की ही पिछली सरकार की पहल पर राष्ट्रीय पाठ्यचर्या कार्यक्रम के तहत तैयार
की गई थीं।
संसद में हुई बहस से साफ है कि शायद ही किसी सांसद ने इस
कार्टून के साथ जुडेÞ पाठ को पढ़ने की जहमत उठाई हो, जिसमें आंबेडकर को काफी
सम्मान और मान्यता दी गई है। उनकी चिंता यही थी कि कार्टूनोंं से नेताओं
की छवि बिगड़ रही है। इसी संदर्भ में पंजाब के अकाली मुख्यमंत्री की
पुत्रवधू और सांसद हरसिमरत कौर बादल ने एक मजेदार बात कही। उन्होंने संसद
को बताया कि वे एक स्कूल में गर्इं और करीब सौ बच्चों से बात हुई। उनमें से
कोई भी राजनीति में नहीं आना चाहता। उन्हें बड़ा झटका लगा। तब नेशनल
कॉन्फ्रेंन्स के सांसद शरीफुद्दीन शारिक ने ही उसका जवाब दिया। उन्होंने
कहा कि इसके लिए हम राजनेताओं को अपने गिरेबान में भी झांक कर देख लेना
चाहिए।
इसके बाद पुणे के प्रोफेसर सुहास पलशीकर के दफ्तर में रामदास
आठवले के कार्यकर्ताओं द्वारा तोड़-फोड़ की घटना सामने आई। पाठ्यपुस्तकों और
पाठ्यक्रमों में क्या हो और क्या नहीं, इसको लेकर अगर विचार-बहस की जगह
उपद्रव और भीड़ को भड़काने का काम होने लगे तो यह अभिव्यक्तिकी आजादी, शिक्षा
की स्वायत्तता और लोकतंत्र के लिए अच्छा शगुन नहीं है।
अंग्रेजी में एक
कहावत है- शिशु को नहलाने के बाद गंदे पानी के साथ शिशु को भी फेंक देना।
एनसीइआरटी के पिछले निदेशक कृष्ण कुमार के निर्देशन में कक्षा छह से बारह
तक की समाज विज्ञान की पाठ्यपुस्तकोंके पुनर्लेखन का एक महत्त्वपूर्ण काम
छह-सात साल पहले हुआ था। प्रखर समाज विज्ञानियों की टीम ने काफी मेहनत के
साथ नई किताबें तैयार कीं, जिनमें कई नए प्रयोग किए गए। पुराने उबाऊ, नीरस
पाठों को तोते की तरह रटवाने के बजाय विद्यार्थियों की पढ़ाई को ज्यादा
रोचक, तर्कपूर्ण और समसामयिक बनाया जाए, उन्हें विविध विचारों, बहसों और
प्रवृत्तियों से परिचित कराया जाए, किताबें विद्यार्थियों को डराने के बजाय
मित्रवत मालूम हों- इस सब की कोशिश हुई। एक तरह से पिछली सदी के पूर्वार्ध
में हुए अनूठे गांधीवादी शिक्षाविद गिजुभाई के विचारों की दिशा में यह एक
पहल थी। अपने प्रसिद्ध उपन्यास ‘दिवास्वप्न’ में गिजुभाई कक्षा में बच्चों
को कहानियां सुनाते हैं, गीत गाने देते हैं, खेल खिलाते हैं और बाहर घुमाने
ले जाते हैं।
पाठ्यपुस्तकों में कार्टूनों का इस्तेमाल इसी राह पर
छोटा-सा कदम था। कार्टूनों के साथ इन पाठ्यपुस्तकों में फोटो, रेखाचित्रों,
अखबार-कतरनों आदि का भी इस्तेमाल हुआ। इस नए प्रयोग पर खुली बहस होनी
चाहिए, इसका मूल्यांकन होना चाहिए। इसमें कोई पूर्वग्रह है तो उस पर भी बहस
होनी चाहिए। लेकिन सिब्बल साहब ने तो इसके खिलाफ पहले ही खुला फतवा दे
दिया है। उनके द्वारा घोषित समीक्षा समिति क्या राय देगी, यह करीब-करीब
पहले से तय है।
इसी संदर्भ में शिक्षा में हुए एक और महत्त्वपूर्ण
प्रयोग के हश्र की याद आती है। दोनों में काफी समानता है। मध्यप्रदेश में
होशंगाबाद और कुछ अन्य जिलों के स्कूलों में विज्ञान की शिक्षा का एक
प्रयोग प्रदेश सरकार की मदद से तीस साल तक चला। विज्ञान को रटने के बजाय
बच्चे खुद प्रयोग करके सीखें और खुद सवालों का जवाब खोजें, इस पर जोर था।
आजाद भारत में सरकारी तंत्र के अंदर शिक्षा में नवाचार का यह एक
महत्त्वपूर्ण प्रयोग था।
‘होशंगाबाद विज्ञान’ में देश भर के वैज्ञानिकों
और शिक्षाविदों ने काफी मेहनत की थी। नई पाठ्यपुस्तकें तैयार हुर्इं,
आसपास के परिवेश में मिलने वाली सस्ती सामग्रियों से प्रयोग करने के उपकरण
बने, हर साल सरकारी शिक्षकों का प्रशिक्षण होता रहा। ‘सवालीराम’ नामक एक
काल्पनिक पात्र बना जो बच्चों के सवालों का जवाब देता और सवाल करने के लिए
प्रोत्साहित करता था। सरकारी तंत्र में चलने से इसकी कुछ सीमाएं और
कमियां थीं, फिर भी यह काफी महत्त्वपूर्ण प्रयोग था। लेकिन 2002 में एक दिन अचानक मध्यप्रदेश सरकार ने इसे बंद करने का एलान कर दिया।
तब
के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और उनके खास आइएएस अफसरों ने इसके पहले कोई
मूल्यांकन करवाने या कोई बहस चलाने की जरूरत नहीं समझी। ‘राजा’ की ऐसी
मर्जी है, इतना ही इसे बंद करने के लिए काफी था। ‘एकलव्य’ के साथियों ने
बहुत दौड़-धूप की, बैठकें कीं, हस्ताक्षर अभियान चलाए, देश-दुनिया के
प्रतिष्ठित शिक्षाविदों-वैज्ञानिकों-बुद्धिजीवियों से चिट्ठियां लिखवार्इं,
लेकिन राजा को कोई फर्क नहीं पड़ा।
इन प्रयोगों पर हमला भाजपा-शिवसेना
की सरकारों ने नहीं किया, जो कठमुल्लावादी मानी जाती हैं। विडंबना देखिए कि
काफी समानता रखने वाले शिक्षा के इन दोनों महत्त्वपूर्ण नवाचारों को
कांग्रेस की सरकारों ने ही शुरू किया था और कांग्रेस की सरकारों ने ही
एकाएक बंद कर दिया। हमारे देश में वामपंथी और प्रगतिशीलबुद्धिजीवियोंमें
कांग्रेस के प्रति एक नरम भाव रहता है। भाजपा-शिवसेना के मुकाबले कांग्रेस
बेहतर नजर आती है। कांग्रेस सरकारों के साथ मिल कर कुछ अच्छे काम किए जा
सकते हैं, कुछ अच्छे कानून बनाए जा सकते हैं, बिगड़े हुए हालात में कुछ
सुधार किया जा सकता है- ऐसी संभावना उन्हें नजर आती है। अंग्रेजी भाषा में
इसके लिए ‘स्पेस’ शब्द इस्तेमाल किया जाता है। कई महत्त्वपूर्ण पदों पर या
कई समितियों में, ऐसे लोगों को बिठा दिया जाता है और वे बड़ी लगन, निष्ठा और
मेहनत से अपना काम करने लगते हैं।
लेकिन इन दोनों उदाहरणों से और ऐसे
कई अन्य अनुभवों से यह जाहिर होता है कि अक्सर यह अपनी सत्ता की जरूरतों के
मुताबिक सत्ताधीशों का एक खेल ही होता है। ऐसे कार्यक्रमों और उसके
उद्देश्यों में सत्ताधीशों की कोई निष्ठा या बुनियादी प्रतिबद्धता नहीं
होती। इसलिए कोई अड़चन आने पर, या अपनी जरूरत पूरी होने पर वे उन्हें और
उनके कार्यक्रमों को दूध से मक्खी की तरह निकाल फेंकने में भी संकोच नहीं
करते।
फिर पिछले बीस सालों से हमारी सरकारें जिस तेजी से
वैश्वीकरण-बाजारीकरण-कंपनीकरण की गोद में जाकर बैठ गई हैं, उससे यह ‘स्पेस’
और भी खत्म हो गया है। अब बाजार और कंपनियां ही उनके आका बन गए हैं, बाकी
सब चीजें गौण हो गई हैंं। शिक्षा के क्षेत्र में ही लें, तो मनमोहन सिंह,
मोंटेक सिंह और कपिल सिब्बल मिल कर बहुत तेजी से इसे मुनाफाखोरी, व्यापार
और गलाकाट प्रतिस्पर्धा के हवाले करते जा रहे हैं।
वहां अब रचनात्मकता,
विचार, ‘करके सीखें’ और जनहित की गुंजाइश बची नहीं है। मध्यवर्ग के बच्चों
पर केजी और पहली कक्षा से ही प्रतिस्पर्धा के लिए तैयार होने का दबाव है।
कोचिंग और ट्यूशन ने उनका बचपन छीन लिया है। आइआइटी की तैयारी के लिए बड़ी
संख्या में विद्यार्थी अब कक्षा ग्यारह-बारह की पढ़ाई की खानापूर्ति करते
हैं और पूरा समय कोचिंग में लगाते हैं। कमाऊ व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की होड़
में समाज-विज्ञान के विषयों की ओर रुझान भी खत्म हो रहा है।
भारतीय
शिक्षा में कई तरह के विभाजन पैदा हो रहे हैं। उनमें एक है शिक्षा बोर्ड
का। देश में केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के तहत पढ़ने वाले बच्चे
पांच-सात फीसद होंगे, जिनके लिए ये नई पाठ्यपुस्तकें तैयार की गई थीं।
ज्यादातर चर्चा-बहस इन पांच-सात फीसद बच्चों को सामने रख कर ही हो रही है।
देश के बाकी नब्बे-पंचानबे फीसद बच्चे तो प्रादेशिक शिक्षा बोर्डों की
किताबों से पढ़ते हैं, जहां और भी बुरी हालत है। आज गरीब तबके के बहुसंख्यक
बच्चे उन उपेक्षित सरकारी स्कूलों या घटिया निजी स्कूलों में पढ़ने के लिए
अभिशप्त हैं, जहां पढ़ाई के नाम पर उनके साथ क्रूर मजाक होता है।
पाठ्यपुस्तक कैसी हो, यह सवाल वहां अप्रासंगिक हो जाता है।
शिक्षा में
केंद्रीय भूमिका शिक्षक की होती है। अगर शिक्षा को रचनात्मक, आनंददायक और
सार्थक बनाना है तो और भी ज्यादा। लेकिन सरकारी व्यवस्था में ‘अर्ध शिक्षक’
(पैरा-टीचर)के आविष्कार और सस्ते निजी स्कूलों के चलन के बाद शिक्षक एक
अस्थायी, अप्रशिक्षित, शोषित मजदूर बन गया है। घोर बेरोजगारी के इस युग में
नौकरी पाने केलिए वह बीएड की डिग्री भी ले आता है, जो कुकुरमुत्ते की तरह
उग आए निजी बीएड कॉलेजों से पैसा देकर मिल जाती है। ऊपर से ये दीन-शोषित
मजदूर रूपी शिक्षक भी पर्याप्त संख्या में गरीब बच्चों को उपलब्ध नहीं हैं।
प्राथमिक शाला की पांच कक्षाओं को दो या तीन शिक्षक पढ़ाते हैं और इस
विसंगति को दूर करने के बजाय नए शिक्षा अधिकार कानून ने उसे वैधानिकता
प्रदान कर दी है।
कुल मिला कर, हम पूंजीवाद के ऐसे अनियंत्रित और भयानक
दौर से गुजर रहे हैं जो बच्चों और बचपन को भी मुनाफे की मशीन में पीस रहा
है। दुनिया के विकसित पूंजीवादी देशों में भी कभी ऐसे हालात नहीं रहे और
इतना निजीकरण नहीं हुआ है। तीसरी दुनिया के गरीब देशों में पूंजीवाद का रूप
ज्यादा भयानक, ज्यादा अमानवीय और चहुंमुखी गिरावट का है।
भारतीय
राजनीति की गिरावट, समाज की बढ़ती विशृंखलता और असहिष्णुता, शिक्षा की
बदहाली- सब इसी का हिस्सा है। शिक्षा व्यवस्था को सुधारना है, उसमें
रचनात्मकता-प्रयोगधर्मिता-आनंद लाना है, उसे सार्थक और मुक्तिदायक बनाना है
या बच्चों के बचपन को बचाना है, तो यह सीमित काम भी इस ढांचे में नहीं हो
सकेगा। गिजुभाई और कपिल सिब्बल ज्यादा दिन एक साथ नहीं चल सकते। दोनों में
बुनियादी विरोध है। पालो फ्रेरे का ‘उत्पीड़ितों का शिक्षाशास्त्र’
उत्पीड़कों के साथ बैठ कर और मिल कर नहीं बनाया जा सकता। कार्टून विवाद का
यह भी एक सबक है।