दाल-रोटी के लिए हलाल हो रहा बचपन

सिलीगुड़ी [पवन शुक्ल]। बंगाल में गरीबी का लाभ उठाकर मानव तस्कर वहां
अपनी पैठ बना चुके हैं। दूरदराज के गांवों की गरीबी और चाय बागानों की बंदी
ने यहां के बच्चों के बचपन पर ग्रहण लगा दिया है। पापी पेट के लिए रोजगार
की तलाश में भटक रहे बच्चों को खुद ही नहीं पता है कि वह कहां जा रहे हैं
और यह भी नहीं जानते घर वापस आने की संभावना है या नहीं? रोजगार की तलाश
में बेघर हुए बच्चों के माता-पिता के पास भी उनका पता-ठिकाना तलाशने की
ताकत नहीं है। बंगाल के मालदा और दार्जिलिंग जिलों में ही गत वर्ष गुमशुदगी
के कुल 156 मामले दर्ज हुए।

क्यों हो रही तस्करी

उत्तर बंगाल के बंद चाय बागानो में काम करने वालों की स्थिति काफी
दयनीय है। इसी कारण अपने घर के बच्चों व लड़कियों को वह रोजगार की तलाश में
बाहर भेजने की मंशा रखते हैं। अभाव के माहौल का फायदा उठाने के लिए मानव
तस्करों के एजेंट गरीब के घर जा पहुंचते हैं और उनके बच्चों को रोजगार और
अच्छी पगार का लालच देकर साथ ले आते हैं। ले जाए जाने वाले ज्यादातर बच्चे
पांच साल से पंद्रह साल के बीच के होते हैं। पहले एक-दो महीने कुछ रुपये
भेजे जाते हैं, लेकिन इसके बाद न तो रुपये मिलते हैं और न ही ले जाने वाले
और लड़के-लड़की का पता-ठिकाना। बांग्लादेश सीमा से लगे ग्रामीण इलाके के करीब
हर गांव में यही स्थिति है।

भीख और देह व्यापार में बच्चे

कम उम्र के लड़कों को भीख मांगने के धंधे में उतार दिया जाता है या फिर
उन्हें दूरदराज के इलाकों में काम करने के लिए बेच दिया जाता है। जबकि
लड़कियां देह व्यापार के धंधेबाजों को बेच दी जाती हैं। दार्जिलिंग पुलिस ने
सुराग मिलने पर पुणे, महाराष्ट्र, दिल्ली, मुंबई समेत कई शहरों के रेड
लाइट एरिया में छापेमारी करके ऐसी लड़कियों को मुक्त कराया है। लेकिन समस्या
है कि मुक्त कराई गई लड़कियों को उनके घर वाले रखने को राजी नहीं। इसके
पीछे सामाजिक कारण तो हैं ही आर्थिक कारण भी हैं। मुक्त कराई गई लड़कियों को
खिलाने और जरूरतों के लिए भी परिवार वालों के पास खास नहीं है, शादी की
बात तो बहुत दूर है।

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