ज़रा सोचिये
कि उस स्थिति में क्या होगा, जब श्रम मन्त्री ही अपनी फ़ैक्ट्रियों में
श्रम कानूनों की धज्जियां उड़ाकर मनमाने तरीके से मज़दूरों के श्रम का शोषण
करते हों।
जी हाँ, यह चौंकाने वाली बात है फरवरी
2011 तक दिल्ली के श्रम मन्त्री रहे मंगतराम सिंघल की, जिनका कि दाल,
राजमा, छोले, चना, अरहर वगैरह तरह-तरह की दालों का बहुत बड़ा कारोबार है।
पूर्व श्रम मन्त्री महोदय की फ़ैक्ट्रियों में अपनी ही सरकार के बनाये
श्रम कानूनों को ठेंगे पर रखकर मज़दूरों को लूटा जाता है।
उत्तर-पश्चिम दिल्ली के समयपुर बादली
औद्योगिक क्षेत्र के प्लॉट नम्बर एम-12 व एम-16 में स्थित दोनो
फ़ैक्ट्रियाँ मंगतराम दाल मिल्स प्राइवेट लिमिटेड की हैं। हालाँकि यहाँ की
अधिकांश फ़ैक्ट्रियों की तरह इन पर भी किसी कम्पनी के नाम का साइनबोर्ड
नहीं लगा है। पहले ये दोनों फ़ैक्ट्रियाँ आज़ादपुर के रिहायशी इलाके में
चलती थीं। रिहायशी इलाके से कारख़ाने हटाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के
बाद भी काफ़ी समय तक ये धड़ल्ले से चलती रहीं क्योंकि उस समय मंगतराम जी
दिल्ली के माननीय उद्योग मन्त्री थे। आख़िरकार मीडिया में शोर मचने के बाद
ये फ़ैक्ट्रियाँ बादली चली आयीं। इस बीच मन्त्री महोदय का विभाग भी बदल
गया और वे उद्योग मन्त्री से श्रम मन्त्री हो गये। लेकिन वास्तव में वे
एक मुनाफाख़ोर पूँजीपति हैं जो अपने मज़दूरों की श्रमशक्ति को निचोड़ने के
हर हथकण्डे अपनाते हैं।
फ़ैक्ट्री में आधुनिक मशीनों से दालों की
पैकिंग आदि होती है, लेकिन यहाँ पर लगभग सभी अकुशल मज़दूर (हेल्पर) ही
हैं। फ़ैक्ट्री में लगातार बाहर से ट्रकों से दालों के बोरे आते हैं
जिन्हें अनलोड करने के बाद अलग-अलग दालों को बीनकर कंकड़-पत्थर साफ़ किया
जाता है। फिर दाल को पैकिंग मशीन में डालकर आधा किलो, 1 किलो आदि के पैकेट
बनाये जाते हैं। फिर इन पैकेटों को गत्तों के डिब्बों में सीलबन्द कर गाड़ी
में लोड किया जाता है। सुबह से रात तक दोनों फ़ैक्ट्रियों में लगातार यह
काम चलता रहता है।
दिल्ली सरकार द्वारा घोषित अकुशल मज़दूर
की न्यूनतम मज़दूरी 7020 रुपये महीना है। मगर पूर्व श्रम मन्त्री की इन
दोनों फ़ैक्ट्रियों में अकुशल मज़दूर (हेल्पर) की तनख्वाह 8 घण्टे रोज़ के
हिसाब से 3800 रुपये महीना है। ओवरटाइम के नियम को धता बताकर फ़ैक्ट्री
में हर मज़दूर को यह कहकर भर्ती किया जाता है कि रोज़ 11 घण्टे नियमित काम
करना होगा। ओवरटाइम का भुगतान सिंगल रेट से जोड़कर दिया जाता है। मगर
मज़दूरों का कहना है कि अगर छुट्टी के समय गाड़ी आ जाती है तो उसको लोड
करने के बाद ही छुट्टी होती है, चाहे इसमें जितनी भी देर लगे। और गाड़ियाँ
अक्सर आती ही रहती हैं। क़ानून के अनुसार साप्ताहिक छुट्टी देना अनिवार्य
है। लेकिन यहाँ मज़दूरों को ललचाया जाता है कि महीने में एक भी छुट्टी नहीं
करने पर उन्हें 34 दिन के पैसे मिलेंगे। लेकिन अगर कोई मज़दूर 4 छुट्टियों
के बाद किसी भी कारण से पाँचवी छुट्टी कर ले तो उसकी महीने की चारों
छुट्टियों के पैसे काट लिये जाते हैं।
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दाल मिल होने के कारण कारख़ाने में चारों
तरफ फैली धूल से दमघोंटू माहौल हो जाता है और भयंकर गर्मी होती है। लेकिन न
तो पर्याप्त मात्रा में एग्ज़ास्ट पंखे चलाये जाते हैं और न ही मज़दूरों
को मास्क आदि दिये जाते हैं। मज़दूर ख़ुद ही मुँह पर कपड़ा लपेटकर काम करते
हैं। मज़दूरों को ई.एस.आई., पीएफ़ जॉब कार्ड आदि कुछ भी नहीं मिलता। कुछ
बोलो तो सुपरवाइज़र सीधे धमकाते हैं कि जानते नहीं हो, लेबर मिनिस्टर की
फ़ैक्ट्री है! वैसे तो सभी कारख़ाना मालिक श्रम विभाग को अपनी जेब में
लेकर घूमते हैं लेकिन जब मामला पूर्व श्रम मन्त्री की फ़ैक्ट्री का हो तो
उधर भला कौन देखने की जुर्रत करेगा?