दुर्भाग्य से, हमारी अर्थव्यवस्था की उन्नति के लिए ये दोनों ही तकनीकें खतरनाक हैं। तब प्रधानमंत्री ने गैरसरकारी संगठनों पर भी उंगली उठाते हुए कहा था कि ये संस्थाएं विदेशी हाथों मेंे खेल रही हैं और ‘विकास कार्यों’ में बाधा उत्पन्न कर रही हैं। प्रधानमंत्री का यह बयान बताता है कि वह न सिर्फ विज्ञान से दूर हैं, बल्कि आम लोगों से भी दूर हैं, लोकतंत्र में जिसके प्रतिनिधित्व का वह दावा करते हैं।
बल्कि ऐसी खतरनाक तकनीकों के इस्तेमाल को रोकने के लिए संघर्ष कर रहे एनजीओ में ‘विदेशी पूंजी’ लगने की बात कहकर वह देश को गुमराह करने का काम ही रहे हैं। जिम्मेदार और लोकतांत्रिक विज्ञान के विकास की दिशा में प्रधानमंत्री को डॉ पुष्प भार्गव (देश में आणविक जीव विज्ञान के जनक और जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी में सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त प्रतिनिधि), डॉ ए गोपाल कृष्णन (परमाणु ऊर्जा नियामक बोर्ड के पूर्व चेयरमैन) जैसे विशेषज्ञों की राय सुननी चाहिए, न कि ‘विदेशी हाथ’ का हौवा खड़ा कर उन सामाजिक आंदोलनों अथवा जन हितैषी समूहों पर चोट करनी चाहिए, जो किसी भी लोकतंत्र में खून की तरह हैं।
दरअसल, देश में जीएमओ (जेनेटिकली मोडिफाइड ऑरगेनिज्म) और परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को प्रमुखता से आगे बढ़ाने के लिए ही उन आंदोलनों को कुचला जा रहा है, जिसमें जेनेटिक इंजीनियरिंग और परमाणु ऊर्जा से जुड़ी सुरक्षा संबंधी चिंताओं को उठाया जाता है। निर्विवाद है कि ये हमले विदेशी कॉरपोरेट घरानों की शह पर हो रहे हैं। हमारे प्रधानमंत्री भी इन घरानों के दबाव में आकर देश की खाद्य और ऊर्जा संप्रभुता से समझौता करने को तैयार हो गए हैं।
उन्होंने अमेरिका के साथ परमाणु समझौता किया, जिसका संसद से अनुमोदन ‘वोट के बदले नोट’ कांड के बाद ही हो सका। इसी तरह हमारी सरकार ने अमेरिका के साथ खेती से जुड़ा करार किया, जिसमें हमारी खाद्य और कृषि व्यवस्थाओं को मोनसेंटो, कारगिल और वॉलमार्ट जैसी विदेशी कॉरपोरेट के हाथों बंधक हो जाना है। बहरहाल, संसद ने खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को लागू करने की कोशिशें विफल कर दीं। आम लोगों ने भी विधानसभा चुनावों में बता दिया कि वे केंद्र सरकार की उन नीतियों के खिलाफ हैं, जो वैश्विक निगमों के हितों का पोषण करती हैं, क्योंकि ये नीतियां आजीविका खत्म कर रही हैं और उनके लोकतांत्रिक अधिकारों को कुचल रही हैं।
हमने पहले ही देखा कि मोनसेंटो के आने के बाद किस तरह कपास के बीज पर अपनी संप्रभुता समाप्त हुई। आज कपास के हमारे बीजों का 95 फीसदी मोनसेंटो खरीद लेती है। नतीजतन देश में कपास बीजों की लागत 8,000 फीसदी बढ़ी, कपास की फसल के खराब होने की आशंका बढ़ी, कीटाणुनाशकों का प्रयोग बढ़ा, किसानों पर कर्ज बढ़ा और किसान-आत्महत्या महामारी के रूप में उभरी।
प्रधानमंत्री इस ‘दोहरी मार’ की चर्चा तो करते हैं, लेकिन वह इसे एक ‘अवसर’ के रूप में भीदेखते हैं। वह अब तक ढाई लाख किसानों की आत्महत्या, देश में गहराते कृषि और खाद्य संकट और बच्चों की कुल संख्या की आधी फीसदी आबादी के कुपोषित होने जैसे मसलों का हल तलाशने में विफल रहे हैं। उन्हें समझना होगा कि जीएमओ इन समस्याओं का समाधान नहीं है। जीएमओ बीजों के एकाधिकार पर आधारित पूंजीगत गैर-टिकाऊ कृषि से जुड़े कर्ज संकट को और बढ़ा रहा है।
इससे स्वस्थ और पोषक खाद्य पदार्थों से भरपूर हमारा खाद्य तंत्र नष्ट हो रहा है। असल में, किसानों की आत्महत्या और बाल कुपोषण जैसी समस्याओं के हल कृषि पारिस्थितिकी के विज्ञान और पारिस्थितिकी अनुकूलता के विकास में छिपे हैं। रासायनिक खादों का इस्तेमाल कम होने से स्वाभाविक रूप से उत्पादन लागत कम होगी और उसमें पोषक तत्व भी होंगे।
लिहाजा यह कहना गलत नहीं कि समाज और पारिस्थितिकी की कीमत पर एक विफल तकनीक को ‘विज्ञान’ के नाम पर लागू किया जा रहा है, जो विरोधी-विज्ञान और अलोकतांत्रिक है। यह इसलिए भी विरोधी-विज्ञान है, क्योंकि वास्तविक विज्ञान कृषि-पारिस्थितिकी और जीनों में आनुवांशिक बदलाव के नए नियमों पर आधारित होता है, न कि आनुवांशिक नियतिवाद के अप्रचलित विचारों पर।
इसी तरह ऊर्जा के क्षेत्र में नया विज्ञान अक्षय ऊर्जा है, न कि आणविक ऊर्जा। मगर क्या वैश्विक कॉरपोरेट घरानों से प्रभावित प्रधानमंत्री देश की बीज संप्रभुता, खाद्य संप्रभुता, ऊर्जा संप्रभुता और स्वास्थ्य तथा पोषण संप्रभुता को नष्ट करने वाली नीतियों को रोकेंगे? इस परिदृश्य में देखें, तो साइंस में दिया गया प्रधानमंत्री का इंटरव्यू लोकतंत्र और लोक अधिकारों पर हो रहे हमले का ही एक हिस्सा है, जिसमें खाद्य और ऊर्जा के क्षेत्र में वैश्विक कॉरपोरेट घरानों की भूमिका को अलोकतांत्रिक तरीके से स्थापित किया जाता है।