बीसवीं
सदी के शुरुआती दशकों में भारत पर राज कर रही औपनिवेशिक ब्रिटिश सरकार ने
सबसे पहले यह स्वीकारा था कि अनाथ और निराश्रित बच्चों व किशोरों की देखभाल
करना सरकार की कानूनी जिम्मेदारी है। लेकिन भारत को लोकतांत्रिक स्वाधीनता
मिलने के छह दशक बीतने के बावजूद इस तरह के बच्चों और किशोरों के हित में
अधिक से अधिक यही किया जा सका है कि उन्हें कारागृह जैसी राज्यशासी
संस्थाओं में भेज दिया जाए।
इन शुष्क और ऊष्मारहित संस्थाओं में बच्चों का बचपन बीत जाता है। जब वे
बड़े हो जाते हैं या चौदह वर्ष की उम्र पार कर जाते हैं तो उन्हें इन
संस्थाओं से मुक्त कर दिया जाता है और बिना किसी मार्गदर्शन के बड़ों की
कठोर दुनिया में अकेला छोड़ दिया जाता है। दुख की बात तो यह है कि सरकार ही
नहीं, बल्कि कई निजी और धार्मिक चैरिटी संस्थाओं का रुख भी कमोबेश ऐसा ही
रहता है।
इस तरह की संस्थाओं में बच्चे आमतौर पर बाहरी दुनिया से कटे रहते हैं।
उन्हें बड़ी-बड़ी डॉर्मिटरीज में कड़े अनुशासन में रखा जाता है। उन्हें
शारीरिक प्रताड़ना दिए जाने की घटनाएं तो खैर अब आम हो चली हैं। हम जिन
स्ट्रीट चिल्ड्रन के साथ काम करते हैं, वे इस तरह की संस्थाओं को ‘चिल्लर
जेल’ कहकर पुकारते हैं। लेकिन हाड़-मांस के सभी इंसानों की तरह इन बच्चों
के मन में भी आजादी की चाह होती है और वे खुली हवा में सांसें लेना चाहते
हैं।
कड़ी और संवेदनहीन निगरानी में बच्चों के पालन-पोषण का विरोध करने वाली कई
गैरसरकारी संस्थाओं ने इस तरह के बच्चों के लिए कई कार्यक्रम विकसित किए
हैं। इनका यह मानना है कि बच्चों और युवाओं को यह चुनने का अधिकार है कि वे
कैसा जीवन बिताना चाहते हैं। साथ ही उन्हें आर्थिक आजादी हासिल करने का भी
हक है। वे बहुत छोटी उम्र से ही इस आजादी के लिए संघर्ष कर रहे होते हैं
और उन्हें इसकी सख्त जरूरत होती है।
साथ ही वे इस तरह की संस्थाओं की तुलना में सड़कों पर जीवन बिताना ज्यादा
पसंद करते हैं, क्योंकि कम से कम उसमें आत्मीयता, स्वतंत्रता और संभावनाओं
का क्षितिज तो है। देखा तो यह भी गया है कि माता-पिता के र्दुव्यवहार से
तंग आकर कई बच्चे खुद ही घर छोड़कर सड़कों पर रहने चले आते हैं। यदि
संरक्षण के आग्रह बच्चों की आकांक्षाओं को कुचलते हैं तो शायद हमें इसके
लिए ज्यादा जोर नहीं देना चाहिए।
सड़कों पर बिताया गया जीवन इन बच्चों के लिए एक स्कूल की तरह होता है, जो
उन्हें जीवन की कठोरताओं से संघर्ष करने का हुनर सिखाता है। वे अपनी शर्तो
परजीना सीखते हैं। वे आजीविका कमाने के लिए घर से बाहर निकलते हैं और
लोगों से रूबरू होते हैं।
यदि इन बच्चों को एक सकारात्मक जीवनशैली नहीं मुहैया कराई जा सकती तो कम से
कम उन्हें जीवन की पाठशाला के इस सबक से वंचित भी नहीं किया जाना चाहिए।
बच्चे सड़कों पर रहकर जो हुनर सीखते हैं, जरूरत उन्हीं का विकास करने की
है। उनके लिए नवोन्मेषी कौशल विकास योजनाएं बनाने की जरूरत है।
हालांकि इस धारणा की एक सीमा यह है कि वह यह स्वीकार कर लेती है कि बच्चों
को पढ़ने-लिखने की उम्र में काम करना चाहिए। अनौपचारिक शिक्षा कार्यक्रमों
के मार्फत ये बच्चे हद से हद साक्षर ही बन सकते हैं, वे सही मायनों में
शिक्षित कभी न हो पाएंगे।
उनके सामने अपने कॅरियर का चयन करने के भी अधिक विकल्प नहीं होते। जब इन
बच्चों को अपने जीवन के अहम फैसले लेने होते हैं, तो उन्हें सबसे ज्यादा
कमी खलती है बड़ों के जिम्मेदार और सहानुभूतिपूर्ण संरक्षण की। ये बच्चे कम
उम्र में ही पैसे कमाने लग जाते हैं।
इससे सबसे बड़ा खतरा यह है कि पैसे खर्च करने का विवेक पैदा होने से पहले
ही उनके हाथ में पैसा आ जाता है। पूरी आशंका रहती है कि वे ड्रग्स जैसी
बुरी आदतों के चंगुल में फंस जाएं। वे जिस तरह की तनावभरी स्थितियों में
पलकर बड़े होते हैं, उसमें वे ड्रग्स जैसी चीजों को सुकूनदायक मानने की भूल
कर सकते हैं।
एक प्रणाली यह भी है, जिसका मैं स्वयं समर्थन करूंगा कि सर्वाधिक वंचित
शहरी बच्चों के बुनियादी अधिकारों की रक्षा करने के प्रयास किए जाएं। इनमें
वे बच्चे शामिल हैं, जो फुटपाथ या रेलवे प्लेटफॉर्म पर रहते हैं और कचरा
बीनकर जीवन-यापन करते हैं। इन बच्चों के उत्थान पर ध्यान केंद्रित किया
जाना चाहिए, लेकिन साथ ही यह भी ख्याल रखा जाना चाहिए कि उन्हें कारागृहों
जैसी सुधार संस्थाओं में नहीं भेज दिया जाए। सवाल परोपकार की भावना से भी
अधिक प्रेम और संवेदना की भावना का है।
अक्सर देखा जाता है कि इस तरह के बच्चे बहुत जल्दी गंभीर बीमारियों के
शिकार हो जाते हैं। हमें उनके प्रति उसी तरह की संवेदना का प्रदर्शन करना
चाहिए, जैसी हम अपने बच्चों के लिए करते हैं।
इस दिशा में सिस्टर सिरिल द्वारा संचालित दोन बोस्को आवासगृह, रेनबो स्कूल
और मुंबई की स्नेहालय संस्था द्वारा वर्षो से किए जा रहे कार्य अनुकरणीय
हैं। स्नेहालय में २क्-२क् बच्चों की यूनिट्सकोघर जैसे आत्मीय माहौल में
आश्रय दिया जाता है और बच्चों को गोद लेने वाले पालकों द्वारा भी उनकी
सहायता की जाती है।
दिल्ली और हैदराबाद में हमने राज्य सरकारों की मदद से इसी मॉडल पर काम करने
का प्रयास किया था। निराश्रित बच्चों के संरक्षण के लिए स्कूल भवनों का
उपयोग किया जा सकता है, जो कि आमतौर पर दिन में सोलह घंटे बेकार पड़े रहते
हैं। यह इन बच्चों के पुनर्वास का सबसे किफायती मॉडल होगा। रेनबो स्कूल की
संस्थापिका सिरिल मूनी अंग्रेजी माध्यम के एक स्कूल की प्राध्यापिका थीं,
लेकिन स्कूल के बाहर हुए एक हादसे के बाद उन्होंने निराश्रित बच्चों के लिए
अपने स्कूल के दरवाजे खोल दिए।
आज रेनबो स्कूल निराश्रित बच्चों के संरक्षण के लिए भारत में सक्रिय सबसे
अच्छे मॉडल्स में से एक है। समाज को इसी तरह की संवेदना की आवश्यकता है। (लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं।) -लेखक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य हैं।
सदी के शुरुआती दशकों में भारत पर राज कर रही औपनिवेशिक ब्रिटिश सरकार ने
सबसे पहले यह स्वीकारा था कि अनाथ और निराश्रित बच्चों व किशोरों की देखभाल
करना सरकार की कानूनी जिम्मेदारी है। लेकिन भारत को लोकतांत्रिक स्वाधीनता
मिलने के छह दशक बीतने के बावजूद इस तरह के बच्चों और किशोरों के हित में
अधिक से अधिक यही किया जा सका है कि उन्हें कारागृह जैसी राज्यशासी
संस्थाओं में भेज दिया जाए।
इन शुष्क और ऊष्मारहित संस्थाओं में बच्चों का बचपन बीत जाता है। जब वे
बड़े हो जाते हैं या चौदह वर्ष की उम्र पार कर जाते हैं तो उन्हें इन
संस्थाओं से मुक्त कर दिया जाता है और बिना किसी मार्गदर्शन के बड़ों की
कठोर दुनिया में अकेला छोड़ दिया जाता है। दुख की बात तो यह है कि सरकार ही
नहीं, बल्कि कई निजी और धार्मिक चैरिटी संस्थाओं का रुख भी कमोबेश ऐसा ही
रहता है।
इस तरह की संस्थाओं में बच्चे आमतौर पर बाहरी दुनिया से कटे रहते हैं।
उन्हें बड़ी-बड़ी डॉर्मिटरीज में कड़े अनुशासन में रखा जाता है। उन्हें
शारीरिक प्रताड़ना दिए जाने की घटनाएं तो खैर अब आम हो चली हैं। हम जिन
स्ट्रीट चिल्ड्रन के साथ काम करते हैं, वे इस तरह की संस्थाओं को ‘चिल्लर
जेल’ कहकर पुकारते हैं। लेकिन हाड़-मांस के सभी इंसानों की तरह इन बच्चों
के मन में भी आजादी की चाह होती है और वे खुली हवा में सांसें लेना चाहते
हैं।
कड़ी और संवेदनहीन निगरानी में बच्चों के पालन-पोषण का विरोध करने वाली कई
गैरसरकारी संस्थाओं ने इस तरह के बच्चों के लिए कई कार्यक्रम विकसित किए
हैं। इनका यह मानना है कि बच्चों और युवाओं को यह चुनने का अधिकार है कि वे
कैसा जीवन बिताना चाहते हैं। साथ ही उन्हें आर्थिक आजादी हासिल करने का भी
हक है। वे बहुत छोटी उम्र से ही इस आजादी के लिए संघर्ष कर रहे होते हैं
और उन्हें इसकी सख्त जरूरत होती है।
साथ ही वे इस तरह की संस्थाओं की तुलना में सड़कों पर जीवन बिताना ज्यादा
पसंद करते हैं, क्योंकि कम से कम उसमें आत्मीयता, स्वतंत्रता और संभावनाओं
का क्षितिज तो है। देखा तो यह भी गया है कि माता-पिता के र्दुव्यवहार से
तंग आकर कई बच्चे खुद ही घर छोड़कर सड़कों पर रहने चले आते हैं। यदि
संरक्षण के आग्रह बच्चों की आकांक्षाओं को कुचलते हैं तो शायद हमें इसके
लिए ज्यादा जोर नहीं देना चाहिए।
सड़कों पर बिताया गया जीवन इन बच्चों के लिए एक स्कूल की तरह होता है, जो
उन्हें जीवन की कठोरताओं से संघर्ष करने का हुनर सिखाता है। वे अपनी शर्तो
परजीना सीखते हैं। वे आजीविका कमाने के लिए घर से बाहर निकलते हैं और
लोगों से रूबरू होते हैं।
यदि इन बच्चों को एक सकारात्मक जीवनशैली नहीं मुहैया कराई जा सकती तो कम से
कम उन्हें जीवन की पाठशाला के इस सबक से वंचित भी नहीं किया जाना चाहिए।
बच्चे सड़कों पर रहकर जो हुनर सीखते हैं, जरूरत उन्हीं का विकास करने की
है। उनके लिए नवोन्मेषी कौशल विकास योजनाएं बनाने की जरूरत है।
हालांकि इस धारणा की एक सीमा यह है कि वह यह स्वीकार कर लेती है कि बच्चों
को पढ़ने-लिखने की उम्र में काम करना चाहिए। अनौपचारिक शिक्षा कार्यक्रमों
के मार्फत ये बच्चे हद से हद साक्षर ही बन सकते हैं, वे सही मायनों में
शिक्षित कभी न हो पाएंगे।
उनके सामने अपने कॅरियर का चयन करने के भी अधिक विकल्प नहीं होते। जब इन
बच्चों को अपने जीवन के अहम फैसले लेने होते हैं, तो उन्हें सबसे ज्यादा
कमी खलती है बड़ों के जिम्मेदार और सहानुभूतिपूर्ण संरक्षण की। ये बच्चे कम
उम्र में ही पैसे कमाने लग जाते हैं।
इससे सबसे बड़ा खतरा यह है कि पैसे खर्च करने का विवेक पैदा होने से पहले
ही उनके हाथ में पैसा आ जाता है। पूरी आशंका रहती है कि वे ड्रग्स जैसी
बुरी आदतों के चंगुल में फंस जाएं। वे जिस तरह की तनावभरी स्थितियों में
पलकर बड़े होते हैं, उसमें वे ड्रग्स जैसी चीजों को सुकूनदायक मानने की भूल
कर सकते हैं।
एक प्रणाली यह भी है, जिसका मैं स्वयं समर्थन करूंगा कि सर्वाधिक वंचित
शहरी बच्चों के बुनियादी अधिकारों की रक्षा करने के प्रयास किए जाएं। इनमें
वे बच्चे शामिल हैं, जो फुटपाथ या रेलवे प्लेटफॉर्म पर रहते हैं और कचरा
बीनकर जीवन-यापन करते हैं। इन बच्चों के उत्थान पर ध्यान केंद्रित किया
जाना चाहिए, लेकिन साथ ही यह भी ख्याल रखा जाना चाहिए कि उन्हें कारागृहों
जैसी सुधार संस्थाओं में नहीं भेज दिया जाए। सवाल परोपकार की भावना से भी
अधिक प्रेम और संवेदना की भावना का है।
अक्सर देखा जाता है कि इस तरह के बच्चे बहुत जल्दी गंभीर बीमारियों के
शिकार हो जाते हैं। हमें उनके प्रति उसी तरह की संवेदना का प्रदर्शन करना
चाहिए, जैसी हम अपने बच्चों के लिए करते हैं।
इस दिशा में सिस्टर सिरिल द्वारा संचालित दोन बोस्को आवासगृह, रेनबो स्कूल
और मुंबई की स्नेहालय संस्था द्वारा वर्षो से किए जा रहे कार्य अनुकरणीय
हैं। स्नेहालय में २क्-२क् बच्चों की यूनिट्सकोघर जैसे आत्मीय माहौल में
आश्रय दिया जाता है और बच्चों को गोद लेने वाले पालकों द्वारा भी उनकी
सहायता की जाती है।
दिल्ली और हैदराबाद में हमने राज्य सरकारों की मदद से इसी मॉडल पर काम करने
का प्रयास किया था। निराश्रित बच्चों के संरक्षण के लिए स्कूल भवनों का
उपयोग किया जा सकता है, जो कि आमतौर पर दिन में सोलह घंटे बेकार पड़े रहते
हैं। यह इन बच्चों के पुनर्वास का सबसे किफायती मॉडल होगा। रेनबो स्कूल की
संस्थापिका सिरिल मूनी अंग्रेजी माध्यम के एक स्कूल की प्राध्यापिका थीं,
लेकिन स्कूल के बाहर हुए एक हादसे के बाद उन्होंने निराश्रित बच्चों के लिए
अपने स्कूल के दरवाजे खोल दिए।
आज रेनबो स्कूल निराश्रित बच्चों के संरक्षण के लिए भारत में सक्रिय सबसे
अच्छे मॉडल्स में से एक है। समाज को इसी तरह की संवेदना की आवश्यकता है। (लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं।) -लेखक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य हैं।