रायपुर. आंबेडकर
अस्पताल में इलाज के लिए आने वाले मरीजों को महीने में औसतन 36 रूपए की ही
दवा मिल पा रही है। राज्य शासन ने मरीजों की दवा के लिए पिछले साल सात
करोड़ दिए थे। अस्पताल में एक लाख 60 हजार मरीजों का इलाज हुआ। सात करोड़
दवा इतने मरीजों का बांटने पर एक के हिस्से में औसतन 36 रूपए की दवा ही आई
है। यानी रोज केवल 1.20 रुपए की दवा ही मिल रही है।
अस्पताल के लिए दवा का बजट कम होने के कारण अस्पताल प्रशासन केवल सामान्य
सर्दी, जुकाम और बुखार की दवा पर ही बजट का सबसे बड़ा हिस्सा खर्च कर पा
रहा है। इसके अलावा कुछ एंटीबायोटिक दवाएं ही खरीदी जा रही हैं। बाकी गंभीर
बीमारी के मरीजों को दवा के नाम पर स्पष्ट कह दिया जाता है कि अस्पताल के
स्टोर में दवा नहीं है। दवाएं बाहर से खुद के खर्च पर खरीदनी होगी।
यानी मरीजों को सीधे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। पैसा न होने वाले
मरीज अपनी शिकायत लेकर अस्पताल प्रशासन के अधिकारियों के पास पहुंचते हैं
लेकिन अफसर बजट की मजबूरी दिखाकर अपना बचाव कर लेते हैं। मरीज दवा मिलने की
शिकायत भी नहीं कर पाते। दैनिक भास्कर की पड़ताल में पता चला है कि पिछले
साल अस्पताल की ओपीडी में एक लाख 31 हजार चार व आईपीडी में 29 हजार मरीजों
का इलाज किया गया। इनमें से 84 हजार मरीजों का इलाज मुफ्त हुआ। बाकी मरीजों
ने विभिन्न जांच व परीक्षण का शुल्क देकर अपना उपचार करवाया। जानकारों का
दावा है कि विभिन्न तरह का शुल्क अदा करने वालों को भी दवाएं नहीं मिली।
इस साल मिले साढ़े आठ करोड़ :
राज्य सरकार ने इस साल आंबेडकर अस्पताल को दवा के लिए साढ़े आठ करोड़ रुपए
का बजट दिया है। इनमें पांच करोड़ जनरल व साढ़े तीन करोड़ कैंसर विभाग के
मरीजों के लिए है। यह बजट भी जरूरत के हिसाब से कम है। पिछले वित्तीय वर्ष
जितने मरीज इस साल आए तो मरीजों को औसतन 44 रुपए की दवा मिलेगी। सालभर में
एक मरीज को 529 रुपए की दवा उपलब्ध हो पाएगी।
लोकल खरीदी में खेल
आंबेडकर अस्पताल में टेंडर प्रक्रिया से जेनेरिक दवा खरीदने का प्रावधान
है, लेकिन लोकल पर्चेस के समय खेल कर दिया जाता है। इमरजेंसी में लोकल
पर्चेस के जरिये दवा खरीदने की जरूरत पड़ने पर ब्रांडेड दवा ही खरीदी जाती
है। अस्पताल में हर साल औसतन 30-40 लाख रुपए की दवा लोकल पर्चेस के माध्यम
से खरीदी जाती है। लोकल पर्चेस से खरीदी जानी वाली महंगी पड़ती है। हरसाल
बजट सत्र के बीच में लोकल पर्चेस से दवा खरीदने की जरूरत पड़ती है इसके
बावजूद सालाना बजट के समय उन्हीं दवाओं को छोड़ दिया जाता है। वही दवा लोकल
पर्चेस के माध्यम से खरीदी जाती है।
अस्पताल में इलाज के लिए आने वाले मरीजों को महीने में औसतन 36 रूपए की ही
दवा मिल पा रही है। राज्य शासन ने मरीजों की दवा के लिए पिछले साल सात
करोड़ दिए थे। अस्पताल में एक लाख 60 हजार मरीजों का इलाज हुआ। सात करोड़
दवा इतने मरीजों का बांटने पर एक के हिस्से में औसतन 36 रूपए की दवा ही आई
है। यानी रोज केवल 1.20 रुपए की दवा ही मिल रही है।
अस्पताल के लिए दवा का बजट कम होने के कारण अस्पताल प्रशासन केवल सामान्य
सर्दी, जुकाम और बुखार की दवा पर ही बजट का सबसे बड़ा हिस्सा खर्च कर पा
रहा है। इसके अलावा कुछ एंटीबायोटिक दवाएं ही खरीदी जा रही हैं। बाकी गंभीर
बीमारी के मरीजों को दवा के नाम पर स्पष्ट कह दिया जाता है कि अस्पताल के
स्टोर में दवा नहीं है। दवाएं बाहर से खुद के खर्च पर खरीदनी होगी।
यानी मरीजों को सीधे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। पैसा न होने वाले
मरीज अपनी शिकायत लेकर अस्पताल प्रशासन के अधिकारियों के पास पहुंचते हैं
लेकिन अफसर बजट की मजबूरी दिखाकर अपना बचाव कर लेते हैं। मरीज दवा मिलने की
शिकायत भी नहीं कर पाते। दैनिक भास्कर की पड़ताल में पता चला है कि पिछले
साल अस्पताल की ओपीडी में एक लाख 31 हजार चार व आईपीडी में 29 हजार मरीजों
का इलाज किया गया। इनमें से 84 हजार मरीजों का इलाज मुफ्त हुआ। बाकी मरीजों
ने विभिन्न जांच व परीक्षण का शुल्क देकर अपना उपचार करवाया। जानकारों का
दावा है कि विभिन्न तरह का शुल्क अदा करने वालों को भी दवाएं नहीं मिली।
इस साल मिले साढ़े आठ करोड़ :
राज्य सरकार ने इस साल आंबेडकर अस्पताल को दवा के लिए साढ़े आठ करोड़ रुपए
का बजट दिया है। इनमें पांच करोड़ जनरल व साढ़े तीन करोड़ कैंसर विभाग के
मरीजों के लिए है। यह बजट भी जरूरत के हिसाब से कम है। पिछले वित्तीय वर्ष
जितने मरीज इस साल आए तो मरीजों को औसतन 44 रुपए की दवा मिलेगी। सालभर में
एक मरीज को 529 रुपए की दवा उपलब्ध हो पाएगी।
लोकल खरीदी में खेल
आंबेडकर अस्पताल में टेंडर प्रक्रिया से जेनेरिक दवा खरीदने का प्रावधान
है, लेकिन लोकल पर्चेस के समय खेल कर दिया जाता है। इमरजेंसी में लोकल
पर्चेस के जरिये दवा खरीदने की जरूरत पड़ने पर ब्रांडेड दवा ही खरीदी जाती
है। अस्पताल में हर साल औसतन 30-40 लाख रुपए की दवा लोकल पर्चेस के माध्यम
से खरीदी जाती है। लोकल पर्चेस से खरीदी जानी वाली महंगी पड़ती है। हरसाल
बजट सत्र के बीच में लोकल पर्चेस से दवा खरीदने की जरूरत पड़ती है इसके
बावजूद सालाना बजट के समय उन्हीं दवाओं को छोड़ दिया जाता है। वही दवा लोकल
पर्चेस के माध्यम से खरीदी जाती है।