आखिर गरीबी के मायने क्या?- हर्षमंदर

पिछले
साल के अंतिम दिनों की बात है। दो युवकों ने तय किया कि वे अपने जीवन का एक
माह उतने पैसों में बिताएंगे, जो एक औसत गरीब भारतीय की मासिक आय है।
उनमें से एक युवक हरियाणा के एक पुलिस अधिकारी का बेटा है। उसने
पेन्सिलवेनिया यूनिवर्सिटी में पढ़ाई की है और अमेरिका और सिंगापुर में
बैंकर के रूप में काम कर चुका है। दूसरा युवक अपने माता-पिता के साथ
किशोरावस्था में ही अमेरिका चला गया था और उसने एमआईटी में पढ़ाई की है।




दोनों ने अलग-अलग समय पर भारत लौटना तय किया था। बेंगलुरु में उन्होंने
यूआईडी प्रोजेक्ट में शिरकत की, संयोग से वे रूममेट बने और गहरे दोस्त बन
गए। दोनों इस उम्मीद के साथ भारत लौटे थे कि शायद वे देश के कुछ काम आ
पाएंगे, लेकिन वे भारतीयों के बारे में बहुत कम जानते थे। एक दिन उनमें से
एक ने कहा : क्यों न हम एक औसत भारतीय की औसत आय पर एक महीना बिताकर
भारतीयों के जीवन को समझने की कोशिश करें? दूसरे युवक को यह बात जंची।
दोनों इस विचार को अमली जामा पहनाने निकल पड़े। लेकिन यह अनुभव उन दोनों के
जीवन को बदलकर रख देने वाला था।




यहां पहला सवाल तो यही उठता है कि एक भारतीय की औसत आय क्या है? उन्होंने
हिसाब लगाकर निष्कर्ष निकाला : 4500 रुपए प्रतिमाह या 150 रुपए प्रतिदिन।
दुनियाभर में लोगों की आय का एक तिहाई हिस्सा किराये-भाड़े पर खर्च होता
है। इसके लिए उन्होंने 50 रुपए काटकर 100 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से एक माह
बिताना तय किया।




उन्हें लगा था कि इससे वे गरीब नहीं हो जाएंगे, लेकिन 75 प्रतिशत भारतीय इस
आंकड़े के नीचे अपना जीवन बिताते हैं। वे दोनों एक छोटे-से अपार्टमेंट में
रहने चले गए। उन्होंने पाया कि अब वे अपने समय का एक बड़ा हिस्सा यह सोचने
में बिता रहे थे कि वे दो वक्त के भोजन का प्रबंध कैसे करेंगे। बाहर खाना
खाने का तो सवाल ही नहीं उठता था। यहां तक कि ढाबों पर मिलने वाला खाना भी
उनकी औसत आय के अनुपात से महंगा था।




दूध और दही भी उनकी पहुंच से बाहर थे, इसलिए उन्हें इनका उपयोग भी किफायत
से ही करना था। घी या मक्खन जैसी सुविधाएं भी वे वहन नहीं कर सकते थे,
लिहाजा उन्हें रिफाइंड तेल का ही उपयोग करना था। दोनों के साथ यह बात अच्छी
थी कि उन्हें खाना बनाना आता था। उन्होंने पाया कि वे सोयाबीन की बड़ियों
का इस्तेमाल कर सकते हैं, क्योंकि वे सस्ती होने के साथ ही पौष्टिक भी थीं।
उन्होंने सोयाबीन की बड़ियों पर प्रयोग करते हुए अनेक व्यंजन बनाए।
बिस्किट भी उनके लिए मददगार साबित हुए, क्योंकि इनकी वजह से उन्हें मात्र
२५ पैसे में २७ कैलोरी मिल रही थी। उन्होंने केले को तलकर बिस्किट के साथ
खाने का प्रयोगकिया। यह उनकी रोज की दावत थी।




लेकिन सौ रुपए रोज पर जीवन बिताने के कारण उनके जीवन का दायरा बहुत सिमट
गया। अब वे बस से एक दिन में पांच किलोमीटर से अधिक लंबी दूरी तय नहीं कर
सकते थे, वे दिन में केवल पांच या छह घंटे बिजली का उपयोग कर सकते थे और
नहाने के लिए वे एक साबुन को दो भाग में काटकर उसका उपयोग करते थे। जाहिर
है वे फिल्में देखने नहीं जा सकते थे। बीमार पड़ना तो वे कतई वहन नहीं कर
सकते थे। उन्होंने पूरा महीना यह प्रार्थना करते हुए बिताया कि कहीं वे
बीमार न पड़ जाएं, नहीं तो उनका पूरा बजट गड़बड़ा जाएगा।




अंतत: वे 100 रुपए रोज पर एक महीना बिताने में कामयाब रहे। लेकिन बुनियादी
सवाल अपनी जगह पर कायम है। क्या वे 32 रुपए प्रतिदिन की आय पर भी एक महीना
बिता सकते थे? भारत में गरीबी के निर्धारण का यही आधिकारिक आंकड़ा है। जब
योजना आयोग ने सर्वोच्च अदालत को सूचित किया कि यह मानदंड भी शहरी गरीबों
के लिए है, ग्रामीण गरीबों के लिए यह 26 रुपए प्रतिदिन है, तो इस पर विवाद
होना स्वाभाविक ही था।






जब उन युवकों को यह पता चला तो उन्होंने तय किया कि वे केरल के करुकाचल
गांव में जाएंगे और 26 रुपए रोज की आय पर जीवन बिताने का प्रयास करेंगे।
उन्हें चावल, केले और चाय के सहारे जीने पर मजबूर होना पड़ा। लेकिन इतनी
खुराक पर भी रोज 18 रुपए खर्च हो जाते थे। कुछ दिनों बाद उन्होंने पाया कि
उनका पूरा दिन कम से कम रुपयों में भोजन का बंदोबस्त करने में ही बीत रहा
है। अब उन्होंने परिवहन के किसी भी साधन की सहायता लेना छोड़ दिया और पैदल
ही चलने लगे। साबुन के पैसे बचाने के लिए उन्होंने एक माह अपने कपड़े भी
नहीं धोए। ऐसे में यदि उनमें से कोई बीमार पड़ जाता तो वे भूखों ही मर
जाते। उन युवकों के लिए ‘आधिकारिक मानदंडों की गरीबी’ के वे दिन एक हिला
देने वाला अनुभव था।




एक माह पूरा होने पर उन्होंने लिखा




‘हम खुश हैं कि अब हम फिर से ‘सामान्य’ जीवन बिता सकेंगे। माह के अंत पर
हमने जोरदार दावत मनाई, लेकिन यह सोचकर मन उदास हो जाता है कि देश के 40
करोड़ लोगों के लिए गरीबी कोई ‘प्रयोग’ नहीं, बल्कि जीवन की वास्तविकता है
और वे इस तरह की दावत कभी नहीं मना सकते। हम तो एक महीने बाद अपनी आरामदेह
जिंदगी में लौट आए, लेकिन उनके बारे में क्या, जिनका पूरा जीवन ही आजीविका
के लिए एक कठोर संघर्ष है? एक ऐसा जीवन, जिसमें भूख सबसे बड़ी सच्चाई है और
स्वतंत्रता सबसे बड़ा भ्रम।




हमारा जीवनफिरसे पहले की तरह जरूर हो गया है, लेकिन अब हम पहले की तरह
पैसा खर्च नहीं कर सकेंगे। क्या वाकई हमें हेयर प्रोडक्ट्स और ब्रांडेड
कोलोन की जरूरत है? क्या महंगे रेस्तरां में भोजन करना सप्ताहांत बिताने का
अनिवार्य तरीका है? क्या वाकई हम इस सुख-वैभव के योग्य हैं? यह महज संयोग
ही था कि हमारा जन्म एक समृद्ध परिवार में हुआ था और हम एक आरामदेह जीवन
बिता सकते हैं, लेकिन उन लोगों के बारे में क्या, जो अपनी क्रूर नियति से
संघर्ष करने को मजबूर हैं? हमें इन सवालों के जवाब नहीं पता, लेकिन अब हम
इतना जरूर जानते हैं कि गरीबी के मायने क्या होते हैं। हमें यह भी याद
रहेगा कि जिन लोगों के साथ हमने ताउम्र अजनबियों की तरह व्यवहार किया,
उन्होंने तंगहाली के उन दिनों में खुले दिल से हमारा साथ दिया।’




इन युवकों के जीवन के इस अनुभव से हमें सबक मिलता है कि सभी लोगों के लिए
आवश्यक पोषक आहार सुनिश्चित करने के लिए खाद्य सुरक्षा कानून अनिवार्य है,
क्योंकि भूख और गरीबी के कारण इंसान अपने छोटे से छोटे सपने भी पूरे नहीं
कर सकता। और सबसे जरूरी बात यह कि लोकतंत्र की सफलता के लिए समानुभूति की
भावना का होना सबसे जरूरी है।




लेखक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य हैं।

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