मनमोहनॉमिक्स के करीब 20 साल पूरे हो
रहे हैं, अतः उस कोरस को याद करना बहुत वाजिब होगा, जिसका राग मुखर वर्ग
पहले तो खूब गर्व से और फिर खुद को दिलासा देने के लिए अलापता रहा हैः ‘आप
चाहे जो भी कहें, हमारे पास डॉ मनमोहन सिंह के रूप में सबसे ईमानदार आदमी
हैं. उनके खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोला जा सकता’. लेकिन ऐसा अब कम सुनने को
मिलता है – ऐसे उद्गार अब ईमानदारी का झंडा बुलंद करनेवाले दूसरे चालबाजों
की स्तुति में ज्यादा व्यक्त होते हैं. लेकिन बड़ी तादाद में लोग अब रोज यह
कहते फिर रहे हैं : ‘ईमानदार प्रधानमंत्री निर्विवाद रूप से हमारे इतिहास
में अब तक के सबसे भ्रष्ट सरकार की मुखियागिरी कर रहे हैं.’ और निश्चय ही
इस कथन में कई सबक छुपे हुए हैं.
रहे हैं, अतः उस कोरस को याद करना बहुत वाजिब होगा, जिसका राग मुखर वर्ग
पहले तो खूब गर्व से और फिर खुद को दिलासा देने के लिए अलापता रहा हैः ‘आप
चाहे जो भी कहें, हमारे पास डॉ मनमोहन सिंह के रूप में सबसे ईमानदार आदमी
हैं. उनके खिलाफ एक शब्द भी नहीं बोला जा सकता’. लेकिन ऐसा अब कम सुनने को
मिलता है – ऐसे उद्गार अब ईमानदारी का झंडा बुलंद करनेवाले दूसरे चालबाजों
की स्तुति में ज्यादा व्यक्त होते हैं. लेकिन बड़ी तादाद में लोग अब रोज यह
कहते फिर रहे हैं : ‘ईमानदार प्रधानमंत्री निर्विवाद रूप से हमारे इतिहास
में अब तक के सबसे भ्रष्ट सरकार की मुखियागिरी कर रहे हैं.’ और निश्चय ही
इस कथन में कई सबक छुपे हुए हैं.
डॉ सिंह द्वारा संपादकों के साथ
साप्ताहिक मुलाकात का फैसला हमें बताता है कि उन्होंने इन घोटालों से क्या
सबक सीखा है. अब उन्हें यह लगने लगा है कि सरकार के लिए भ्रष्टाचार जन
संपर्क से जुड़ा एक मामला है. हालांकि कुछ ऐसा ही मीडिया के साथ भी है, जो
2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में राजनेताओं पर लगातार भौंकता रहा लेकिन इस घोटाले
के आरोपी प्रमुख कॉरपोरेट्स को बरी कर दिया. डॉ सिंह अक्सर मीडिया को
‘अभियोक्ता, अभियोजक और न्यायाधीश’ तीनों ही रूपों में एक साथ देखते हैं.
(हो सकता है वो इस मामले में सही हों). इसके बावजूद वो प्रमुख संपादकों के
साथ बैठकी लगाना चाहते हैं. तो क्या यह जन संपर्क से जुड़ा मामला भर है? या
वह यह मानते हैं कि भारत के संपादकों के पास ही ऐसा कोई नुस्खा है, जो सभी
क्षेत्रों में व्याप्त भ्रष्टाचार (मीडिया के भ्रष्टाचार को छोड़कर) समाप्त
कर देगा? मुझे पहले की उम्मीद है.
साप्ताहिक मुलाकात का फैसला हमें बताता है कि उन्होंने इन घोटालों से क्या
सबक सीखा है. अब उन्हें यह लगने लगा है कि सरकार के लिए भ्रष्टाचार जन
संपर्क से जुड़ा एक मामला है. हालांकि कुछ ऐसा ही मीडिया के साथ भी है, जो
2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में राजनेताओं पर लगातार भौंकता रहा लेकिन इस घोटाले
के आरोपी प्रमुख कॉरपोरेट्स को बरी कर दिया. डॉ सिंह अक्सर मीडिया को
‘अभियोक्ता, अभियोजक और न्यायाधीश’ तीनों ही रूपों में एक साथ देखते हैं.
(हो सकता है वो इस मामले में सही हों). इसके बावजूद वो प्रमुख संपादकों के
साथ बैठकी लगाना चाहते हैं. तो क्या यह जन संपर्क से जुड़ा मामला भर है? या
वह यह मानते हैं कि भारत के संपादकों के पास ही ऐसा कोई नुस्खा है, जो सभी
क्षेत्रों में व्याप्त भ्रष्टाचार (मीडिया के भ्रष्टाचार को छोड़कर) समाप्त
कर देगा? मुझे पहले की उम्मीद है.
उनकी सरकार के घोटालों का हिसाब-किताब
रखना जनगणना करने की कवायद जैसा है. एक बड़ी और जटिल गणना की तरह. कुछ ऐसे
घोटाले हुए जिन्हें दफन कर दिया गया और लेकिन कुछ अभी भी ठंडे नही हुए हैं.
आने वाले दिनों में और घोटालों का खुलासा होने वाला है. कुछ का पता चल
चुका है, बस भंडाफोड़ बाकी है. साथ ही कई ऐसे हैं जिनपर मीडिया जान-बूझकर
चुप्पी बरत रहा है. बहुतेरे के बारे में तथ्य जुटाये जा रहे हैं. हमारा
वर्तमान केंद्रीय कैबिनेट संभवतः अब तक का सबसे धनवान मंत्रिमंडल है, जिनके
सदस्यों के पास 500 करोड़ रुपयों से अधिक की संपत्ति है. पहले के सभी
पूर्ववर्ती मंत्रिमंडल सदस्यों की कुल संपत्ति को जोड़ दें तो भी यह ज्यादा
ही होगा.
रखना जनगणना करने की कवायद जैसा है. एक बड़ी और जटिल गणना की तरह. कुछ ऐसे
घोटाले हुए जिन्हें दफन कर दिया गया और लेकिन कुछ अभी भी ठंडे नही हुए हैं.
आने वाले दिनों में और घोटालों का खुलासा होने वाला है. कुछ का पता चल
चुका है, बस भंडाफोड़ बाकी है. साथ ही कई ऐसे हैं जिनपर मीडिया जान-बूझकर
चुप्पी बरत रहा है. बहुतेरे के बारे में तथ्य जुटाये जा रहे हैं. हमारा
वर्तमान केंद्रीय कैबिनेट संभवतः अब तक का सबसे धनवान मंत्रिमंडल है, जिनके
सदस्यों के पास 500 करोड़ रुपयों से अधिक की संपत्ति है. पहले के सभी
पूर्ववर्ती मंत्रिमंडल सदस्यों की कुल संपत्ति को जोड़ दें तो भी यह ज्यादा
ही होगा.
जाहिर है भ्रष्टाचार के कई कारण हैं और
हर किसी के पास इससे जुड़ी अपनी-अपनी पसंदीदा कहानी है. लेकिन तीन ऐसे मूल
कारण हैं जिन्हें नजरअंदाज करने से कोई भी विश्लेषण निरर्थक रहेगा. पहला
कारण है : भारतीय समाज की संरचनात्मक असमानताएं, जिसमें संपत्ति और सत्ता
का बड़े पैमाने पर संकेंद्रण, वर्ग और जाति, लिंग और इनसे जुड़े दूसरे भेदभाव
शामिल हैं.
हर किसी के पास इससे जुड़ी अपनी-अपनी पसंदीदा कहानी है. लेकिन तीन ऐसे मूल
कारण हैं जिन्हें नजरअंदाज करने से कोई भी विश्लेषण निरर्थक रहेगा. पहला
कारण है : भारतीय समाज की संरचनात्मक असमानताएं, जिसमें संपत्ति और सत्ता
का बड़े पैमाने पर संकेंद्रण, वर्ग और जाति, लिंग और इनसे जुड़े दूसरे भेदभाव
शामिल हैं.
दूसरा पहलू आर्थिक नीतियों का पूरा ढांचा
हैजिसने इन असमानताओं की खाई पैदा की एवं उसे और ज्यादा गहरा किया है,
साथ ही इन्हें एक किस्म की वैधता भी प्रदान की है. पिछले 20 वर्षों में ऐसा
तेजी से घटित हुआ है. उदाहरण के तौर पर हम देख सकते हैं कि संविधान का
मजाक उड़ाते हुए कॉरपोरेटों को नागरिकों से अधिक महत्वपूर्ण बना दिया गया
है.
हैजिसने इन असमानताओं की खाई पैदा की एवं उसे और ज्यादा गहरा किया है,
साथ ही इन्हें एक किस्म की वैधता भी प्रदान की है. पिछले 20 वर्षों में ऐसा
तेजी से घटित हुआ है. उदाहरण के तौर पर हम देख सकते हैं कि संविधान का
मजाक उड़ाते हुए कॉरपोरेटों को नागरिकों से अधिक महत्वपूर्ण बना दिया गया
है.
और तीसरा पहलू है न्यूनतम जवाबदेही के
साथ हरेक तरह का अपराध कर बचने और स्वेच्छाचारिता की संस्कृति का पैर
जमाना. ऐसा होना रसूखवालों को अपराध कर बच निकलने का कोई-न-कोई रास्ता
निकाल ही देता है. हद तो यह है कि एक राज्य का कोई जज सिर्फ इस कारण
कार्यदिवसों पर सभी तरह की विरोध रैलियों पर रोक लगा देता है क्योंकि उसकी
कार कोर्ट जाते वक्त एक रैली में फंस गयी थी. ऐसे निजाम में भांति-भांति के
बाबा उस समय तक हरेक कर कानून को तोड़ सकते हैं जब तक कि वे सत्तारूढ़ शासन
को चुनौती नहीं देते.
साथ हरेक तरह का अपराध कर बचने और स्वेच्छाचारिता की संस्कृति का पैर
जमाना. ऐसा होना रसूखवालों को अपराध कर बच निकलने का कोई-न-कोई रास्ता
निकाल ही देता है. हद तो यह है कि एक राज्य का कोई जज सिर्फ इस कारण
कार्यदिवसों पर सभी तरह की विरोध रैलियों पर रोक लगा देता है क्योंकि उसकी
कार कोर्ट जाते वक्त एक रैली में फंस गयी थी. ऐसे निजाम में भांति-भांति के
बाबा उस समय तक हरेक कर कानून को तोड़ सकते हैं जब तक कि वे सत्तारूढ़ शासन
को चुनौती नहीं देते.
भ्रष्टाचार की गंगोत्री का मुहाना बंद
किये बगैर, उससे निपटने की कोशिशें कुछ वैसी ही होंगी कि हम नल खुला छोड़
दें, उससे पानी भी बहता रहे और फर्श को सूखा रखने की कोशिशों में भी लगे
रहें. ये स्रोत बहुत पुराने हैं. आज इन स्रोतों का दायरा, आकार और नुकसान
नई-नई हदें तय कर रहे हैं.
किये बगैर, उससे निपटने की कोशिशें कुछ वैसी ही होंगी कि हम नल खुला छोड़
दें, उससे पानी भी बहता रहे और फर्श को सूखा रखने की कोशिशों में भी लगे
रहें. ये स्रोत बहुत पुराने हैं. आज इन स्रोतों का दायरा, आकार और नुकसान
नई-नई हदें तय कर रहे हैं.
बीते 20 वर्ष धन के अभूतपूर्व संकेंद्रण
के साक्षी रहे हैं, इस धन को अक्सर गलत तरीके से आर्थिक नीति की आड़ में
इकट्ठा किया गया है. राज्य की भूमिका कॉरपोरेट समृद्धि लाने वाले एक उपकरण
मात्र की रह गयी है. वह निजी निवेश के लिए उचित माहौल उपलब्ध कराने भर के
लिए रह गया है. प्रत्येक बजट कॉरपोरेट जगत के लिए (और आंशिक रूप से उसके
द्वारा भी) तैयार किया जाता है. पिछले छह बजट में सिर्फ प्रत्यक्ष कॉरपोरेट
आय कर, सीमा और उत्पाद शुल्क में छूट के रूप में कॉरपोरेट जगत को 21 लाख
करोड़ रुपयों का उपहार दिया गया है. और इसी अवधि में खाद्य सब्सिडी और कृषि
क्षेत्र को कटौती का सामना करना पड़ा है.
के साक्षी रहे हैं, इस धन को अक्सर गलत तरीके से आर्थिक नीति की आड़ में
इकट्ठा किया गया है. राज्य की भूमिका कॉरपोरेट समृद्धि लाने वाले एक उपकरण
मात्र की रह गयी है. वह निजी निवेश के लिए उचित माहौल उपलब्ध कराने भर के
लिए रह गया है. प्रत्येक बजट कॉरपोरेट जगत के लिए (और आंशिक रूप से उसके
द्वारा भी) तैयार किया जाता है. पिछले छह बजट में सिर्फ प्रत्यक्ष कॉरपोरेट
आय कर, सीमा और उत्पाद शुल्क में छूट के रूप में कॉरपोरेट जगत को 21 लाख
करोड़ रुपयों का उपहार दिया गया है. और इसी अवधि में खाद्य सब्सिडी और कृषि
क्षेत्र को कटौती का सामना करना पड़ा है.
नव-उदारवादी
आर्थिक ढांचे के अंतर्गत राज्य आम लोगों की कीमत पर कॉरपोरेट क्षेत्र के
लिए खाद-पानी मुहैया करता है. यही कारण है कि हम उस दौर में जी रहे हैं
जहां सब कुछ का निजीकरण किया जा रहा है. कॉरपोरेट मुनाफे को और बढ़ाने के
लिए जमीन, पानी, स्पेक्ट्रम जैसे सभी दुर्लभ राष्ट्रीय संसाधनों को निजी
हाथों में सौंप देना अब राज्य का मिशन बन गया है. यह प्रक्रिया और कुछ नहीं
निजी क्षेत्र को उन्हीं को तरजीह देने वाले शर्तों के आधार पर राष्ट्र के
संसाधनों को सौंपना है जो कि हमारे समय में भ्रष्टाचार का मुख्य स्रोत है.
घोटाले तो लक्षण मात्र हैं, रोग यह है कि भारतीय राज्य, नागरिकों की जगह
कॉरपोरेट निगमों के हित साधता है.
आर्थिक ढांचे के अंतर्गत राज्य आम लोगों की कीमत पर कॉरपोरेट क्षेत्र के
लिए खाद-पानी मुहैया करता है. यही कारण है कि हम उस दौर में जी रहे हैं
जहां सब कुछ का निजीकरण किया जा रहा है. कॉरपोरेट मुनाफे को और बढ़ाने के
लिए जमीन, पानी, स्पेक्ट्रम जैसे सभी दुर्लभ राष्ट्रीय संसाधनों को निजी
हाथों में सौंप देना अब राज्य का मिशन बन गया है. यह प्रक्रिया और कुछ नहीं
निजी क्षेत्र को उन्हीं को तरजीह देने वाले शर्तों के आधार पर राष्ट्र के
संसाधनों को सौंपना है जो कि हमारे समय में भ्रष्टाचार का मुख्य स्रोत है.
घोटाले तो लक्षण मात्र हैं, रोग यह है कि भारतीय राज्य, नागरिकों की जगह
कॉरपोरेट निगमों के हित साधता है.
चुनाव खर्च के बारे में चिंता करनेवालों
को दूसरी चीजों पर भी ध्यान देना चाहिए. आज एक ऐसा वर्ग पैदा ले चुका है
जिसकेपासखर्च करने के लिए बहुत अधिक पैसा है, काली कमाई है. वो इतना पैसा
उड़ाते हैं, जिसकी कल्पना तक 1947 में संभव नहीं थी. कई राज्यों में, आप
करोड़पति हुए बिना चुनाव लड़ने के बारे में सोच भी नहीं सकते.
को दूसरी चीजों पर भी ध्यान देना चाहिए. आज एक ऐसा वर्ग पैदा ले चुका है
जिसकेपासखर्च करने के लिए बहुत अधिक पैसा है, काली कमाई है. वो इतना पैसा
उड़ाते हैं, जिसकी कल्पना तक 1947 में संभव नहीं थी. कई राज्यों में, आप
करोड़पति हुए बिना चुनाव लड़ने के बारे में सोच भी नहीं सकते.
इस साल मई में चार राज्यों, एक केंद्र
शासित प्रदेश (और कडप्पा उपचुनाव) में निर्वाचित 825 विधायकों का उदाहरण
लें. उनकी घोषित संपत्तियां देखें. हमें इन चुनावों से संबंधित आंकड़े
उपलब्ध कराने के लिए नेशनल इलेक्शन वाच (एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म
-एडीआर) का शुक्रगुजार होना चाहिए. इन आंकड़ों का विश्लेषण करना एक मज़ेदार
काम है.
शासित प्रदेश (और कडप्पा उपचुनाव) में निर्वाचित 825 विधायकों का उदाहरण
लें. उनकी घोषित संपत्तियां देखें. हमें इन चुनावों से संबंधित आंकड़े
उपलब्ध कराने के लिए नेशनल इलेक्शन वाच (एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म
-एडीआर) का शुक्रगुजार होना चाहिए. इन आंकड़ों का विश्लेषण करना एक मज़ेदार
काम है.
एडीआर के आंकड़े बताते हैं कि इन 825
विधायकों की घोषित संपत्ति का कुल मूल्य 2,128 करोड़ रुपयों के आसपास है.
इनमें से 231 दूसरी बार विधायक बने हैं. 2006 से 2011 के बीच इन्होंने अपनी
संपत्ति में 169 प्रतिशत की औसत वृद्धि की है. इसका मतलब यह है कि विधायक
बनने के पहले इन्होंने जितनी संपत्ति अर्जित की थी, उससे भी अधिक ‘वैध’
संपत्ति इन्होंने बतौर विधायक अपने पहले पांच साल के दौरान इकट्ठी कर ली.
विधायकों की घोषित संपत्ति का कुल मूल्य 2,128 करोड़ रुपयों के आसपास है.
इनमें से 231 दूसरी बार विधायक बने हैं. 2006 से 2011 के बीच इन्होंने अपनी
संपत्ति में 169 प्रतिशत की औसत वृद्धि की है. इसका मतलब यह है कि विधायक
बनने के पहले इन्होंने जितनी संपत्ति अर्जित की थी, उससे भी अधिक ‘वैध’
संपत्ति इन्होंने बतौर विधायक अपने पहले पांच साल के दौरान इकट्ठी कर ली.
अब 825 भूमिहीन श्रमिक परिवारों के बारे
में सोचें. हम उनकी ‘संपत्ति’ की तुलना विधायकों की संपत्ति से नहीं कर
सकते क्योंकि इन भूमिहीन श्रमिक परिवारों के पास कुछ नहीं है और वो लगातार
कर्ज में डूब रहे हैं. इसका हिसाब लगाना बहुत ही दिलचस्प होगा कि मनरेगा
जैसी योजना के सहारे कमाते हुए उन्हें 825 विधायकों के बराबर संपत्ति बनाने
में कितना वक्त लगेगा?
में सोचें. हम उनकी ‘संपत्ति’ की तुलना विधायकों की संपत्ति से नहीं कर
सकते क्योंकि इन भूमिहीन श्रमिक परिवारों के पास कुछ नहीं है और वो लगातार
कर्ज में डूब रहे हैं. इसका हिसाब लगाना बहुत ही दिलचस्प होगा कि मनरेगा
जैसी योजना के सहारे कमाते हुए उन्हें 825 विधायकों के बराबर संपत्ति बनाने
में कितना वक्त लगेगा?
मनरेगा में मिलने वाले 100 दिन के काम के
जरिये वो राष्ट्रीय औसत पर 12 हजार 6 सौ रुपये के आस-पास कमा सकते हैं. इस
तरह 825 भूमिहीन परिवारों को 2128 करोड़ रुपये अर्जित करने में 2,000 साल
से अधिक लगेंगे. और साथ ही इसके लिए उन्हें भोजन जैसी तुच्छ आदतें छोड़नी
पड़ेंगी. अगर श्रमिक परिवारों की संख्या 10 हजार कर दी जाये तो इस जैकपॉट को
पाने में 170 साल के करीब का समय लगेगा. यहां तक कि दस लाख घरों को भी ऐसा
करने में एक साल से अधिक का ही समय लग जाएगा. (याद रखें कि उन 231
विधायकों ने 60 महीने में अपनी संपत्ति दोगुनी से भी अधिक कर ली.)
जरिये वो राष्ट्रीय औसत पर 12 हजार 6 सौ रुपये के आस-पास कमा सकते हैं. इस
तरह 825 भूमिहीन परिवारों को 2128 करोड़ रुपये अर्जित करने में 2,000 साल
से अधिक लगेंगे. और साथ ही इसके लिए उन्हें भोजन जैसी तुच्छ आदतें छोड़नी
पड़ेंगी. अगर श्रमिक परिवारों की संख्या 10 हजार कर दी जाये तो इस जैकपॉट को
पाने में 170 साल के करीब का समय लगेगा. यहां तक कि दस लाख घरों को भी ऐसा
करने में एक साल से अधिक का ही समय लग जाएगा. (याद रखें कि उन 231
विधायकों ने 60 महीने में अपनी संपत्ति दोगुनी से भी अधिक कर ली.)
इन गहरी असमानताओं के बीच ऐसी कोई
संभावना ही नहीं दिखाई देती कि मजदूर परिवारों के पास भी कभी किसी भी तरह
की संपत्ति होगी, 2,128 करोड़ रुपयों का तो जिक्र करना ही बेकार है. वे कर्ज
के बोझ तले दबे रहेंगे. और वे इन कर्जों के एवज में जो सूद भेरेंगे वो
शायद उन विधायकों की तिजोरी में भी जमा होगा जो साहूकार भी हैं. इसके
बावजूद उन विधायकों की संपत्ति कॉरपोरेट जगत की उस विशाल संपत्ति की तुलना
में मामूली है जो राज्य के सहयोग से जमा की गयी है. एक ओर मनरेगा की कमाई
के सहारे दस लाख मजदूर परिवारों को 3.5 लाख करोड़ जमा करने में 275 साल के
आसपास लगेंगे और दूसरी ओर पिछले छह साल से लगातार सरकारहर साल इतनी ही
राशि कॉरपोरेट सेक्टर को बतौर छूट बांट रही है.
संभावना ही नहीं दिखाई देती कि मजदूर परिवारों के पास भी कभी किसी भी तरह
की संपत्ति होगी, 2,128 करोड़ रुपयों का तो जिक्र करना ही बेकार है. वे कर्ज
के बोझ तले दबे रहेंगे. और वे इन कर्जों के एवज में जो सूद भेरेंगे वो
शायद उन विधायकों की तिजोरी में भी जमा होगा जो साहूकार भी हैं. इसके
बावजूद उन विधायकों की संपत्ति कॉरपोरेट जगत की उस विशाल संपत्ति की तुलना
में मामूली है जो राज्य के सहयोग से जमा की गयी है. एक ओर मनरेगा की कमाई
के सहारे दस लाख मजदूर परिवारों को 3.5 लाख करोड़ जमा करने में 275 साल के
आसपास लगेंगे और दूसरी ओर पिछले छह साल से लगातार सरकारहर साल इतनी ही
राशि कॉरपोरेट सेक्टर को बतौर छूट बांट रही है.
और फिर यहां बस अपराध करने की छूट है,
दण्ड का कोई प्रावधान नहीं. डॉ सिंह अपने मंत्रिमंडल में उलटफेर कर सकते
हैं, लेकिन क्या इससे बहुत कुछ बदल जाएगा? एक कृषि मंत्री हैं, जो क्रिकेट
पर अधिक समय बिताते हैं और राष्ट्रीय जुनून को फूहड़ता के भद्दे, कारोबारी
दलदल में बदलने में मददगार रहे हैं. कपड़ा मंत्री इस शासन की लड़खड़ाती दूसरी
पारी में मैदान छोड़ने को मजबूर होने वाले सबसे हालिया ‘बल्लेबाज’ है. एक
दूसरे भारी उद्योग मंत्री हैं जो साहूकारों को मदद करने के लिए सुप्रीम
कोर्ट द्वारा शर्मिंदा किये जाने के तुरंत बाद ग्रामीण विकास मंत्री के रूप
में पदोन्नत कर दिये गये. अगर उन्हें कैबिनेट से बाहर का रास्ता दिखा भी
दिया जाता है तो उनका विकल्प युवा होने के बावजूद हालात बदल नहीं पायेगा.
ऐसे में क्या यह सिर्फ सुस्त प्रशासन या लचर नियमों से जुड़ा मामला भर है?
नहीं, यह भ्रष्ट नीतियों से जुड़ा मामला है.
दण्ड का कोई प्रावधान नहीं. डॉ सिंह अपने मंत्रिमंडल में उलटफेर कर सकते
हैं, लेकिन क्या इससे बहुत कुछ बदल जाएगा? एक कृषि मंत्री हैं, जो क्रिकेट
पर अधिक समय बिताते हैं और राष्ट्रीय जुनून को फूहड़ता के भद्दे, कारोबारी
दलदल में बदलने में मददगार रहे हैं. कपड़ा मंत्री इस शासन की लड़खड़ाती दूसरी
पारी में मैदान छोड़ने को मजबूर होने वाले सबसे हालिया ‘बल्लेबाज’ है. एक
दूसरे भारी उद्योग मंत्री हैं जो साहूकारों को मदद करने के लिए सुप्रीम
कोर्ट द्वारा शर्मिंदा किये जाने के तुरंत बाद ग्रामीण विकास मंत्री के रूप
में पदोन्नत कर दिये गये. अगर उन्हें कैबिनेट से बाहर का रास्ता दिखा भी
दिया जाता है तो उनका विकल्प युवा होने के बावजूद हालात बदल नहीं पायेगा.
ऐसे में क्या यह सिर्फ सुस्त प्रशासन या लचर नियमों से जुड़ा मामला भर है?
नहीं, यह भ्रष्ट नीतियों से जुड़ा मामला है.
क्या आप आज के समय में भ्रष्टाचार से
लड़ना चाहते हैं? तो आप संरचनात्मक असमानता को ढाहने के लिए कदम बढ़ायें, जो
नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों से उपजा रोग और जवाबदेही के बिना
स्वेच्छाचारिता की संस्कृति है. क्या हमें एक लोकपाल की जरूरत है? हां.
क्या यह सरकार से भी शक्तिशाली हो सकती है? संवैधानिक ढांचे से ऊपर और
जवाबदेही के बिना? अगर हम ऐसा ही लोकपाल चाहते हैं तो हम मुसीबत मोल ले रहे
हैं. क्या यह असमानता, आर्थिक नीति और स्वेच्छाचारिता पर काबू पा सकता है?
नहीं, लोकपाल का वर्तमान स्वरूप ऐसा करने में सक्षम नहीं. यह समग्र रूप से
आम लोगों और उनके संस्थानों के लिए एक बड़ी लड़ाई है. जैसा कि एक पुरानी
कहावत है, आपके अधिकार उस प्रक्रिया जितने ही सुरक्षित होते हैं, जिसके
द्वारा आप अपने अधिकारों को सुरक्षित रखते हैं.
लड़ना चाहते हैं? तो आप संरचनात्मक असमानता को ढाहने के लिए कदम बढ़ायें, जो
नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों से उपजा रोग और जवाबदेही के बिना
स्वेच्छाचारिता की संस्कृति है. क्या हमें एक लोकपाल की जरूरत है? हां.
क्या यह सरकार से भी शक्तिशाली हो सकती है? संवैधानिक ढांचे से ऊपर और
जवाबदेही के बिना? अगर हम ऐसा ही लोकपाल चाहते हैं तो हम मुसीबत मोल ले रहे
हैं. क्या यह असमानता, आर्थिक नीति और स्वेच्छाचारिता पर काबू पा सकता है?
नहीं, लोकपाल का वर्तमान स्वरूप ऐसा करने में सक्षम नहीं. यह समग्र रूप से
आम लोगों और उनके संस्थानों के लिए एक बड़ी लड़ाई है. जैसा कि एक पुरानी
कहावत है, आपके अधिकार उस प्रक्रिया जितने ही सुरक्षित होते हैं, जिसके
द्वारा आप अपने अधिकारों को सुरक्षित रखते हैं.
इस समय देश भर में विस्थापन, जबरन भूमि
अधिग्रहण, संसाधनों की लूट के खिलाफ और वन व अन्य अधिकारों की बहाली के लिए
लड़ाई तेज हो रही है. ये ‘स्थानीय’ संघर्ष हो सकते हैं, लेकिन वे बड़े
पैमाने पर, यहां तक कि वैश्विक फलक पर भ्रष्टाचार को चुनौती देते हैं. वे
असमानता और भेदभाव से लड़ रहे हैं. वे खुली छूट, लालच और मुनाफाखोरी का
विरोध करते हैं. वे अपने शासकों को जवाबदेह बनाने की कोशिश करते हैं. इरोम
शर्मिला जैसे कुछ लोग काले कानूनों की वापसी के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
दूसरे कई केवल वन अधिकार कानून जैसे मौजूदा कानूनों को जमीन पर उतारने के
लिए सड़क पर उतर चुके हैं. लेकिन इनमें से कोई भी खुद को राष्ट्र से ऊपर
नहीं मानता. ये लोग यह घोषित नहीं करते कि वे कानून बनायेंगे जिसका दूसरों
को पालन करना ही होगा. न ही इस पर जोर देते हैं कि वे किसी के प्रति
जवाबदेह नहीं हैं. फिर भी, वे अपने और हमारे अधिकारों के लिए लड़ते हैं और
दमनकारी संरचनाओं को और अधिक जवाबदेह बनाने में मदद करते हैं.
अधिग्रहण, संसाधनों की लूट के खिलाफ और वन व अन्य अधिकारों की बहाली के लिए
लड़ाई तेज हो रही है. ये ‘स्थानीय’ संघर्ष हो सकते हैं, लेकिन वे बड़े
पैमाने पर, यहां तक कि वैश्विक फलक पर भ्रष्टाचार को चुनौती देते हैं. वे
असमानता और भेदभाव से लड़ रहे हैं. वे खुली छूट, लालच और मुनाफाखोरी का
विरोध करते हैं. वे अपने शासकों को जवाबदेह बनाने की कोशिश करते हैं. इरोम
शर्मिला जैसे कुछ लोग काले कानूनों की वापसी के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
दूसरे कई केवल वन अधिकार कानून जैसे मौजूदा कानूनों को जमीन पर उतारने के
लिए सड़क पर उतर चुके हैं. लेकिन इनमें से कोई भी खुद को राष्ट्र से ऊपर
नहीं मानता. ये लोग यह घोषित नहीं करते कि वे कानून बनायेंगे जिसका दूसरों
को पालन करना ही होगा. न ही इस पर जोर देते हैं कि वे किसी के प्रति
जवाबदेह नहीं हैं. फिर भी, वे अपने और हमारे अधिकारों के लिए लड़ते हैं और
दमनकारी संरचनाओं को और अधिक जवाबदेह बनाने में मदद करते हैं.
इस
मामलेमें अतीत को थोड़ा भुला दिया जा रहा है. मगर एक भ्रष्ट व कमजोर सरकार
और बेशक कांग्रेस पार्टी को सब कुछ अच्छी तरह से पता है. बमुश्किल 36 साल
पहले, एक व्यक्ति ने खुद को सभी संवैधानिक संस्थाओं से ऊपर रख लिया था-
बिलकुल बेलगाम. यह याद करना वाकई दुखद है कि कितने संगठनों, मध्यमवर्गीय
लोगों और यहां तक कि कुछ बुद्धिजीवियों ने उस व्यक्ति और उसके युग के पक्ष
में बढ़-चढ़ कर जयकार लगाया था. उस व्यक्ति का नाम था संजय गांधी और उस युग
को आपातकाल कहा जाता था.
मामलेमें अतीत को थोड़ा भुला दिया जा रहा है. मगर एक भ्रष्ट व कमजोर सरकार
और बेशक कांग्रेस पार्टी को सब कुछ अच्छी तरह से पता है. बमुश्किल 36 साल
पहले, एक व्यक्ति ने खुद को सभी संवैधानिक संस्थाओं से ऊपर रख लिया था-
बिलकुल बेलगाम. यह याद करना वाकई दुखद है कि कितने संगठनों, मध्यमवर्गीय
लोगों और यहां तक कि कुछ बुद्धिजीवियों ने उस व्यक्ति और उसके युग के पक्ष
में बढ़-चढ़ कर जयकार लगाया था. उस व्यक्ति का नाम था संजय गांधी और उस युग
को आपातकाल कहा जाता था.
बाकी सब इतिहास है.
दि हिंदू, 8 जुलाई, 2011 से साभार.