बहुतेरी
संस्कृतियों में अन्याय के प्रतिरोध को सर्वोच्च मानवीय दायित्व का दर्जा
दिया गया है। इसी क्रम में एक बहस सदियों से जारी है और आज भी प्रासंगिक
बनी हुई है। यह है अत्याचार और अन्याय के प्रतिरोध में हिंसा की वैधता।
सवाल यह है कि अगर राज्यसत्ता के कुछ सशक्त प्रतिनिधि अगर अन्यायपूर्ण हो
गए हों तो क्या उनके प्रतिरोध के लिए हिंसा उचित है? दूसरे शब्दों में क्या
न्याय के नाम पर हत्या जैसे कृत्यों को वैध ठहराया जा सकता है?
मौजूदा हालात में यह सवाल पूरी दुनिया के सामने एक अहम नैतिक और राजनीतिक
दुविधा बना हुआ है। जनप्रतिरोध, गुरिल्ला सशस्त्र संघर्ष और चरमपंथी हिंसा
की वारदातों को उन व्यक्तियों और संस्थाओं द्वारा अंजाम दिया जाता है, जो
स्वयं को शोषितों के पक्षधर के रूप में प्रस्तुत करते हैं। विचारकों,
लेखकों, कवियों, कलाकारों, विद्यार्थियों और नौकरीशुदा लोगों के एक बड़े
वर्ग की सहानुभूति इस तरह के व्यक्तियों और संस्थाओं के साथ होती है, फिर
चाहे वे स्वयं कभी किसी तरह के सशस्त्र संघर्ष में शिरकत न करें।
चरमपंथियों के कृत्य को उचित ठहराने के लिए मार्क्सवादी, अराजकतावादी
विचार सरणियों से लेकर धर्मग्रंथों तक से भी उद्धरण दिए जाते हैं, जबकि
अन्य व्यक्तियों द्वारा उन्हीं उद्धरणों की व्याख्या दूसरी तरह से की जाती
है।
भारत में माओवादियों की बढ़ती सक्रियता के कारण यह बहस और अधिक प्रासंगिक
हो गई है। मजे की बात है कि दक्षिणपंथी अतिवादी धड़े द्वारा हिंसा को
न्यायोचित ठहराने के लिए ठीक उसी तरह के तर्क दिए जाते हैं, जैसे चरम
वामपंथियों द्वारा दिए जाते हैं। वास्तविक या आभासी अत्याचार के विरुद्ध
सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से राजनीतिक प्रतिरोध एक ऐसा बिंदु है, जिस पर
दक्षिण और वाम एकमत नजर आते हैं। इस हिंसा के कई अन्य प्रतिरूप भी हैं,
जिसकी झलक हम कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर के राज्यों में भी देख सकते हैं,
लेकिन यहां हम बातचीत को केवल माओवादियों तक ही सीमित रखेंगे।
चारु मजूमदार नक्सलबाड़ी आंदोलन के अग्रणी नेता और मार्क्सवादी-लेनिनवादी
पार्टी के संस्थापक थे। उन्होंने हमेशा ‘वर्गीय शत्रुओं’ के प्रति हिंसक
तौर-तरीकों के उपयोग का समर्थन किया। उन्होंने तो यहां तक कहा कि ‘वास्तव
में हमारी लड़ाई में जल्द ही वह समय आने वाला है, जब यह कहा जा सकेगा कि जो
व्यक्ति वर्गीय शत्रुओं के विरुद्ध संघर्षरत नहीं है, वह सही मायनों में
कम्युनिस्ट नहीं है।’
आज अन्याय के विरुद्ध लड़ाई में हिंसा को न्यायोचित ठहराने वाले अनेक
व्यक्ति हिंसक तौर-तरीकों के प्रति मजूमदार की इस खुली स्वीकृति से असहज
महसूस करते हैं, अलबत्ता वे चे ग्वेरा की ऐसी ही गुरिल्ला सैन्य नीतियों पर
इतने मुखर नहीं होते। कई माओवादी गुट दावा करते हैं कि उन्होंने
व्यक्ति-हिंसा की नीति को त्याग दिया है, लेकिन इसके बावजूद वे लोकतांत्रिक
पद्धति से अन्याय का विरोध करने के बजाय पुलिस थानों पर हमले, खदानों में
विस्फोट, कथित मुखबिरों की हत्या, सार्वजनिकसंपत्ति का विध्वंस और
राजनीतिक दलों पर ‘प्रतिबंध’ लगाने जैसी कार्रवाइयां करते रहते हैं।
भारत में सरकार और माओवादियों के बीच हिंसक तौर-तरीकों के विषय पर वार्ता
कराने के किसी महत्वपूर्ण नागरिक प्रयास का केवल एक ही उदाहरण याद आता है,
जब आंध्र प्रदेश में एसआर शंकरन के नेतृत्व में प्रबुद्ध नागरिकों के एक
समूह द्वारा ऐसा किया गया था। शंकरन कमेटी ने यह कहते हुए माओवादी हिंसा की
निंदा की थी कि ‘उनका ध्यान सामाजिक रूपांतरण के लिए लोगों को लामबंद करने
के बजाय सैन्य कार्रवाइयों पर अधिक केंद्रित है’ और माओवादियों की हिंसक
वारदातों से वास्तव में ‘लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जनता की प्रत्यक्ष
सहभागिता घट रही है और समाज में बर्बरता की प्रवृत्ति को पोषण मिल रहा है।’
भारत में नक्सलवाद के 40 से भी अधिक सालों के बावजूद माओवादी हिंसा में
बेगुनाह नागरिकों की मृत्यु को हल्के ढंग से स्वीकारने की आदत में कोई
बदलाव नहीं आया है। इस तरह की घटनाओं के बाद आज भी माओवादी प्रवक्ताओं
द्वारा इसे ‘भूलवश’ हुआ कृत्य बताया जाता है, लेकिन वास्तविकता यह है कि
न्याय की तलाश में किए जा रहे किसी आंदोलन में बेगुनाहों की मृत्यु को कतई
‘भूलवश’ करार नहीं दिया जा सकता। हालांकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी
(मार्क्सवादी-लेनिनवादी) जनसंघर्ष समूह के एक प्रतिनिधि ने शंकरन कमेटी को
लिखा था : ‘नक्सलियों के कृत्यों को क्रूर हिंसा करार देना गलत होगा।
क्रांतिकारी संगठनों का उत्तरदायित्व शोषित वर्ग के प्रति है और वे तंत्र
की गैरमंशाई भूलों को दुरुस्त करने के लिए कटिबद्ध हैं। वे यह सुनिश्चित
करना चाहते हैं कि उनके कारण निर्दोषों को किसी तरह का कष्ट न हो। यदि उनसे
कुछ दुखद त्रुटियां हुई हों तो वे क्षमाप्रार्थी हैं।’
फरवरी 2006 में दंतेवाड़ा में हुए एक बम धमाके में 25 आदिवासियों की मौत हो
गई थी। पांच माह बाद उसी जगह आदिवासियों के राहत शिविर पर माओवादी हमला
हुआ और ३क् और लोगों की जान चली गई, जिनमें बच्चे भी शामिल थे। तब
मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी के तत्कालीन प्रवक्ता आजाद ने बच्चों की
मृत्यु को ‘अनावश्यक क्षति’ बताया था, लेकिन उन्होंने बुश की ‘सर्वपक्षीय
क्षति’ वाली धारणा की ही तर्ज पर इसे कमोबेश न्यायोचित भी ठहराया। उन्होंने
कहा : ‘कोई भी जनसंघर्ष इतनी सफाई से नहीं हो सकता कि उसमें कोई नागरिक
हताहत न हो।’ मुझे बड़ा विचित्र लगता है कि जो लोग मृत्युदंड का विरोध करते
हैं, वे ही सशस्त्र दलों की हिंसक वारदातों का समर्थन करते नजर आते हैं।
महज इस आधार पर पुरुषों और महिलाओं की हत्या कर देना कि वे किसी शोषक वर्ग
से संबद्ध थे, या उन्होंने क्रांतिकारियों का समर्थन नहीं किया, या वे कथित
तौर पर पुलिस के मुखबिर थे, उन्हें अपनी बेगुनाही सिद्ध करने के मूलभूत
अधिकार से वंचित करने की ही तरह है। वास्तव में यह फर्जी एनकाउंटरों या
एक्स्ट्रा-ज्यूडिशियल हत्याओं से बहुत भिन्न नहीं है, जिसमें निर्णय के
सारे सूत्र एकहीसत्ता के हाथ में होते हैं। लेकिन उन्हें यह हमेशा याद
रखना चाहिए कि किसी व्यक्ति की जान लेना एक ऐसी ‘भूल’ है, जिसे बाद में
सुधारने का कोई मौका नहीं मिलता।
(लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं।)
संस्कृतियों में अन्याय के प्रतिरोध को सर्वोच्च मानवीय दायित्व का दर्जा
दिया गया है। इसी क्रम में एक बहस सदियों से जारी है और आज भी प्रासंगिक
बनी हुई है। यह है अत्याचार और अन्याय के प्रतिरोध में हिंसा की वैधता।
सवाल यह है कि अगर राज्यसत्ता के कुछ सशक्त प्रतिनिधि अगर अन्यायपूर्ण हो
गए हों तो क्या उनके प्रतिरोध के लिए हिंसा उचित है? दूसरे शब्दों में क्या
न्याय के नाम पर हत्या जैसे कृत्यों को वैध ठहराया जा सकता है?
मौजूदा हालात में यह सवाल पूरी दुनिया के सामने एक अहम नैतिक और राजनीतिक
दुविधा बना हुआ है। जनप्रतिरोध, गुरिल्ला सशस्त्र संघर्ष और चरमपंथी हिंसा
की वारदातों को उन व्यक्तियों और संस्थाओं द्वारा अंजाम दिया जाता है, जो
स्वयं को शोषितों के पक्षधर के रूप में प्रस्तुत करते हैं। विचारकों,
लेखकों, कवियों, कलाकारों, विद्यार्थियों और नौकरीशुदा लोगों के एक बड़े
वर्ग की सहानुभूति इस तरह के व्यक्तियों और संस्थाओं के साथ होती है, फिर
चाहे वे स्वयं कभी किसी तरह के सशस्त्र संघर्ष में शिरकत न करें।
चरमपंथियों के कृत्य को उचित ठहराने के लिए मार्क्सवादी, अराजकतावादी
विचार सरणियों से लेकर धर्मग्रंथों तक से भी उद्धरण दिए जाते हैं, जबकि
अन्य व्यक्तियों द्वारा उन्हीं उद्धरणों की व्याख्या दूसरी तरह से की जाती
है।
भारत में माओवादियों की बढ़ती सक्रियता के कारण यह बहस और अधिक प्रासंगिक
हो गई है। मजे की बात है कि दक्षिणपंथी अतिवादी धड़े द्वारा हिंसा को
न्यायोचित ठहराने के लिए ठीक उसी तरह के तर्क दिए जाते हैं, जैसे चरम
वामपंथियों द्वारा दिए जाते हैं। वास्तविक या आभासी अत्याचार के विरुद्ध
सशस्त्र संघर्ष के माध्यम से राजनीतिक प्रतिरोध एक ऐसा बिंदु है, जिस पर
दक्षिण और वाम एकमत नजर आते हैं। इस हिंसा के कई अन्य प्रतिरूप भी हैं,
जिसकी झलक हम कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर के राज्यों में भी देख सकते हैं,
लेकिन यहां हम बातचीत को केवल माओवादियों तक ही सीमित रखेंगे।
चारु मजूमदार नक्सलबाड़ी आंदोलन के अग्रणी नेता और मार्क्सवादी-लेनिनवादी
पार्टी के संस्थापक थे। उन्होंने हमेशा ‘वर्गीय शत्रुओं’ के प्रति हिंसक
तौर-तरीकों के उपयोग का समर्थन किया। उन्होंने तो यहां तक कहा कि ‘वास्तव
में हमारी लड़ाई में जल्द ही वह समय आने वाला है, जब यह कहा जा सकेगा कि जो
व्यक्ति वर्गीय शत्रुओं के विरुद्ध संघर्षरत नहीं है, वह सही मायनों में
कम्युनिस्ट नहीं है।’
आज अन्याय के विरुद्ध लड़ाई में हिंसा को न्यायोचित ठहराने वाले अनेक
व्यक्ति हिंसक तौर-तरीकों के प्रति मजूमदार की इस खुली स्वीकृति से असहज
महसूस करते हैं, अलबत्ता वे चे ग्वेरा की ऐसी ही गुरिल्ला सैन्य नीतियों पर
इतने मुखर नहीं होते। कई माओवादी गुट दावा करते हैं कि उन्होंने
व्यक्ति-हिंसा की नीति को त्याग दिया है, लेकिन इसके बावजूद वे लोकतांत्रिक
पद्धति से अन्याय का विरोध करने के बजाय पुलिस थानों पर हमले, खदानों में
विस्फोट, कथित मुखबिरों की हत्या, सार्वजनिकसंपत्ति का विध्वंस और
राजनीतिक दलों पर ‘प्रतिबंध’ लगाने जैसी कार्रवाइयां करते रहते हैं।
भारत में सरकार और माओवादियों के बीच हिंसक तौर-तरीकों के विषय पर वार्ता
कराने के किसी महत्वपूर्ण नागरिक प्रयास का केवल एक ही उदाहरण याद आता है,
जब आंध्र प्रदेश में एसआर शंकरन के नेतृत्व में प्रबुद्ध नागरिकों के एक
समूह द्वारा ऐसा किया गया था। शंकरन कमेटी ने यह कहते हुए माओवादी हिंसा की
निंदा की थी कि ‘उनका ध्यान सामाजिक रूपांतरण के लिए लोगों को लामबंद करने
के बजाय सैन्य कार्रवाइयों पर अधिक केंद्रित है’ और माओवादियों की हिंसक
वारदातों से वास्तव में ‘लोकतांत्रिक प्रक्रिया में जनता की प्रत्यक्ष
सहभागिता घट रही है और समाज में बर्बरता की प्रवृत्ति को पोषण मिल रहा है।’
भारत में नक्सलवाद के 40 से भी अधिक सालों के बावजूद माओवादी हिंसा में
बेगुनाह नागरिकों की मृत्यु को हल्के ढंग से स्वीकारने की आदत में कोई
बदलाव नहीं आया है। इस तरह की घटनाओं के बाद आज भी माओवादी प्रवक्ताओं
द्वारा इसे ‘भूलवश’ हुआ कृत्य बताया जाता है, लेकिन वास्तविकता यह है कि
न्याय की तलाश में किए जा रहे किसी आंदोलन में बेगुनाहों की मृत्यु को कतई
‘भूलवश’ करार नहीं दिया जा सकता। हालांकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी
(मार्क्सवादी-लेनिनवादी) जनसंघर्ष समूह के एक प्रतिनिधि ने शंकरन कमेटी को
लिखा था : ‘नक्सलियों के कृत्यों को क्रूर हिंसा करार देना गलत होगा।
क्रांतिकारी संगठनों का उत्तरदायित्व शोषित वर्ग के प्रति है और वे तंत्र
की गैरमंशाई भूलों को दुरुस्त करने के लिए कटिबद्ध हैं। वे यह सुनिश्चित
करना चाहते हैं कि उनके कारण निर्दोषों को किसी तरह का कष्ट न हो। यदि उनसे
कुछ दुखद त्रुटियां हुई हों तो वे क्षमाप्रार्थी हैं।’
फरवरी 2006 में दंतेवाड़ा में हुए एक बम धमाके में 25 आदिवासियों की मौत हो
गई थी। पांच माह बाद उसी जगह आदिवासियों के राहत शिविर पर माओवादी हमला
हुआ और ३क् और लोगों की जान चली गई, जिनमें बच्चे भी शामिल थे। तब
मार्क्सवादी-लेनिनवादी पार्टी के तत्कालीन प्रवक्ता आजाद ने बच्चों की
मृत्यु को ‘अनावश्यक क्षति’ बताया था, लेकिन उन्होंने बुश की ‘सर्वपक्षीय
क्षति’ वाली धारणा की ही तर्ज पर इसे कमोबेश न्यायोचित भी ठहराया। उन्होंने
कहा : ‘कोई भी जनसंघर्ष इतनी सफाई से नहीं हो सकता कि उसमें कोई नागरिक
हताहत न हो।’ मुझे बड़ा विचित्र लगता है कि जो लोग मृत्युदंड का विरोध करते
हैं, वे ही सशस्त्र दलों की हिंसक वारदातों का समर्थन करते नजर आते हैं।
महज इस आधार पर पुरुषों और महिलाओं की हत्या कर देना कि वे किसी शोषक वर्ग
से संबद्ध थे, या उन्होंने क्रांतिकारियों का समर्थन नहीं किया, या वे कथित
तौर पर पुलिस के मुखबिर थे, उन्हें अपनी बेगुनाही सिद्ध करने के मूलभूत
अधिकार से वंचित करने की ही तरह है। वास्तव में यह फर्जी एनकाउंटरों या
एक्स्ट्रा-ज्यूडिशियल हत्याओं से बहुत भिन्न नहीं है, जिसमें निर्णय के
सारे सूत्र एकहीसत्ता के हाथ में होते हैं। लेकिन उन्हें यह हमेशा याद
रखना चाहिए कि किसी व्यक्ति की जान लेना एक ऐसी ‘भूल’ है, जिसे बाद में
सुधारने का कोई मौका नहीं मिलता।
(लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं।)