किसानों की फिक्र (संपादकीय- दैनिक भास्कर)

जमीन पर
कब्जा एक बड़ा मुद्दा है। भूमि अधिग्रहण का सवाल भारत में सामाजिक तनाव की
खास वजह बना हुआ है। इस मुद्दे ने विकास की नीति एवं योजनाओं के लिए गंभीर
चुनौती पैदा की है। समस्या इसलिए ज्यादा गंभीर है, क्योंकि जमीन का सीधा
संबंध अनाज की पैदावार से है। खेती की जमीन का अन्य तरह का उपयोग खाद्य
सुरक्षा की कीमत पर ही होता है।




खबरों के मुताबिक वर्ष 2000 और 2010 के बीच पूरे विश्व में खेती योग्य 49
करोड़ 8 लाख एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया गया। खासकर एशिया और अफ्रीका में
जमीन अधिग्रहण की चली इस लहर ने किसानों के हक और खाद्य सुरक्षा से जुड़ी
चिंताओं में काफी बढ़ोतरी कर दी है। अनुभव यह है कि आमतौर पर सरकारों का
नजरिया टालमटोल वाला होता है या फिर सरकारें कमोबेश भूमि कब्जा करने वालों
के पक्ष में खड़ी होती हैं।




इसलिए किसानों और कृषि पर निर्भर समुदायों के हितों का ख्याल करने वाला कोई
नहीं होता। अब संयुक्त राष्ट्र ने किसानों के भूमि संबंधी अधिकारों की
रक्षा के मकसद से वैश्विक मानक तैयार करने का फैसला किया है। अवैध रूप से
होने वाले भूमि अधिग्रहण से गरीब किसानों और कृषि आधारित समुदायों के
अधिकारों की रक्षा के उद्देश्य से उठाया गया यह एक ऐतिहासिक कदम है। इस पर
अमल की जिम्मेदारी संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) को सौंपी
गई है। लेकिन यह काम आसान नहीं है।




विकास के जैसे मॉडल पर अधिकांश विकासशील देश चल रहे हैं, उसके बीच इन
मानकों के प्रभावी ढंग से लागू हो पाने की उम्मीद करने का कोई ठोस आधार
नहीं है। फिलहाल संतोष की बात सिर्फ इतनी है कि आखिरकार इस समस्या की तरफ
दुनिया का ध्यान गया है। किसानों एवं भूमि निर्भर समुदायों के हित में काम
करने वाले कार्यकर्ताओं के पास अब अधिकारियों को जवाबदेह बनाने की एक कसौटी
उपलब्ध होगी। आशा की जानी चाहिए कि आने वाले वर्षो में संयुक्त राष्ट्र की
चर्चाओं में यह सवाल उसी तरह महत्वपूर्ण हो सकेगा, जैसा मानवाधिकार या
स्त्री अधिकारों के सवाल आज हो चुके हैं।

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