दीपिका के तीरंदाज बनने की कहानी जितनी दिलचस्प है, उतनी प्रेरक भी। आम तोड़ते-तोड़ते उसका निशाना इतना तेज हो गया था कि दस साल की होने पर उसने तीरंदाजी में करियर बनाने का सपना पाल लिया था। लेकिन इस सपने को हकीकत में बदलना आसान नहीं था। उसके पिता ऑटो रिक्शा ड्राइवर थे और मां रांची मेडिकल कॉलेज में चतुर्थ श्रेणी की कर्मचारी। इस निम्न मध्यवर्गीय परिवार में जब घर का बजट भारी पड़ रहा हो, तब तीरंदाजी के उपकरण जुटाना आसान नहीं था। पर पिता की नाराजगी के बावजूद मां ने बेटी का साथ दिया और घर के बजट में कटौती कर दीपिका के हाथों में बांस से बना धनुष थमाया। इसके बाद दीपिका ने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
शुरुआती वर्ष दीपिका के लिए कठिन थे। अर्जुन आर्चरी एकेडमी में उसका दाखिला तो हो गया, पर तब उसके पास बिना लेंस लगे ऐसे धनुष होते थे, जिसकी डोर को मनोनुकूल कसा भी नहीं जा सकता था। चचेरी बहन विद्या के सहयोग से वह टाटा आर्चरी एकेडमी पहुंची, जहां उसे बेहतर धनुष-बाण और यूनिफॉर्म के साथ छह हजार रुपये प्रतिमाह स्टाइपंड भी मिले। यहीं उसने अपनी धनुर्विद्या को निखारा, और न सिर्फ कैडेट वर्ल्ड खिताब, बल्कि 2010 में दिल्ली में आयोजित राष्ट्रमंडल खेलों में सोने का दो तमगा भी जीता।
दुष्यंत कुमार की पंक्ति है, कौन कहता है कि आसमां में सूराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो। खुद पर यकीन करने वाली दीपिका ने भी बचपन में बस ‘पत्थर’ ही तो उछाला था। आज वह उस ख्वाब को पूरा करने में जुट गई है, जिस पर निशाना लगाने का वायदा उन्होंने राष्ट्रमंडल खेलों के बाद किया था। और वह सपना है, लंदन ओलंपिक में भी तिरंगा फहराना।