अमीरों और गरीबों के बच्चे पहले भी साथ-साथ पढ़ते थे। इसका सबसे मशहूर
उदाहरण कृष्ण और सुदामा की जोड़ी है। कृष्ण राजकुल के थे और सुदामा एक गरीब
ब्राह्मण की संतान। दोनों के प्रति गुरु तथा गुरुकुल के अन्य संवासियों के
व्यवहार में कुछ अलग अलगपन था या नहीं, इसके विवरण आज उपलब्ध नहीं हैं। पर
यह जरूर प्रसिद्ध है कि कृष्ण और सुदामा के बीच गजब की दोस्ती थी। किसी
अन्य अमीर और गरीब के बीच ऐसी दोस्ती की कोई दूसरी और नजीर नहीं मिलती।
गुरुकुल में शिक्षा पूरी हो जाने के बाद दोनों को एक-दूसरे से जुदा होना ही
था। पर एक लंबी अवधि के बाद जब सुदामा अपनी पत्नी द्वारा प्रेरित किए जाने
पर कुछ मदद की उम्मीद में कृष्ण के महल में पहुंचे तो उनका जैसा स्वागत
हुआ वह किसी राजा-महाराजा का क्या हुआ होगा? कृष्ण ने तो तीनों लोकों का
राज्य अपने मित्र को दे दिया होता और वह भी सुदामा को इसका कोई संकेत दिए
बगैर, अगर उनकी पत्नी ने उनका हाथ थाम नहीं लिया होता कि सब कुछ दे ही दोगे
तो हम क्या खाए-पिएंगे। सच है असली मित्रता वहीं होती है जहां कुछ मांगने
की जरूरत ही न पड़े। भारत सरकार की कृपा से एक बार फिर स्कूलों में कक्षा
आठ तक कृष्ण और सुदामा एक साथ पढ़ सकेंगे। यह सब एक ही स्कूल में और एक ही
बेंच पर संभव होगा।
शिक्षा का अधिकार के कानून के तहत सरकार ने इस तरह की व्यवस्था की है कि अब
प्रत्येक स्कूल को अपने यहां कम से कम 25 प्रतिशत सीटें गरीब बच्चों के
लिए आरक्षित करनी होंगी और फीस लिए बगैर इन्हें पढ़ाना होगा। इस नई
व्यवस्था को अब सर्वोच्च न्यायालय की मान्यता भी मिल गई है यानी इस नीति को
अमलीजामा पहनाने में अब कहीं कोई दिक्कम नहीं होने वाली। जाहिर है जिन
स्कूलों में कृष्ण परिवारों के बच्चे पढ़ते हैं, उनके संचालकों को यह कैसे
सुहा सकता था कि इस तरह की कोई व्यवस्था आज के समय में, लेकिन अब इसके लिए न
तो कोई स्कूल और न ही उसका प्रबंधन किसी तरह की मनाही कर सकेंगे। बहुत से
स्कूलों में यह व्यवस्था पिछले शैक्षणिक सत्र से चालू है जो अब और गति
पकड़ेगा। पर यहां जो सवाल है वह यह कि इस नई संयुक्त शिक्षा प्रणाली के
मानदंड अभी तक पूरी तरह नहीं बन पाए हैं। इसलिए असली चुनौती इस नए नियम को
अमल में लाने और प्रभावी बनाने का है। सरकारी आदेश का तकनीकी पालन एक बात
है और शिक्षा के इस नए स्वरूप का मानक तंत्र विकसित करना
एक बिल्कुल अलग चीज। जेहन में तो यही है कि नई प्रणाली
को लेकर पहले से ही शक क्यों किया जाए, लेकिन कल्पना में वास्तविक
स्थिति को लेकर एक बहुत ही भयावह स्थिति उभरती है।
किस्सों के अनुसार पुराने जमाने में जब बालक कृष्ण और बालक सुदामा एक ही
आश्रम में रहते और पढ़ते थे। तब समाजमें भले ही सामंतवाद और भयावह आर्थिक
विषमता मौजूद रहे हों, पर आश्रमों में एक अलग तरह का समाजवाद हुआ करता था
और इसे लेकर शायद ही कभी किसी तरह का विरोध हुआ। सभी छात्रों को गुरुवर का
एक जैसा स्नेह तो नहीं ही मिलता रहा होगा पर जाति, कुल, वर्ग, परिवार आदि
के आधार पर भौतिक सुविधाओं के विभाजन की बात सोची भी नहीं जा सकती होगी। कह
सकते हैं, यह गरीबी या सादगी पर आधारित एक अलग तरह का समाजवाद था जिसमें
सिर्फ मन और बुद्धि की विषमताएं ही हो सकती थीं। भोग या उपभोग की नहीं।
आज के समय में न तो उस तरह का वातावरण है और न ही उसके बारे में सोचा जा
सकता है। समाज में तरह-तरह की विषमताएं मौजूद हैं जिनका एक प्रमुख आधार
पैसा हो गया है। आज के समय में स्कूल भी आश्रम नहीं हैं, न शिक्षक उस समय
के गुरु जैसे हैं, जो मात्र ज्ञान अर्जन और उसका प्रचार-प्रसार करने के लिए
अपना जीवन समर्पित कर देते थे।
स्कूलों की उतनी ही किस्में हैं जितने कि समाज में वर्ग हैं। समाज के हर
वर्ग के लिए अलग तरह के स्कूल मौजूद हैं, लेकिन शिक्षा का अधिकार कानून के
तहत एक नया युग शुरू हो गया है। सरकार की योजना में यह शामिल नहीं है कि
अमीर बच्चे भी गरीब बच्चों के स्कूलों में दाखिला लें। यह हमारी मिश्रित
लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए संभव भी नहीं है। इसलिए जो संभव था और लागू कर
दिया गया है, वह यह है कि गरीब बच्चों को अमीर बच्चों के साथ पढ़ने दिया
जाए। हालांकि सरकार यह भी नहीं चाहती थी पर अदालत के कारण उसकी मजबूरी हो
गई। चौदह वर्ष की उम्र तक के बच्चों को मुफ्त शिक्षा पाने का अधिकार हासिल
हो गया है।
अब सवाल है कि इतने स्कूल कहां से ले आए जाएं। तब अमीर स्कूलों की ओर नजर
गई। उन्हें आदेश दिया गया कि पचीस प्रतिशत सीटें गरीब बच्चों को देनी
होंगी। इससे इन स्कूलों में उपलब्ध कुल सीटों की संख्या तो नहीं बढ़ जाएगी
पर अमीर बच्चों को सर्वोत्तम शिक्षा देने के लिए नए स्कूल जरूर खोले जाने
लगेंगे। वहां भी कृष्ण और सुदामा साथ-साथ पढ़ेंगे। इससे नगरों और महानगरों
में शिक्षा उद्योग की प्रगति दर बढ़ेगी और निवेश के नए अवसर खुलेंगे। कक्षा
आठ तक के इस मिश्रित शिक्षा तंत्र के सामाजिक परिणाम क्या निकलेंगे इस पर
दीर्घकालिक दृष्टि से विचार किए जाने की आवश्यकता है।
यह तो शत-प्रतिशत तय है कि अमीर स्कूलों में गरीब बच्चों के साथ वैसा ही
व्यवहार होगा जैसा सरकारी दफ्तरों में एससी, एसटी कर्मचारियों के साथ होता
आया है। चूंकि आरक्षण की व्यवस्था को राजनीतिक और कानूनी समर्थन है, पर
सवर्ण और समर्थ वर्ग ने इसे स्वीकार नहीं किया है, इसलिए आरक्षित वर्ग के
कर्मचारियों के साथ वह व्यवहार नहीं हो पाता जो आरक्षण के दर्शन के अनुसार
वांछित है। ऐसा कुछ अमीर स्कूलों में न होने पाए इसकी प्रमुख जिम्मेदारी
इन स्कूलों के शिक्षकों और संचालकों पर निर्भर करता है। पर इतनी तो इनसे
प्रार्थना की हीजानीचाहिए कि ये अपने-अपने स्कूल और अपनी-अपनी कक्षाओं
में संवेदनशीलता और सौहार्द का वातावरण बनाएं। संपन्न बच्चों और उनके
अभिभावकों के साथ बार-बार बैठक कर उन्हें इन नई व्यवस्था के सकारात्मक
पक्षों से अवगत और सचेतन करने का प्रयास करें। इसी तरह गरीब बच्चों के साथ
अलग से बैठक कर उन्हें इसके लिए मानसिक रूप से तैयार करना होगा कि उन्हें
किन-किन मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है तथा उन्हें समझ, धैर्य तथा
सहनशीलता का परिचय देना होगा।
पर क्या यह संभव हो पाएगा? मैं प्रकृति से ही निराशावादी हूं। खासकर अपने
देश को ले कर। इसलिए मुझे डर यह है कि अंतत: तो केर-बेर को संग की स्थिति
ही बनेगी। ऐसी स्थिति में क्या होता है, इसका बयान करते हुए कवि ने कहा
है-ये डोलें मन आपनो उन कर फाटे अंग। पश्चिमी देशों की तरह हमारे यहां भी
गरीब-अमीर, काले-गोरे सभी के लिए एक ही तरह का स्कूल तंत्र होता तो कितना
अच्छा होता। सामाजिक विषमता और भेदभाव खत्म करने का इससे बेहतर तरीका कुछ
और नहीं हो सकता। अभी तो मैं इतनी ही कल्पना कर पा रहा हूं कि जब गरीब
बच्चे अमीर बच्चों और उनके शिक्षा तंत्र के सीधे संपर्क में आएंगे तब उनके
मन में विषमता पर आधारित वर्तमान व्यवस्था के प्रति तीखा आक्रोश पैदा होगा।
हो सकता है इससे बदलाव के संघर्ष को एक नया आधार मिले। यदि ऐसा कुछ नहीं
होता है तो सामाजिक कटुता का बढ़ना निश्चित है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
उदाहरण कृष्ण और सुदामा की जोड़ी है। कृष्ण राजकुल के थे और सुदामा एक गरीब
ब्राह्मण की संतान। दोनों के प्रति गुरु तथा गुरुकुल के अन्य संवासियों के
व्यवहार में कुछ अलग अलगपन था या नहीं, इसके विवरण आज उपलब्ध नहीं हैं। पर
यह जरूर प्रसिद्ध है कि कृष्ण और सुदामा के बीच गजब की दोस्ती थी। किसी
अन्य अमीर और गरीब के बीच ऐसी दोस्ती की कोई दूसरी और नजीर नहीं मिलती।
गुरुकुल में शिक्षा पूरी हो जाने के बाद दोनों को एक-दूसरे से जुदा होना ही
था। पर एक लंबी अवधि के बाद जब सुदामा अपनी पत्नी द्वारा प्रेरित किए जाने
पर कुछ मदद की उम्मीद में कृष्ण के महल में पहुंचे तो उनका जैसा स्वागत
हुआ वह किसी राजा-महाराजा का क्या हुआ होगा? कृष्ण ने तो तीनों लोकों का
राज्य अपने मित्र को दे दिया होता और वह भी सुदामा को इसका कोई संकेत दिए
बगैर, अगर उनकी पत्नी ने उनका हाथ थाम नहीं लिया होता कि सब कुछ दे ही दोगे
तो हम क्या खाए-पिएंगे। सच है असली मित्रता वहीं होती है जहां कुछ मांगने
की जरूरत ही न पड़े। भारत सरकार की कृपा से एक बार फिर स्कूलों में कक्षा
आठ तक कृष्ण और सुदामा एक साथ पढ़ सकेंगे। यह सब एक ही स्कूल में और एक ही
बेंच पर संभव होगा।
शिक्षा का अधिकार के कानून के तहत सरकार ने इस तरह की व्यवस्था की है कि अब
प्रत्येक स्कूल को अपने यहां कम से कम 25 प्रतिशत सीटें गरीब बच्चों के
लिए आरक्षित करनी होंगी और फीस लिए बगैर इन्हें पढ़ाना होगा। इस नई
व्यवस्था को अब सर्वोच्च न्यायालय की मान्यता भी मिल गई है यानी इस नीति को
अमलीजामा पहनाने में अब कहीं कोई दिक्कम नहीं होने वाली। जाहिर है जिन
स्कूलों में कृष्ण परिवारों के बच्चे पढ़ते हैं, उनके संचालकों को यह कैसे
सुहा सकता था कि इस तरह की कोई व्यवस्था आज के समय में, लेकिन अब इसके लिए न
तो कोई स्कूल और न ही उसका प्रबंधन किसी तरह की मनाही कर सकेंगे। बहुत से
स्कूलों में यह व्यवस्था पिछले शैक्षणिक सत्र से चालू है जो अब और गति
पकड़ेगा। पर यहां जो सवाल है वह यह कि इस नई संयुक्त शिक्षा प्रणाली के
मानदंड अभी तक पूरी तरह नहीं बन पाए हैं। इसलिए असली चुनौती इस नए नियम को
अमल में लाने और प्रभावी बनाने का है। सरकारी आदेश का तकनीकी पालन एक बात
है और शिक्षा के इस नए स्वरूप का मानक तंत्र विकसित करना
एक बिल्कुल अलग चीज। जेहन में तो यही है कि नई प्रणाली
को लेकर पहले से ही शक क्यों किया जाए, लेकिन कल्पना में वास्तविक
स्थिति को लेकर एक बहुत ही भयावह स्थिति उभरती है।
किस्सों के अनुसार पुराने जमाने में जब बालक कृष्ण और बालक सुदामा एक ही
आश्रम में रहते और पढ़ते थे। तब समाजमें भले ही सामंतवाद और भयावह आर्थिक
विषमता मौजूद रहे हों, पर आश्रमों में एक अलग तरह का समाजवाद हुआ करता था
और इसे लेकर शायद ही कभी किसी तरह का विरोध हुआ। सभी छात्रों को गुरुवर का
एक जैसा स्नेह तो नहीं ही मिलता रहा होगा पर जाति, कुल, वर्ग, परिवार आदि
के आधार पर भौतिक सुविधाओं के विभाजन की बात सोची भी नहीं जा सकती होगी। कह
सकते हैं, यह गरीबी या सादगी पर आधारित एक अलग तरह का समाजवाद था जिसमें
सिर्फ मन और बुद्धि की विषमताएं ही हो सकती थीं। भोग या उपभोग की नहीं।
आज के समय में न तो उस तरह का वातावरण है और न ही उसके बारे में सोचा जा
सकता है। समाज में तरह-तरह की विषमताएं मौजूद हैं जिनका एक प्रमुख आधार
पैसा हो गया है। आज के समय में स्कूल भी आश्रम नहीं हैं, न शिक्षक उस समय
के गुरु जैसे हैं, जो मात्र ज्ञान अर्जन और उसका प्रचार-प्रसार करने के लिए
अपना जीवन समर्पित कर देते थे।
स्कूलों की उतनी ही किस्में हैं जितने कि समाज में वर्ग हैं। समाज के हर
वर्ग के लिए अलग तरह के स्कूल मौजूद हैं, लेकिन शिक्षा का अधिकार कानून के
तहत एक नया युग शुरू हो गया है। सरकार की योजना में यह शामिल नहीं है कि
अमीर बच्चे भी गरीब बच्चों के स्कूलों में दाखिला लें। यह हमारी मिश्रित
लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए संभव भी नहीं है। इसलिए जो संभव था और लागू कर
दिया गया है, वह यह है कि गरीब बच्चों को अमीर बच्चों के साथ पढ़ने दिया
जाए। हालांकि सरकार यह भी नहीं चाहती थी पर अदालत के कारण उसकी मजबूरी हो
गई। चौदह वर्ष की उम्र तक के बच्चों को मुफ्त शिक्षा पाने का अधिकार हासिल
हो गया है।
अब सवाल है कि इतने स्कूल कहां से ले आए जाएं। तब अमीर स्कूलों की ओर नजर
गई। उन्हें आदेश दिया गया कि पचीस प्रतिशत सीटें गरीब बच्चों को देनी
होंगी। इससे इन स्कूलों में उपलब्ध कुल सीटों की संख्या तो नहीं बढ़ जाएगी
पर अमीर बच्चों को सर्वोत्तम शिक्षा देने के लिए नए स्कूल जरूर खोले जाने
लगेंगे। वहां भी कृष्ण और सुदामा साथ-साथ पढ़ेंगे। इससे नगरों और महानगरों
में शिक्षा उद्योग की प्रगति दर बढ़ेगी और निवेश के नए अवसर खुलेंगे। कक्षा
आठ तक के इस मिश्रित शिक्षा तंत्र के सामाजिक परिणाम क्या निकलेंगे इस पर
दीर्घकालिक दृष्टि से विचार किए जाने की आवश्यकता है।
यह तो शत-प्रतिशत तय है कि अमीर स्कूलों में गरीब बच्चों के साथ वैसा ही
व्यवहार होगा जैसा सरकारी दफ्तरों में एससी, एसटी कर्मचारियों के साथ होता
आया है। चूंकि आरक्षण की व्यवस्था को राजनीतिक और कानूनी समर्थन है, पर
सवर्ण और समर्थ वर्ग ने इसे स्वीकार नहीं किया है, इसलिए आरक्षित वर्ग के
कर्मचारियों के साथ वह व्यवहार नहीं हो पाता जो आरक्षण के दर्शन के अनुसार
वांछित है। ऐसा कुछ अमीर स्कूलों में न होने पाए इसकी प्रमुख जिम्मेदारी
इन स्कूलों के शिक्षकों और संचालकों पर निर्भर करता है। पर इतनी तो इनसे
प्रार्थना की हीजानीचाहिए कि ये अपने-अपने स्कूल और अपनी-अपनी कक्षाओं
में संवेदनशीलता और सौहार्द का वातावरण बनाएं। संपन्न बच्चों और उनके
अभिभावकों के साथ बार-बार बैठक कर उन्हें इन नई व्यवस्था के सकारात्मक
पक्षों से अवगत और सचेतन करने का प्रयास करें। इसी तरह गरीब बच्चों के साथ
अलग से बैठक कर उन्हें इसके लिए मानसिक रूप से तैयार करना होगा कि उन्हें
किन-किन मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है तथा उन्हें समझ, धैर्य तथा
सहनशीलता का परिचय देना होगा।
पर क्या यह संभव हो पाएगा? मैं प्रकृति से ही निराशावादी हूं। खासकर अपने
देश को ले कर। इसलिए मुझे डर यह है कि अंतत: तो केर-बेर को संग की स्थिति
ही बनेगी। ऐसी स्थिति में क्या होता है, इसका बयान करते हुए कवि ने कहा
है-ये डोलें मन आपनो उन कर फाटे अंग। पश्चिमी देशों की तरह हमारे यहां भी
गरीब-अमीर, काले-गोरे सभी के लिए एक ही तरह का स्कूल तंत्र होता तो कितना
अच्छा होता। सामाजिक विषमता और भेदभाव खत्म करने का इससे बेहतर तरीका कुछ
और नहीं हो सकता। अभी तो मैं इतनी ही कल्पना कर पा रहा हूं कि जब गरीब
बच्चे अमीर बच्चों और उनके शिक्षा तंत्र के सीधे संपर्क में आएंगे तब उनके
मन में विषमता पर आधारित वर्तमान व्यवस्था के प्रति तीखा आक्रोश पैदा होगा।
हो सकता है इससे बदलाव के संघर्ष को एक नया आधार मिले। यदि ऐसा कुछ नहीं
होता है तो सामाजिक कटुता का बढ़ना निश्चित है।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)