बुधनी एक संताल युवती थी, जिसने छह दिसंबर 1959 को डीवीसी योजना के तहत बन रहे मैथन डैम को प्रधानमंत्री नेहरु की विराट उपस्थिति में बटन दबा कर राष्ट्र के नाम समर्पित किया था। उस समय उसकी उम्र महज 15 साल की थी और वह मैथन डैम में दिहाड़ी मजदूर का काम करती थी। नेहरू ने उस 15 वर्षीय आदिवासी युवती से मैथन डैम का उद्घाटन करा के देश के आदिवासी एवं देशज जनों को यह संदेश देने की कोशिश की थी कि वे ‘राष्ट्र निर्माण’ (बलिदान) के लिए तैयार रहें। इसका सरकारी पाठ यह था कि ऐसी ही विकासीय परियोजनाओं से आदिवासी समाज और देश में खुशहाली आएगी, विकास होगा। परंतु उस घटना के बाद बुधनी का जीवन एक ऐसी त्रासदी में बदल गया, जो आज समूचे झारखंड की त्रासदी है। दिसंबर 1959 के उस समारोह में बुधनी ने नेहरु को माला पहनायी थी। उसका यह माला पहनाना उसके लिए एक ऐसा अभिशाप बना, जिसके कारण वह आजीवन अपने समाज और गांव ‘कारबोना’ से बहिष्कृत रही। माना गया कि उसने माला पहनाकर एक गैर आदिवासी नेहरु को अपने पति के रूप में वरण कर लिया है। संताल समाज ने उसके इस कृत्य के लिए सामाजिक निर्वासन का दंड दिया और उसे अपना घर-परिवार गांव-समाज तत्काल छोड़ देना पड़ा। परिवार-समाज से बहिष्कृत होने के बाद कुछ वर्षों के लिए पंचेत के एक बंगाली सज्जन सुधीर दत्ता ने उसे पनाह दी लेकिन पनाह की कीमत ‘रखैल’ के रूप में वसूली। जब उसने एक बच्ची को जन्म दिया तब दत्ता साहब ने भी उसे फिर से सड़क पर ला पटका।
बुधनी दिहाड़ी मजूर यानी कि ‘रेजा’ थी। नेहरु युगीन औद्योगीकरण की शुरुआत के ऐतिहासिक कार्य विशेष के एवज में उसे डीवीसी में कुछ वर्षों के लिए नौकरी दी गयी थी। लेकिन बाद में उसे वहां से निकाल दिया गया। वह कई वर्षों तक बेसहारा भटकती रही। फिर वह 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री और नेहरु के नवासे राजीव गांधी से मिलने दिल्ली गयी। इस आस में कि उसके तथाकथित पति कानवासा उसकी पीड़ा को समझेगा और उसे सहारा देगा। उस विकास का आसरा देगा, जिसकी नींव उसके हाथों नेहरू ने रखवायी थी। राजीव गांधी उससे मिले या नहीं, यह आधिकारिक जानकारी तो नहीं है पर उसके दिल्ली प्रवास के बाद फिर से उसे डीवीसी में काम पर रख लिया गया। स्थायी नहीं, अस्थायी तौर पर क्योंकि कुछ वर्षों बाद वह फिर से वहां से निकाल दी गयी। आज बुधनी कहां है, यह ‘डेक्कन क्रोनिकल’ (30 मार्च 2001) और ‘द हिंदू’ (2 जून 2012) के उन पत्रकारों को भी नहीं मालूम, जिन्होंने बुधनी पर महत्वपूर्ण रपट लिखी है। 2001 में जब ‘डेक्कन क्रोनिकल’ का पत्रकार बुधनी से पंचेत (पुरूलिया) में मिला था तब उसने ‘अपने गांव काराबोना लौटने की तीव्र इच्छा जतायी थी।’ पता नहीं बुधनी अपने गांव लौट सकी या नहीं। द हिंदू के जर्नलिस्ट ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि बहुत कोशिशों के बाद भी वह बुधनी को ढूंढने में नाकाम रही और यह भी नहीं जान पायी कि बुधनी मृत है अथवा जीवित।
बुधनी मांझी का जिक्र करते हुए उपन्यासकार विनोद कुमार कहते हैं, ‘बुधनी का जीवन नाटकीय घटनाओं से भरा रहा। लेकिन इस नाटकीयता से अलग भी झारखंड में लाखों बुधनियों का हश्र यही हुआ है। बुधनी का रूप, बुधनी का सौष्ठव, उसके व्यक्तित्व की गरिमा और बटन दबाते उसके चेहरे की एकाग्रता पर गौर कीजिये। बुधनियों के चेहरे से यह सब कुछ औद्योगीकरण ने छीन लिया है और उसकी जगह ले ली है विस्थापन की पीड़ा ने। लाखों बुधनिया अपने गांव लौटना चाहती हैं, लेकिन गांव है कहां? उसे तो शहर लीलता जा रहा है और बुधनियां दरबदर भटकने के लिए अभिशप्त हैं।’ झारखंडी इतिहासकार और आंदोलनकारी अगुआ डॉ वीपी केशरी की मानें तो ‘झारखंड आज भी आंतरिक उपनिवेश बना हुआ है।’ झारखंडी भाषा साहित्य संस्कृति अखड़ा की महासचिव वंदना टेटे के अनुसार ‘समूचा झारखंड बुधनी है।’
व्यक्तिगत कहानियों से इतिहास बनता है। बुधनी की कहानी ‘हूल’ की पृष्ठभूमि है। इतिहास का भी और वर्तमान का भी। अगर नवगठित झारखंड में बुधनी है, इसका मतलब हूल भी है। वे सवाल भी हैं, जो हूल के समय के थे। झारखंडी जनसंघर्षों की भाषा समझनी है और झारखंड के सवालों को समता, न्याय के आधार पर हल करना है, तो बुधनी के त्रासदपूर्ण जीवन के सामने ईमानदारी से खड़ा होना होगा। अगर झारखंडी लोग भूख, भय, भ्रष्टाचार, लूट, विस्थापन, बेरोजगारी और राजकीय दमन से जूझ रहे हैं, नागरिक सुविधाओं से बेदखल हैं तो 1855 और 2012 में महज तारीख का फर्क है, स्थितियों का नहीं। मृणाल सेन जैसे संवेदनशील फिल्मकार ने 1976 में ‘मृगया’ (रॉयल हंट) में इतिहास और वर्तमान के इस फासले के यथार्थ को चित्रित कर भारतीय समाज को स्तब्ध कर डाला था। कुछ उसी तरह से जैसे अमेरिकन ब्लैक लेखक एलेक्स हैली ने ‘रूट्स’ लिखकर अमेरिका और समूची सभ्य दुनिया को घुटनों के बल ला खड़ा किया था।